“अहंकार को पूरी तरह मिटाने का सबसे तेज ढंग क्या है?” – ओशो !
Q. अपने अहंकार को पूरी तरह और सदा के लिए मिटाने का सबसे तेज और सबसे खतरनाक ढंग क्या है?
अहंकार को मिटाने का कोई ढंग ही नहीं है–न धीमा, न तेज; न सरल, न कठिन; न आसान, न खतरनाक। अहंकार हो तो मिटाया जा सकता है। अहंकार है ही नहीं; इसलिए जो मिटाने चलेगा वह और भी बना लेगा। मिटाने की कोशिश में ही अहंकार निर्मित होता है। इसीलिए तथाकथित संतों-महात्माओं में जैसा अहंकार पाया जाता है वैसा साधारणजनों में नहीं पाया जाता। साधारणजन का अहंकार भी साधारण होता है। जो अपने को पवित्र मानते हैं, उनका अहंकार भी उतना ही पवित्र हो गया। और पवित्र अहंकार ऐसा ही है जैसा पवित्र जहर, शुद्ध जहर, बिना मिलावट का, खालिस जहर। मिटाने की चेष्टा अज्ञानपूर्ण है।
तुम्हारा प्रश्न भी विचारणीय है। शायद तुमने सोचा भी न हो कि तुमने क्या पूछा है।
तुम कहते होः “अपने अहंकार को… ।”
जैसे कि अहंकार के अतिरिक्त भी तुम्हारा कोई अपनापन है! अहंकार ही तो इस बात की भ्रांति है कि मैं हूं, मेरा है। हम भ्रांतियों पर भ्रांतियां खड़ी कर देते हैं। अहंकार भी मेरा। इसका अर्थ हुआः एक अहंकार की जगह अब दो अहंकार खड़े हो गए; अहंकार के पीछे एक अहंकार और आ गया। यूं चलोगे तो कतार लग जाएगी अंतहीन।
पूछा है तुमनेः “अपने अहंकार को… ।”
फिर पूछने में भी बहुत अहंकार है।
“पूरी तरह… ।”
कम से राजी न होओगे। थोड़े-बहुत से राजी न होओगे। पूर्णरूपेण! अहंकार पूर्णतावादी होता है। अहंकार के भीतर पूर्णता का रोग होता है। हर काम पूर्ण होना चाहिए। जितना पूर्ण हो उतना अहंकार को प्राण मिलता है। शून्य हो तो अहंकार की मृत्यु हो जाती है। पूर्ण हो तो अहंकार को बल आ जाता है, पोषण मिलता है, भोजन मिलता है, प्राण-प्रतिष्ठा होती है।
तुम कहतेः “अपने अहंकार को पूरी तरह और सदा के लिए… ।”
इन एक-एक शब्दों के पीछे अहंकार स्पष्ट खड़ा है। सदा के लिए! अनंत काल के लिए! इससे कम में न चलेगा। अहंकार हमेशा असंभव की मांग में जीता है। क्योंकि न होगी मांग पूरी और न अहंकार के अंत का क्षण निकट आएगा। अहंकार मांगता है असंभव को, ताकि तुम चलते ही रहो, चलते ही रहो; कभी मंजिल आएगी नहीं, न अहंकार की मृत्यु होगी।
“सदा के लिए”–कहते हो–“अहंकार को मिटाने का सबसे तेज… ।”
वहां भी तुम पीछे नहीं रहना चाहते कि कोई और तुमसे आगे निकल जाए, कि कोई तुमसे भी तेजी से अहंकार को समाप्त कर दे। तुम सबसे तेज विधि चाहते हो, ढंग चाहते हो। इतने से भी अहंकार मानता नहीं। सबसे खतरनाक ढंग भी होना चाहिए। अहंकार हमेशा उस चुनौती को स्वीकार करता है, जो अति दुर्गम हो। चांद पर जाकर कुछ भी नहीं मिलता। लेकिन चांद पर चलने वाला मैं पहला आदमी हूं और मैंने सबसे खतरनाक यात्रा की है अब तक, जो किसी ने कभी नहीं की थी–इतनी ही तृप्ति है।
तुम्हारा पूरा प्रश्न शुरू से लेकर अंत तक अहंकार की छाया से दबा है। और फिर तुम इसे मिटाना चाहते हो। लेकिन क्यों? क्योंकि अहंकार को मिटाना अहंकार को भरने का अति सूक्ष्म उपाय है। तुम यह अहंकार भी संवार लेना चाहते हो कि देखो, जिसे बड़े-बड़े न कर पाए, संत और महात्मा हारे, मैं भी उस अहंकार को मिटाने में समर्थ हुआ! उस अहंकार को, जिसे मुश्किल से कोई मिटा पाया है, मैंने मिटा कर दिखा दिया है!
मिटाने की भाषा ही गलत है। यह ऐसे ही है जैसे कोई अंधकार को मिटाना चाहे–लड़े, घूंसेबाजी करे, तलवार चलाए, चीख-पुकार मचाए, धक्के दे। लेकिन अंधकार यूं नहीं मिटता। और जब बहुत लड़ेगा-झगड़ेगा तो थकेगा; थकेगा, गिरेगा। और जब गिरेगा, थकेगा, हारेगा, तो स्वभावतः यही तर्क की निष्पत्ति होगी कि अंधकार बहुत सबल है, जीता नहीं जाता; लाख उपाय करो, फिर भी जीत संभव नहीं होती।
तर्कयुक्त होगा तुम्हारा निष्कर्ष, लेकिन फिर भी भ्रांत, फिर भी गलत। अंधकार सबल नहीं है। अंधकार का कोई अस्तित्व ही नहीं है, बल तो कैसे होगा? तुम जो हारे, अपनी नासमझी से हारे। तुम जो हारे, वह इसलिए हारे कि तुम उससे लड़े जो था ही नहीं। “नहीं” से जो लड़ेगा उसकी हार सुनिश्चित है। “नहीं” को तो हराया नहीं जा सकता। जो है ही नहीं उसे कैसे हराओगे?
अगर अंधकार होता तो हम कोई रास्ता निकाल लेते। बांध लेते पोटलियों में, फेंक देते गांव के बाहर। तलवारों से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर देते। संघर्ष लेते, युद्ध छेड़ते। मगर ये कोई तरकीबें कारगर नहीं होंगी। तलवार लेकर लड़ोगे तो संभावना यही है कि अपने को ही घाव कर लोगे। दीवालों से टकरा जाओगे अंधकार से लड़ने जाओगे तो। सिर फोड़ लोगे अपना।
अंधकार से लड़ा नहीं जाता, अंधकार को मिटाया भी नहीं जाता। यह भाषा वहां काम नहीं आती। दीया जलाना होता है। और दीया जलते ही, ऐसा मत सोचना कि दीये के जलने से अंधकार मिट जाता है; अंधकार तो था ही नहीं, सिर्फ प्रतीत होता था; दीये के जलने से प्रतीति मिट जाती है, आभास मिट जाता है। अंधकार प्रकाश का अभाव है। इसे बहुत गहराई से समझ लेना। अभाव है प्रकाश का, इसलिए प्रकाश की मौजूदगी होते ही अंधकार नहीं पाया जाता है।
अहंकार आत्मबोध का अभाव है, आत्मस्मरण का अभाव है। अहंकार अपने को न जानने का दूसरा नाम है। इसलिए अहंकार से मत लड़ो। अहंकार और अंधकार पर्यायवाची हैं। हां, अपनी ज्योति को जला लो। ध्यान का दीया बन जाओ। भीतर एक जागरण को उठा लो। भीतर सोए-सोए न रहो। भीतर होश को उठा लो। और जैसे ही होश आया, चकित होओगे, हंसोगे–अपने पर हंसोगे। हैरान होओगे। एक क्षण को तो भरोसा भी न आएगा कि जैसे ही भीतर होश आया वैसे ही अहंकार नहीं पाया जाता है। न तो मिटाया, न मिटा, पाया ही नहीं जाता है।
इसलिए मैं तुम्हें न तो सरल ढंग बता सकता हूं, न कठिन; न तो आसान रास्ता बता सकता हूं, न खतरनाक; न तो धीमा, न तेज। मैं तो सिर्फ इतना ही कह सकता हूं– जागो! और जागने को ही मैं ध्यान कहता हूं।
अहंकार का अर्थ हैः मैं अस्तित्व से अलग हूं, पृथक हूं। और आत्मा का अर्थ हैः मैं अस्तित्व से एक हूं, जुड़ा हूं, संयुक्त हूं, कहीं भी अलग नहीं, कहीं भी भिन्न नहीं, अभिन्न हूं। अस्तित्व से अभिन्नता का अनुभव आत्मा और अस्तित्व से भिन्नता का अनुभव या आभास अहंकार। मिटाना कुछ भी नहीं है, सिर्फ जागना है।
– ओशो (आपुई गई हिराय)
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Comment ( 1 )
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