“बुद्ध ने चालीस वर्षों तक लोगों को क्या सिखाया?” – ओशो
भगवान बुद्ध ने ज्ञानोपलब्धि के तुरंत बाद कहा : स्वयं ही जानकर किसको गुरु कहूं और किसको सिखाऊं, किसको शिष्य बनाऊं? और फिर उन्होंने चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को दीक्षित भी किया और सिखाया भी। लेकिन महापरिनिर्वाण के पहले उनका अंतिम उपदेश था : आत्म दीपो भव! भगवान इस पर कुछ प्रकाश डालने की अनुकंपा करें।
जिसने भी जाना, सदा स्वयं से जाना।
गुरु हो, तो भी निमित्तमात्र है। गुरु न हो, तो भी चल जाएगा।
असली सवाल— ध्यान रखना—गुरु के होने, न होने का नहीं है। असली सवाल स्वयं में प्रवेश का है। कुछ साहसी लोग अकेले भी स्वयं में प्रविष्ट हो जाते हैं। कुछ को सहारे की जरूरत पड़ती है। जिनको सहारे की जरूरत पड़ती है, वे भी प्रविष्ट तो अकेले ही होते हैं। सहारा निमित्तमात्र है।
सहारा वस्तुत: सत्य के मिलने में सहयोगी नहीं है, सिर्फ तुम्हारी हिम्मत बढ़ाने में सहयोगी है।
जैसे तुम डरते हो गहरे पानी में जाने में। और कोई कहता है घबड़ाओ मत, मैं किनारे पर खड़ा हूं। तुम जाओ। जरूरत होगी, तो मैं हूं। मैं कूद पड़गा। बचा लूंगा। तुम जाते हो।
जरूरत कभी पड़ती नहीं। क्योंकि वह गहराई तुम्हारी ही गहराई है। उसमें ड़बकर आदमी मिटता नहीं, पहली दफा होता है। इसलिए ड़बने में कोई खतरा ही नहीं है। न ड़बो, तो ही झंझट है। डूबगए, तब तो कोई खतरा नहीं है। डूबगए, तो पहुंच गए। लेकिन जिसने गहराई नहीं जानी, वह डरता है।
गुरु इतना ही करता है कि तुम्हारे झूठे डर को…….। तुमसे अगर वह कहे कि यह डर झूठा है, घबड़ाओ मत; कोई कभी डूबा नहीं है। या डूबभी गए जो, वे पहुंच गए ड़बकर, तो शायद तुम भाग खड़े होओगे। तुम कहोगे, क्या पक्का भरोसा कि कोई कभी डूबा नहीं! और न डूबा हो कोई, मुझे तो लगता है कि मैं डूबजाऊंगा। मैं असहाय, मैं अल्प शक्तिवान, इस विराट सागर में अकेला जाऊं—नहीं होगा। या अगर गुरु कहे तुमसे सच्ची बात—कि डूबगए, तो पहुंच गए। ड़बना सौभाग्य है। मृत्यु महाजीवन का द्वार है। तब तो तुम इस आदमी को बिलकुल ही छोड़कर भाग जाओगे। यहां रुकना भी खतरनाक है! मिटने कोई नहीं आता गुरु के पास; होने आता है। लेकिन होने की प्रक्रिया मिटना है।
तो गुरु ये बातें नहीं कहता। इन बातों को छिपाकर रखता है। यह तो तुम जानोगे, तब जानोगे। तुम्हें आश्वासन देता है. घबड़ाओ मत, मैं तो खड़ा हूं। देखते नहीं मुझे कि इतनी गहराइयों में तैरता हूं। तुम ड़बोगे, तो मैं बचा लूंगा।
यह एक झूठ को दूसरे झूठ से सहारा देकर तुम्हें हिम्मत, तुम्हें साहस देने की चेष्टा है। यह उपाय है। इस भांति तुम उतर जाते हो। उतर गए, तो तुम स्वयं जानोगे कि बचाने की कोई जरूरत न थी। बचाना तो महंगा पड़ जाता। उतरकर तो ड़बना ही है। ड़बकर गहराई हो जाना है। उसी गहराई में समाधि है, निर्वाण है।
तो गुरु को तुम्हें बचाने कभी जाना नहीं पड़ता। गुरु तो तुम्हें इस बहाने भेज रहा है —कि बचा लूंगा, घबडाओ मत, जाओ तो।
एक दफा गए, तो खुद ही स्वाद लग जाएगा। और ड़बने का स्वाद लग गया, तो राज समझ में आ गया। जब तुम पा लोगे, तब तुम कहोगे अरे! यह तो अपने से हो गया! तब तुम जानोगे भलीभांति कि गुरु को कुछ भी न करना पड़ा।
फिर भी तुम अनुग्रह मानोगे, यद्यपि गुरु ने कुछ भी नहीं किया। इतना तो किया कि तुम एक व्यर्थ की बात से डरे थे, तुम्हें सहारा दिया। उस समय सहारा बड़ा जरूरी था।
अब यह जरा जटिल मामला है। सहारा गुरु देता भी नहीं, क्योंकि सहारे की कोई जरूरत नहीं है। और देता भी है। क्योंकि तुम झूठ हो। तुम अंधेरे में खड़े हो। तुम्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ता। तुम्हें सहारे की जरूरत है, तो तुम्हें सहारा देता है। यद्यपि सहारे की जरूरत कभी नहीं पड़ती।
तुम्हें बेसहारा छोड़ने में ही गुरु की कला है। अगर कोई गुरु तुम्हें सहारा सच में दे दे, तो तुम वंचित रह जाओगे। वही सहारा अटकाव हो जाएगा।
तो बुद्ध ठीक कहते हैं. स्वयं ही जानकर अब किसको गुरु कहूं? किसी ने जनाया नहीं। किसी ने सत्य दिया नहीं। सत्य भीतर आविष्कृत हुआ है; भीतर उमगा है। किसको गुरु कहूं?
और जब किसी को गुरु नहीं कह सकता, तो किसको शिष्य बनाऊं? वह उसका अनुसंग है। जब मैं किसी को गुरु नहीं कह सकता, तो अब किसको शिष्य बनाऊं? किसको सिखाऊं?
जानता हूं कि सिखाने की जरूरत ही नहीं। प्रत्येक व्यक्ति सत्य को लेकर ही जन्मा है। सत्य तुम्हारा स्वभाव है। कुछ करना नहीं है, सिर्फ अपने स्वभाव को पहचानना है। और यह पहचान की क्षमता भी तुममें है। सारा आयोजन है।
तुम वीणा बजाना जानते हो। तुम्हारी अंगुलियां कुशल हैं। वीणा भी रखी है। यद्यपि संगीत पैदा नहीं हो रहा है। तुम अंगुलियां वीणा पर रख नहीं रहे। तुम अपनी कुशलता वीणा पर बरसा नहीं रहे। तुम अपनी कुशलता वीणा पर बरसाओ; वीणा तुम पर संगीत बरसा दे। सब मौजूद है।
तुम्हें भोजन बनाना आता है। आटा भी है, नमक भी है, घी भी है, दाल भी है, पानी भी है, आग भी जली रखी है, और तुम भूखे बैठे हो! और तुम्हें भोजन बनाना भी आता है! कुछ कमी नहीं है। सब है। जरा तालमेल बिठाना है। जरा संयोजन जमाना है। भूखे रहने की कोई जरूरत न रह जाएगी।
इसलिए बुद्ध कहते हैं. किसको सिखाऊं? क्या सिखाऊं? सत्य सिखाया ही नहीं जा सकता। जो सिखाया जाएगा, वह सत्य नहीं होगा। सिखाने की तो बात दूर, सत्य कहा भी नहीं जा सकता।
जो भी चीज सिखायी जाएगी, वह तुम्हारा स्वभाव नहीं है। सब सिखावन परभाव है। तुम जो भी सीखते हो, वह बाहर का है। अनसीखा भीतर पड़ा है, उसको सीखना नहीं है। उसके लिए तो सब सिखावन फनी है। जो—जो सीख लिया, उसे विस्मृत करना है।
असली गुरु वही, जो तुम्हें सिखाता नहीं, बल्कि तुम्हें भुलाता है। जो कहता है : भूलो। यह भी भूलो; यह भी भूलो, यह भी भूलो। यह सब कचरा है। कचरे को भूलते जाओ। यह बाहर से आया है; इसे छोड़ते जाओ, त्यागते जाओ। जब तुम्हारे पास त्यागने को कुछ भी न बचे, जब बाहर से आया हुआ सब तुमने वापस बाहर फेंक दिया, तब जो शेष रह जाएगा—धड़कता हुआ, ज्योतिर्मय—वही तुम हो, वही सत्य है।
बाहर से जो आया है, उसने तुम पर पर्तें जमा दी हैं। जैसे दर्पण पर धूल की पर्तें जम गयी हैं। गुरु कहता है : धूल को पोंछ दो। दर्पण भीतर मौजूद है। दर्पण कहीं से लाना नहीं है।
तो इसलिए बुद्ध कहते हैं : किसको सिखाऊं? किसको गुरु बनाऊं?
और तुम्हारा प्रश्न भी संगत है। तुम पूछते हो : ‘फिर भी उन्होंने चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को दीक्षित जया और सिखाया भी!’
यह भी सच है। तुम्हारा प्रश्न संगत है। और तुम्हें बड़ी उलझन में डालेगा। एक तरफ कहा कि न मेरा कोई गुरु, और न मैं सिखाऊंगा किसी को। फिर चालीस वर्षों तक लाखों लोगों को सिखाया! जितने लोगों को बुद्ध ने सिखाया, किसी दूसरे व्यक्ति ने नहीं सिखाया। सिखाया क्या? यही सिखाया कि सिखाने को कुछ भी नहीं है। दीक्षित किस बात में किया? इसी बात में दीक्षित किया कि कोई गुरु नहीं है। अप्प दीपो भव—अपने दीए खुद बनो।
– ओशो (एस धम्मो सनंतनो-(ओशो)-प्रवचन-108 )
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