Register Now

Login

Lost Password

Lost your password? Please enter your email address. You will receive a link and will create a new password via email.

Captcha Click on image to update the captcha .

Add question

You must login to ask a question.

Login

Register Now

Register yourself to ask questions; follow and favorite any author etc.

“मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं, मेरा कोई शिष्य नहीं है !” – ओशो !

भगवान श्री, आपने कहा है कि बाहर से व्यक्तित्व व चेहरे आरोपित कर लेने में सूक्ष्म चोरी है तथा इससे पाखंड और अधर्म का जन्म होता है। लेकिन देखा जा रहा है कि आजकल आपके आस-पास अनेक नये-नये संन्यासी इकट्ठे हो रहे हैं और बिना किसी विशेष तैयारी और परिपक्वता के आप उनके संन्यास को मान्यता दे रहे हैं। क्या इससे आप धर्म को भारी हानि नहीं पहुंचा रहे हैं? कृपया इसे समझाएं। 

पहली बात, अगर कोई व्यक्ति मेरे जैसा होने की कोशिश करे तो मैं उसे रोकूंगा। उसे मैं कहूंगा कि मेरे जैसा होने की कोशिश आत्मघात है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति स्वयं जैसे होने की कोशिश की यात्रा पर निकले तो मेरी शुभकामनाएं उसे देने में मुझे कोई हर्ज नहीं है। जो संन्यासी चाहते हैं कि मैं परमात्मा के मार्ग पर उनकी यात्रा का गवाह बन जाऊं, विटनेस बन जाऊं, तो उनका गवाह बनने में मुझे कोई एतराज नहीं है। लेकिन मैं गुरु किसी का भी नहीं हूं, मेरा कोई शिष्य नहीं है, मैं सिर्फ गवाह हूं। अगर कोई मेरे सामने संकल्प लेना चाहता है कि मैं संन्यास की यात्रा पर जा रहा हूं तो मुझे गवाह बन जाने में कोई एतराज नहीं है, लेकिन अगर कोई मेरा शिष्य बनने आए तो मुझे भारी एतराज है। मैं किसी को शिष्य नहीं बना सकता हूं, क्योंकि मैं कोई गुरु नहीं हूं। अगर कोई मेरे पीछे चलने आए तो मैं उसे इनकार करूंगा। लेकिन कोई अगर अपनी यात्रा पर जाता हो और मुझसे शुभकामनाएं लेने आए तो शुभकामनाएं देने की भी कंजूसी करूं, ऐसा संभव नहीं है।

फिर भी..यह आपको दिखाई पड़ गया है..मैं गैरिक वस्त्र नहीं पहनता हूं, मैंने कोई गले में माला नहीं डाली हुई है। फिर उनके द्वारा मेरी नकल का कोई कारण नहीं है! फिर भी पूछते हैं आप कि किसी को भी बिना उसकी पात्रता का ख्याल किए मैं उसके संन्यास को स्वीकार कर लेता हूं!

जब परमात्मा ही हम सबको हमारी बिना किसी पात्रता के स्वीकार किए है तो मैं अस्वीकार करने वाला कौन हो सकता हूं? हम सबकी पात्रता क्या है जीवन में? और संन्यास के लिए एक ही पात्रता है कि आदमी अपनी अपात्रता को पूरी विनम्रता से स्वीकार करता है। इसके अतिरिक्त कोई पात्रता नहीं है।

अगर कोई आदमी कहता है कि मैं पात्र हूं, मुझे संन्यास दें! तो मैं हाथ जोड़ लूंगा, क्योंकि जो पात्र है उसको संन्यास की जरूरत ही नहीं। और जिसे यह ख्याल है कि मैं पात्र हूं वह संन्यासी नहीं हो पाएगा, क्योंकि संन्यास विनम्रता, ह्युमिलिटी का फूल है। वह विनम्रता में ही खिलता है। जो आदमी पात्रता के सर्टिफिकेट लेकर परमात्मा के पास जाएगा, शायद उसके लिए दरवाजे नहीं खुलेंगे। लेकिन जो दरवाजे पर अपने आंसू लेकर खड़ा हो जाएगा और कहेगा, मैं अपात्र हूं, मेरी कोई भी पात्रता नहीं है कि मैं द्वार खुलवाने के लिए कहूं; लेकिन फिर भी प्रयास है, आकांक्षा है; फिर भी लगन है, भूख है; फिर भी दर्शन की अभीप्सा है..दरवाजे उसके लिए खुलते हैं।

तो मेरे पास कोई आकर अगर संन्यास के लिए कहता है तो मैं कभी पात्रता नहीं पूछता। क्योंकि कोई संन्यासी होना ही चाहता है, इतनी इच्छा क्या काफी नहीं है? जो संन्यासी होना चाहता है, क्या उसकी प्यास, उसकी प्रार्थना, इतना ही काफी नहीं है? क्या इतनी लगन, अपने को दांव पर लगाने की इतनी हिएमत काफी नहीं है? और पात्रता क्या होगी? प्यास के अतिरिक्त और प्रार्थना के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? अपने को छोड़ने के अतिरिक्त, समर्पण, सरेंडर के अतिरिक्त आदमी कर क्या सकता है? लेकिन, समर्पण के लिए भी कोई पात्रता चाहिए होती है? पात्र समर्पण नहीं कर पाएंगे, क्योंकि वे समझते हैं कि वे अधिकारी हैं। लेकिन जिसे अपनी अपात्रता का पूरा बोध है, वह समर्पण कर पाता है।

परमात्मा के द्वार पर जो असहाय है, अपात्र है, दीन है, अयोग्य है, लेकिन फिर भी उसकी प्रार्थना से भरा है, उसके लिए द्वार सदा ही खुला है। लेकिन जो पात्र हैं, सर्टिफाइड हैं, योग्य हैं, काशी से उपाधि ले आए हैं, शास्त्रों के ज्ञाता हैं, तपश्चर्या के धनी हैं, उपवासों की फेहरिस्त जिनके पास है कि उन्होंने इतने उपवास किए हैं, ऐसे व्यक्ति अपने अहंकार को ही भर लेते हैं। और अहंकार से बड़ी अपात्रता कुछ भी नहीं है। अपने को पात्र समझने वाले सभी लोग अहंकार से भर जाते हैं। सिर्फ अपने को अपात्र समझने वाले लोग ही निरहंकार की यात्रा पर निकल पाते हैं।

इसलिए मैं उनसे उनकी पात्रता नहीं पूछ सकता हूं। फिर मैं उनका गुरु नहीं हूं जो मैं उनसे उनकी पात्रता पूछूं। वे मेरे पास सिर्फ इसलिए आए हैं कि मैं उनका गवाह बन जाऊं। इस संबंध में दो-तीन बातें और कहूं तो कल इस बाबत और भी आपसे बात करूंगा तो साफ हो सकेगी बात!

संन्यास मेरे लिए व्यक्ति और परमात्मा के बीच सीधे संबंध का नाम है। उसमें कोई बीच में गुरु नहीं हो सकता। संन्यास व्यक्ति का सीधा समर्पण है। उसमें बीच में किसी के मध्यस्थ होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और परमात्मा चारों तरफ मौजूद है। और एक आदमी उसके लिए समर्पित होना चाहे तो समर्पित हो सकता है। और फिर अपात्र समर्पण से पात्र बनना शुरू हो जाता है। और फिर अपात्र संकल्प, समर्पण, प्रार्थना से पात्र बनना शुरू हो जाता है।

संन्यासी सिद्ध नहीं है, संन्यासी तो सिर्फ संकल्प का नाम है कि वह सिद्ध होने की यात्रा पर निकला है। संन्यासी तो सिर्फ यात्रा का प्रारंभ बिंदु है, अंत नहीं है। वह तो सिर्फ शुभारंभ है, वह मील का पहला पत्थर है, मंजिल नहीं है। लेकिन मील के पहले पत्थर पर खड़े आदमी से पूछें जिसने अभी पहला कदम भी नहीं उठाया है, उससे पूछें कि मंजिल पर पहुंच गए हो तो ही चल सकते हो! तो जो मंजिल पर पहुंच गया है वह चलेगा क्यों? और जो नहीं पहुंचा है वह कहां से दिखाए कि मैं मंजिल पर पहुंच गया हूं?

पहला कदम तो अपात्रता में ही उठेगा। लेकिन पहला कदम भी कोई उठाता है, यह भी बड़ी पात्रता है। और पहले कदम की ही कोई हिएमत जुटाता है तो यह भी बड़ा संकल्प है।

संन्यास मेरी दृष्टि में बहुत और तरह की बात है। संन्यास मेरी दृष्टि में सिर्फ इस बात का स्मरण है कि मैं अब स्वयं को परमात्मा के लिए समर्पित करता हूं। अब मैं स्वयं को सत्य की खोज के लिए समर्पित करता हूं। अब मैं साहस करता हूं कि धार्मिक चित्त की तरह जीने की चेष्टा करूंगा।

ये संन्यासी गैरिक वस्त्रों में आपको दिखाई पड़ रहे हैं। वह उनके स्मरण के लिए है, रिमेंबरिंग के लिए है कि उनको स्मरण बना रहे कि अब वे वही नहीं हैं जो कल तक थे। दूसरे भी उन्हें स्मरण दिलाते रहें कि अब वे वही नहीं हैं जो कल तक थे। वस्त्रों की बदलाहट से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी अपने वस्त्र बदल सकता है। गले में माला डाल लेने से कोई संन्यासी नहीं होता, लेकिन संन्यासी गले में माला डाल सकता है और माला का उपयोग कर सकता है। गले में डली माला उसके जीवन में आए रूपांतरण की निरंतर सूचना है।

आप बाजार जाते हैं, कोई चीज लानी होती है तो कपड़े में गांठ बांध लेते हैं। जब भी गांठ याद पड़ती है, ख्याल आ जाता है कि कोई चीज लाने को आया था। गांठ चीज नहीं है; और जिसने गांठ बांध ली वह चीज ले ही आएगा यह भी पक्का नहीं है। क्योंकि जो चीज भूल सकता है वह गांठ भी भूल सकता है। लेकिन फिर भी, जो चीज भूल सकता है वह गांठ बांध लेता है, और सौ में नब्बे मौकों पर गांठ की वजह से चीज ले आता है।

यह कपड़ा, माला, यह सारा बाहरी परिवर्तन संन्यास नहीं है। यह सिर्फ गांठ बांधना है कि मैं एक संन्यास की यात्रा पर निकला हूं। उसका स्मरण, उसका सतत स्मरण मेरी चेतना में बना रहे। वह स्मरण सहयोगी है।

– ओशो (मैं कहता आंखन देखी, छत्तीसवां प्रवचन )

*For more articles by Osho Click Here.
*To read Q&A by Osho Click Here.

About OSHO ~ ओशो

Osho was born in Kuchwada, M.P. on 11th December, 1931. His parents Swami Devateertha Bharti and Ma Amrit Saraswati became his disciples in later years. He was enlightened at the age of 21 years on March 21, 1953, while he was studying philosophy at D.N. Jain College in Jabalpur. In 1956 Osho did M.A. from the University of Sagar with First Class Honors in Philosophy. He joined Sanskrit College, Raipur in 1957. He was appointed Professor of Philosophy at the University of Jabalpur, in 1958, where He taught until 1966. During this period He traveled widely in India speaking to large audiences and challenging orthodox religious leaders in public debates. After nine years of teaching, He left the university in 1966 for regular spiritual work. He started conducting intense ten-day meditation and Samadhi camps. At times He addressed gatherings of 20000 to 50000 people. In July, 1970, He moved to Mumbai. By this time He came to be known as Bhagwan Shree Rajneesh. He started initiating seekers into Neo-Sannyas, which did not involve renouncing the world. This was a great revolutionary step since sannyas in all other traditions requires renunciation. In 1974 He moved to Poona Ashram, where He gave 90 minutes discourses nearly every morning, alternating every month between Hindi and English. He spoke on Yoga, Zen, Taoism, Tantra and Sufism covering masters like Gautam Buddha, Jesus, Lao Tzu, and other mystics. These discourses have been collected into over 300 volumes and translated into 20 languages. In the evenings, during these years, He gave Energy darshan and sannyas. And while explaining the sannyas names He unraveled many secrets of divine sound, divine light, and other dimensions of spiritualism. These evening talks are compiled in 64 darshan diaries of which 40 are published. In March 1981, He moved to USA, where His disciples raised city of Rajneeshpuram from the ruins of the central Oregonian high desert. In October 1984 Osho ended His three and half years of self-imposed silence, and started speaking to small groups of people. In July 1985 He resumed His public discourses each morning to thousands of seekers gathered in a two-acre meditation hall. During 1985 - 1986 He undertook a World Tour and visited many countries including Nepal, Greece, Uruguay, Jamaica and Portugal. In all, 21 countries denied Him entry or deported Him after arrival. On July 29,1986, He returned to Mumbai, India and shifted to the ashram in Poona, India, in January, 1987. During January-February 1989 He stopped using the name "Bhagwan," retaining only the name Rajneesh. Later He adopted ‘Osho’ as His new name. On 19th January 1990 Osho left His body.

Leave a reply

Captcha Click on image to update the captcha .

By commenting, you agree to the Terms of Service and Privacy Policy.