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“कामवासना ओर प्रेम !” – ओशो

“कामवासना ओर प्रेम”

कामवासना अंश है प्रेम का, अधिक बड़ी संपूर्णता का। प्रेम उसे सौंदर्य देता है। अन्‍यथा तो यह सबसे अधिक असुंदर क्रियाओं में से एक है। इसलिए लोग अंधकार में कामवासना की और बढ़ते है। वे स्‍वयं भी इस क्रिया का प्रकाश में संपन्‍न किया जाना पसंद नहीं करते है। तुम देखते हो कि मनुष्‍य के अतिरिक्‍त सभी पशु संभोग करते है दिन में। कोई पशु रात में कष्‍ट नहीं उठाता; रात विश्राम के लिए होती है। सभी पशु दिन में संभोग करते है; केवल आदमी संभोग करता है रात्रि में। एक तरह का भय होता है कि संभोग की क्रिया थोड़ी असुंदर है। और कोई स्‍त्री अपनी खुली आंखों सहित कभी संभोग नहीं करती है। क्‍योंकि उनमें पुरूष की अपेक्षा ज्‍यादा सुरुचि-संवेदना होती है। वे हमेशा मूंदी आंखों सहित संभोग करती है। जिससे कि कोई चीज दिखाई नहीं देती। स्‍त्रियां अश्‍लील नहीं होती है, केवल पुरूष होते है ऐसे।

इसीलिए स्‍त्रियों के इतने ज्‍यादा नग्‍न चित्र विद्यमान रहते है। केवल पुरूषों का रस है देह देखने में; स्‍त्रियों की रूचि नहीं होती इसमें। उनके पास ज्‍यादा सुरुचि संवेदना होती है। क्‍योंकि देह पशु की है। जब तक कि वह दिव्‍य नहीं होती, उसमें देखने को कुछ है नहीं। प्रेम सेक्‍स को एक नयी आत्‍मा दे सकता है। तब सेक्‍स रूपांतरित हो जाता है -वह सुंदर बन जाता है। वह अब कामवासना का भाव न रहा,उसमें कहीं पार का कुछ होता है। वह सेतु बन जाता है।

तुम किसी व्‍यक्‍ति को प्रेम कर सकते हो। इसलिए क्‍योंकि वह तुम्‍हारी कामवासना की तृप्‍ति करता है। यह प्रेम नहीं, मात्र एक सौदा है। तुम किसी व्‍यक्‍ति के साथ कामवासना की पूर्ति कर सकते हो इसलिए क्‍योंकि तुम प्रेम करते हो। तब काम भाव अनुसरण करता है छाया की भांति, प्रेम के अंश की भांति। तब वह सुंदर होता है; तब वह पशु-संसार का नहीं रहता। तब पार की कोई चीज पहले से ही प्रविष्‍ट हो चुकी होती है। और यदि तुम किसी व्‍यक्‍ति से बहुत गहराई से प्रेम किए चले जाते हो, तो धीरे-धीरे कामवासना तिरोहित हो जाती है। आत्‍मीयता इतनी संपूर्ण हो जाती है कि कामवासना की कोई आवश्‍यकता नहीं रहती। प्रेम स्‍वयं में पर्याप्‍त होता है। जब वह घड़ी आती है तब प्रार्थना की संभावना तुम पर उतरती है।

ऐसा नहीं है कि उसे गिरा दिया गया होता है। ऐसा नहीं है कि उसका दमन किया गया, नहीं। वह तो बस तिरोहित हो जाती है। जब दो प्रेमी इतने गहने प्रेम में होते है कि प्रेम पर्याप्‍त होता है। और कामवासना बिलकुल गिर जाती है। तब दो प्रेमी समग्र एकत्‍व में होते है। क्‍योंकि कामवासना, विभक्‍त करती है। अंग्रेजी का शब्‍द ‘सेक्‍स’ तो आता ही उस मूल से है जिसका अर्थ होता है, विभेद। प्रेम जोड़ता है; कामवासना भेद बनाती है। कामवासना विभेद का मूल कारण है।

जब तुम किसी व्‍यक्‍ति के साथ कामवासना की पूर्ति करते हो, स्‍त्री या पुरूष के साथ, तो तुम सोचते हो कि सेक्‍स तुम्‍हें जोड़ता है। क्षण भर को तुम्‍हें भ्रम होता है एकत्‍व का, और फिर एक विशाल विभेद अचानक बन आता है। इसीलिए प्रत्‍येक काम क्रिया के पश्‍चात एक हताशा, एक निराशा आ घेरती है। व्‍यक्‍ति अनुभव करता है कि वह प्रिय से बहुत दुर है। कामवासना भेद बना देती है। और जब प्रेम ज्‍यादा और ज्‍यादा गहरे में उतर जाता है तो और ज्‍यादा जोड़ देता है तो कामवासना की आवश्‍यकता नहीं रहती। तुम इतने एकत्‍व में रहते हो कि तुम्‍हारी आंतरिक ऊर्जाऐं बिना कामवासना के मिल सकती है।

जब दो प्रेमियों की कामवासना तिरोहित हो जाती है तो जो आभा उतरती है तुम देख सकते हो उसे। वह दो शरीरों की भांति एक आत्‍मा में रहते है। आत्‍मा उन्‍हें घेरे रहती है। वह उनके शरीर के चारों और एक प्रदीप्‍ति बन जाती है। लेकिन ऐसा बहुत कम घटता है।

लोग कामवासना पर समाप्‍त हो जाते है। ज्‍यादा से ज्‍यादा जब इकट्ठे रहते है; तो वे एक दूसरे के प्रति स्‍नेहपूर्ण होने लगते है – ज्‍यादा से ज्‍यादा यही होता है। लेकिन प्रेम कोई स्‍नेह का भाव नहीं है, वह आत्‍माओं की एकमायता है- दो ऊर्जाऐं मिलती है। और संपूर्ण इकाई हो जाती है। जब ऐसा घटता है। केवल तभी प्रार्थना। संभव होती है। तब दोनों प्रेमी अपनी एकमायता में बहुत परितृप्‍त अनुभव करते है। बहुत संपूर्ण कि एक अनुग्रह का भाव उदित होता है। वे गुनगुनाना शुरू कर देते है प्रार्थना को।

प्रेम इस संपूर्ण अस्‍तित्‍व की सबसे बड़ी चीज है। वास्‍तवमें, हर चीज हर दूसरी चीज के प्रेम में होती है। जब तुम पहुंचते हो शिखर पर, तुम देख पाओगे कि हर चीज हर दूसरी चीज को प्रेम करती है। जब कि तुम प्रेम की तरह की भी कोई चीज नहीं देख पाते। जब तुम धृणा अनुभव करते हो-धृणा का अर्थ ही इतना होता है कि प्रेम गलत पड़ गया है। और कुछ नहीं। जब तुम उदासीनता अनुभव करते हो, इसका केवल यही अर्थ होता है कि प्रेम प्रस्‍फुटित होने के लिए पर्याप्‍त रूप से साहसी नहीं रहा है। जब तुम्‍हें किसी बंद व्‍यक्‍ति का अनुभव होता है,उसका केवल इतना अर्थ होता है कि वह बहुत ज्‍यादा भय अनुभव करता है। बहुत ज्‍यादा असुरक्षा-वह पहला कदम नहीं उठा पाया। लेकिन प्रत्‍येक चीज प्रेम है।

सारा अस्‍तित्‍व प्रेममय है। वृक्ष प्रेम करते है पृथ्‍वी को। वरना कैसे वे साथ-साथ अस्‍तित्‍व रख सकते थे। कौन सी चीज उन्‍हें साथ-साथ पकड़े हुए होगी? कोई तो एक जुड़ाव होना चाहिए। केवल जड़ों की ही बात नहीं है, क्‍योंकि यदि पृथ्‍वी वृक्ष के साथ गहरे प्रेम में न पड़ी हो तो जड़ें भी मदद न देंगी। एक गहन अदृष्‍य प्रेम अस्‍तित्‍व रखता है। संपूर्ण अस्‍तित्‍व, संपूर्ण ब्रह्मांड घूमता है प्रेम के चारों और। प्रेम ऋतम्‍भरा है। इस लिए कल कहा था मैंने सत्‍य और प्रेम का जोड़ है ऋतम्भरा। अकेला सत्‍य बहुत रूखा-रूखा होता है।

केवल एक प्रेमपूर्ण आलिंगन में पहली बार देह एक आकार लेती है। प्रेमी का तुम्‍हें तुम्‍हारी देह का आकार देती है। वह तुम्‍हें एक रूप देती है। वह तुम्‍हें एक आकार देती है। वह चारों और तुम्‍हें घेरे रहती है। तुम्‍हें तुम्‍हारी देह की पहचान देती है। प्रेमिका के बगैर तुम नहीं जानते तुम्‍हारा शरीर किस प्रकार का है। तुम्‍हारे शरीर के मरुस्थल में मरू धान कहां है, फूल कहां है? कहां तुम्‍हारी देह सबसे अधिक जीवंत है, और कहां मृत है? तुम नहीं जानते। तुम अपरिचित बने रहते हो। कौन देगा तुम्‍हें वह परिचय? वास्‍तव में जब तुम प्रेम में पड़ते हो और कोई तुम्‍हारे शरीर से प्रेम करता है तो पहली बार तुम सजग होते हो। अपनी देह के प्रति कि तुम्‍हारे पास देह है।

प्रेमी एक दूसरे की मदद करते है अपने शरीरों को जानने में। काम तुम्‍हारी मदद करता है दूसरे की देह को समझने में-और दूसरे के द्वारा तुम्‍हारे अपने शरीर की पहचान और अनुभूति पाने में। कामवासना तुम्‍हें देहधारी बनाती है। शरीर में बद्धमूल करती है। और फिर प्रेम तुम्‍हें स्‍वयं का, आत्‍मा का स्‍वय का अनुभव देता है-वह है दूसरा वर्तुल। और फिर प्रार्थना तुम्‍हारी मदद करती है अनात्‍म को अनुभव करने में,या ब्रह्म को, या परमात्‍मा को अनुभव करने में।

ये तीन चरण है: कामवासना से प्रेम तक, प्रेम से प्रार्थना तक। और प्रेम के कई आयाम होते है। क्‍योंकि यदि सारी ऊर्जा प्रेम है तो फिर प्रेम के कई आयाम होने ही चाहिए। जब तुम किसी स्‍त्री से या किसी पुरूष से प्रेम करते हो तो तुम परिचित हो जाते हो अपनी देह के साथ। जब तुम प्रेम करते हो गुरु से, तब तुम परिचित हो जाते हो अपने साथ। अपनी सत्‍ता के साथ और उस परिचित द्वारा, अकस्‍मात तुम संपूर्ण के प्रेम में पड़ जाते हो।

स्‍त्री द्वार बन जाती है गुरु का, गुरु द्वार बन जाता है परमात्‍मा का अकस्‍मात तुम संपूर्ण में जा पहुंचते हो, और तुम जाते हो अस्‍तित्‍व के अंतरतम मर्म में।

– ओशो [पतंजलि: योग-सूत्र]

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About OSHO ~ ओशो

Osho was born in Kuchwada, M.P. on 11th December, 1931. His parents Swami Devateertha Bharti and Ma Amrit Saraswati became his disciples in later years. He was enlightened at the age of 21 years on March 21, 1953, while he was studying philosophy at D.N. Jain College in Jabalpur. In 1956 Osho did M.A. from the University of Sagar with First Class Honors in Philosophy. He joined Sanskrit College, Raipur in 1957. He was appointed Professor of Philosophy at the University of Jabalpur, in 1958, where He taught until 1966. During this period He traveled widely in India speaking to large audiences and challenging orthodox religious leaders in public debates. After nine years of teaching, He left the university in 1966 for regular spiritual work. He started conducting intense ten-day meditation and Samadhi camps. At times He addressed gatherings of 20000 to 50000 people. In July, 1970, He moved to Mumbai. By this time He came to be known as Bhagwan Shree Rajneesh. He started initiating seekers into Neo-Sannyas, which did not involve renouncing the world. This was a great revolutionary step since sannyas in all other traditions requires renunciation. In 1974 He moved to Poona Ashram, where He gave 90 minutes discourses nearly every morning, alternating every month between Hindi and English. He spoke on Yoga, Zen, Taoism, Tantra and Sufism covering masters like Gautam Buddha, Jesus, Lao Tzu, and other mystics. These discourses have been collected into over 300 volumes and translated into 20 languages. In the evenings, during these years, He gave Energy darshan and sannyas. And while explaining the sannyas names He unraveled many secrets of divine sound, divine light, and other dimensions of spiritualism. These evening talks are compiled in 64 darshan diaries of which 40 are published. In March 1981, He moved to USA, where His disciples raised city of Rajneeshpuram from the ruins of the central Oregonian high desert. In October 1984 Osho ended His three and half years of self-imposed silence, and started speaking to small groups of people. In July 1985 He resumed His public discourses each morning to thousands of seekers gathered in a two-acre meditation hall. During 1985 - 1986 He undertook a World Tour and visited many countries including Nepal, Greece, Uruguay, Jamaica and Portugal. In all, 21 countries denied Him entry or deported Him after arrival. On July 29,1986, He returned to Mumbai, India and shifted to the ashram in Poona, India, in January, 1987. During January-February 1989 He stopped using the name "Bhagwan," retaining only the name Rajneesh. Later He adopted ‘Osho’ as His new name. On 19th January 1990 Osho left His body.

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