“गांधी, महावीर या किसी और का खंडन क्यों?” – ओशो
प्रश्नः मेरे सामने एक दूसरा सवाल आया। कई विचारक लोग भी थे, कई लोग भी थे–आपकी जो प्रवृत्ति है, उनके प्रति थोड़ा सदभाव भी था–इनके पास धारणाएं हैं कि इंसान दो ढंग से काम करता है, सब्जेक्टिव और आब्जेक्टिव। तो आपकी जो प्रवृत्तियां हैं और चाहते हैं और आपके पास इतना समय भी नहीं है और हमारे पास भी इतना समय नहीं है। हम बड़ी आसानी से और बड़े पैमाने पर काम करना चाहते हैं। अगर वैसा ही कुछ करना है तो आपकी जो शक्तियां हैं और भावनाएं हैं वे कंस्ट्रक्टिव ढंग से चैनेलाइज हो जाएं, तब बड़ी आसानी से काम चल सकता है। लेकिन कभी आपकी बातों में इतना औरों के प्रति कुछ खंडनात्मक रुख होता है–गांधी या महावीर कोई भी आपसे छूटता नहीं है–कितने लोगों को लगता है और मुझे भी लगता है। तो इससे यह होता है कि जो लोग सदभाव की दृष्टि से देखते हैं, उनके दिमाग में भी तो एक हलचल मचती है। तो क्या यह अच्छा नहीं होगा कि आप कंस्ट्रक्टिव दृष्टि से आपको जो कुछ कहना हो वह कहें–औरों ने क्या किया और क्या कहा, वह बात छोड़ कर कहें तो क्या आसान नहीं होगा?
नहीं, इसलिए कि मर ही जाएगा; आसान तो नहीं होगा, काम भी मर जाएगा। क्योंकि यह दलील नई नहीं है। महावीर के पास भी लोगों ने आकर यही कहा कि आप कृपा करके अगर उपनिषदों और वेदों के खिलाफ न बोलें तो लोगों का सदभाव रहेगा। बुद्ध के पास भी लोगों ने आकर यही कहा कि आप अगर महावीर के खिलाफ न बोलें तो लोगों का सदभाव रहेगा। और शंकर को भी लोगों ने यही आकर कहा कि अगर आप बुद्ध के खिलाफ न बोलें तो आसानी पड़ेगी, जिनका बुद्ध के प्रति सदभाव है, वे कभी आपको साथ न देंगे। जीसस को भी यही कहने वाले लोग थे। तो थोड़ा सोचने जैसा मामला है कि ये सारे के सारे लोगों को यह समझ में बात नहीं आई! समझाने वाले लोग थे, आज हम उनका नाम भी नहीं बता सकते। कारण क्या है? न किसी को ख्याल में आता, न शंकर को ख्याल में आता, न जीसस को और न महावीर को। मुझे भी ख्याल में नहीं आता। उसका कारण क्या है?
पहली तो बात यह है कि हम जिसको व्यक्ति के भीतर आमूल परिवर्तन की व्यवस्था देखते हैं, वे मूलतः डिस्ट्रक्टिव होते हैं। वे मूलतः डिस्ट्रक्टिव होते हैं, जो सृजनात्मकता आती है, वह पीछे आया हुआ फल है। उसके प्रारंभिक चरण तो सब विनाश के हैं। आप जो हैं, अगर मैं कंस्ट्रक्टिव कुछ बात करूं तो इसमें भी एक जोड़ होगा, आप जो हैं और इसलिए आपको आसान पड़ेगा। सदभाव बनाना भी आसान होगा, क्योंकि आपको मैं अंगीकार करता हूं, जैसे आप हैं। ज्यादा से ज्यादा मैं यह कहता हूं कि कमीज के ऊपर आप बंडी और पहनें, इससे आप और सुंदर हो जाएंगे। इसके लिए आप राजी हो जाते हैं, क्योंकि आपको बदलने को तो मैं कुछ कहता नहीं, कुछ छोड़ने को कहता नहीं, कुछ तोड़ने को कहता नहीं, आपको मैं पूरा स्वीकार करता हूं और कुछ एडीशन करता हूं आपमें। इसको आप कंस्ट्रक्शन कहते हैं!
साधारणतः इसको हम कंस्ट्रक्शन कहते हैं कि आप जैसे हैं, उसको हम स्वीकार कर लें। निश्चित ही मुझे काम में सुविधा होगी, मैं आपको बंडी पहना दूं अगर। लेकिन आपको बंडी पहनाने से मुझे प्रयोजन ही नहीं है। मैं आपको बदलना चाहता हूं। आपको सुधारना, संवारना नहीं चाहता। आप सुधरे-संवरे होकर भी यही रहेंगे, जो आप हैं। हो सकता है और खतरनाक हो जाएं, क्योंकि अभी शायद कभी-कभी आपको अपना शरीर भी दिखाई पड़ जाता हो, बंडी पहनकर वह भी दिखाई न पड़े, कोट पहन कर और भी दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
तो मौलिक रूप से तो मैं आपको मिटाना चाहता हूं और उस मिटाने में बड़ी लंबी यात्रा है। और अभी तो आपके विचार पर चोट करूंगा, कल आपके भाव पर चोट करूंगा, परसों आपके पूरे अस्तित्व पर चोट करूंगा। तो अगर विचार से ही भाग खड़े हुए तो मैं समझता हूं, अपना कोई संबंध नहीं है, क्योंकि और गहरी चोट कैसे आप सहेंगे?
गांधी आपके लिए विचार से ज्यादा नहीं हैं, वे आपकी विचारधारा हैं। मोहएमद आपकी विचारधारा हैं या महावीर आपकी विचारधारा हैं। अगर विचार का इतना मोह है–सिर्फ विचार का, तो आप अपने अस्तित्व को बदलने वाले आदमी नहीं हैं।
तो मेरे लिए तो उपयोगी है वह कि मैं देख लेता हूं कि आदमी बदलने वाला आदमी है कि सिर्फ जोड़ने वाला आदमी है। तो मैं तो आपके विचार पर चोट करके, आपकी बिल्कुल परिधि पर चोट कर रहा हूं। अगर वहीं से आप भाग खड़े होते हैं और मेरा आपसे संबंध टूट जाता है, तो मैं समझता हूं कि अच्छा हुआ इस झंझट में नहीं पड़ा, क्योंकि यह काम होने वाला नहीं था आपसे। चोट तो मुझे और गहरी करनी पड़ेगी। आपके भाव पर भी चोट करूंगा, कल आपके अस्तित्व पर भी चोट करूंगा। जिनको भी इतनी गहरी चोट करनी है, जो भी ट्रांसफार्मेशन के लिए उत्सुक हैं, वे कंस्ट्रक्टिव नहीं हो सकते हैं। और जो कंस्ट्रक्टिव हैं, उनसे कभी ट्रांसफार्मेशन किसी का हुआ नहीं है। वह चाहे गांधी हों, चाहे विनोबा–इन दोनों को मैं कंस्ट्रक्टिव आदमी नहीं कहता हूं। इनसे किसी का कोई ट्रांसफार्मेशन नहीं हुआ।
तो अगर मुझे भी नेतृत्व भर करना हो, तो वह जो मित्र सलाह देते हैं, उचित सलाह देते हैं। अगर मुझको भी एक महात्मा बनकर बैठ जाना हो, तो वह बहुत सरल मामला है। उससे ज्यादा सरल कोई काम नहीं है। तब मैं आप जैसे हैं, उसको स्वीकार करता हूं, और सजा देता हूं थोड़ा। आपके अहंकार को और फुसलाता हूं, और सजा देता हूं, तो आपको परसुएड कर देता हूं। लेकिन तब बस मैं नेता होता, और कुछ नहीं होता, मैं महात्मा होता। इससे ज्यादा आप पर मैं कुछ नहीं कर पाता। क्योंकि आपको तो मैं पहले ही स्वीकार करके चल पड़ा कि आपके साथ तो करने का कुछ उपाय नहीं है।
तो मेरे जैसे व्यक्तियों को तो अनिवार्य रूप से इस उपद्रव से गुजरना पड़ता है। वह उपद्रव नया नहीं है, वह पुराना है। और मजा यह है कि महावीर ने जिन लोगों के खिलाफ कहा, महावीर जैसे आदमी को फिर महावीर के खिलाफ बोलना पड़ा, क्योंकि तब तक महावीर का भी अनुगामी वहीं खड़ा हो गया होता है, जहां उपनिषद का अनुगामी महावीर के वक्त खड़ा था। यह झगड़ा महावीर से नहीं है। महावीर का जो झगड़ा था, वही यह झगड़ा है। दिखता है कि महावीर से है, क्योंकि महावीर को उपनिषद के अनुयायी के साथ लड़ना पड़ा था, क्योंकि उपनिषद स्टेटस-को हो गया था। अब मुझे महावीर से लड़ना पड़े, क्योंकि महावीर स्टेटस-को हैं। इसमें महावीर की भी सहानुभूति मेरे ही साथ होगी तब, होगी ही, क्योंकि मैं काम वही कर रहा हूं। और ऐसा नहीं कि यह काम कोई खत्म हो जाने वाला है। कल मेरे जैसे को मुझसे लड़ना पड़ेगा, इसमें कोई उपाय नहीं है–यानी कल मेरे जैसे व्यक्ति को मुझसे इसी भांति लड़ना पड़ेगा। पर मेरी उसके साथ सहानुभूति होगी। किसी न किसी को लड़ना ही पड़ेगा, लड़ना ही चाहिए। क्योंकि तब तक मैं सेटल्ड हो जाऊंगा, कुछ लोगों के मन में बैठ जाऊंगा। जिनके मन में मैं बैठ जाऊंगा, उनको अनसेटल्ड करना पड़ेगा।
तो मेरी दृष्टि में, वह जो मित्र कहते हैं, बड़ी गणित की, चालाकी की, होशियारी की बात कहते हैं। ठीक कहते हैं। नेतृत्व के लिए वही जरूरी है। लेकिन मुझे उसमें उत्सुकता ही नहीं है। मुझे उत्सुकता आपमें है। और आपके लिए कुछ हो सके तो उसमें उत्सुकता है। और उसके लिए वह जो सर्जरी है, वह बहुत जरूरी चीज है। और विचार उसमें सबसे कमजोर हिस्सा है, जिस पर पहले चोट की जानी चाहिए। अगर उस पर ही चोट करने से आप तिलमिला जाते हैं तो फिर भीतर तो और चोटें करनी बहुत मुश्किल हैं, क्योंकि और गहरा अहंकार भीतर है, वह और गहरा होता चला जाता है। इधर मेरे लिए तो परीक्षा का उपाय बन गया है। यानी मैं तो मानता हूं कि मेरे खंडन वगैरह को सुन कर भी कोई मेरे पास आ रहा है, तो मैं सोचता हूं कि उस आदमी के साथ कुछ मेहनत की जा सकती है। मैं उसको कहता नहीं कि वह मुझे माने, मेरे खंडन को माने, इसको भी नहीं कहता। लेकिन फिर भी मेरे पास आ रहा है, और मेरे डिस्ट्रक्टिव ढंग से भाग ही नहीं गया है, तो मैं समझता हूं कि यह आदमी डिस्ट्रक्शन के लिए तैयार हो सकता है। इसके भीतर कुछ तोड़ा जा सकता है। यह आदमी थोड़ी देर टिक सकता है। अन्यथा हम सबकी मान्यताएं ऐसी हैं।
एक बड़ी कठिनाई है, बड़े मजे से मान्यताएं बनाए हुए हैं। और एक आदमी पर मान्यता नहीं है कोई। कोई गांधी का भक्त है, कोई माक्र्स का भक्त है। बंगाल में कोई माक्र्स का भक्त है, कोई गांधी का दुश्मन है। कोई महावीर का भक्त है, कोई मोहएमद का। लेकिन इन सबका माइंड एक है। मेरी लड़ाई उस माइंड से है। वह इनको थोड़े दिन में समझ में आने लगेगा। क्योंकि जब मैं गांधी से लड़ता हूं तो माक्र्सिस्ट मेरे पास आ जाता है, वह कहता है, आप बिल्कुल सच बात कहते हैं। साल भर बाद वह एकदम भाग खड़ा होता है, जब मैं माक्र्स के खिलाफ बोलता हूं तब वह भाग जाता है। क्योंकि तब वह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया है, पहले ठीक था।
तो पांच-दस वर्ष लगेंगे कि लोग समझेंगे कि मुझे न माक्र्स से लेना है, न गांधी से। इररिलेवेंट हैं ये। आपके माइंड से मुझे लड़ना है। तो गांधी के भक्त से लड़ना है तो मैं गांधी के खिलाफ बोलूंगा, माक्र्स के भक्त से लड़ना है तो माक्र्स के खिलाफ बोलूंगा। और कई बार इन दोनों में बड़ा कंट्राडिक्शन दिखाई पड़ेगा। दिखाई पड़ेगा ही। क्योंकि माक्र्स के खिलाफ लड़ना है तो और ढंग से लड़ना पड़ेगा। इन दोनों बातों में कहीं भी इनकंसिस्टेंसी दिखाई पड़ेगी। क्योंकि अगर मुझे गांधी के खिलाफ लड़ना हो तो मैं कंसिस्टेंट हो सकता हूं। मुझे तो एक तरह के माइंड से लड़ना है। वह माइंड जो माक्र्स को पकड़ लेता है, गांधी को पकड़ लेता है, बुद्ध को पकड़ लेता है, उस माइंड से लड़ना है। उस माइंड से लड़ने के लिए मुझे नाहक इन बेचारों से भी लड़ना पड़ रहा है। इनसे मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन यह लड़ाई करनी पड़ेगी।
और अगर सिर्फ महात्मा बनकर रह जाना हो, तो बहुत सरल है। उससे ज्यादा सरल काम तो है ही नहीं। और हमारी समझ में उससे ज्यादा सरल काम तो है ही नहीं। इसलिए इधर जो यह सलाह मित्र देते हैं, इन्हीं मित्रों की सलाह, इसी तरह के सोचने वाले लोग हजारों हैं, उनसे कुछ हो ही नहीं पाता।
– ओशो (हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम्-(प्रवचन-05))
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