“अभय होने का क्या अर्थ है? अभय कैसे हों? भय से कैसे मुक्त हों?” – ओशो
कुछ लोगों ने भय से मुक्त होने की कोशिशें की हैं, तो वे इस तरह के भय से मुक्त हो गए हैं जो और घबड़ाने वाले और हंसाने वाले हैं। एक आदमी भय से मुक्त होना चाहता है, तो एक सांप पाल लेता है और गले में लटका लेता है और सोचता है कि अगर मैं सांप के साथ रहना सीख गया तो मैं भय से मुक्त हो गया। और ऐसे पागलों की कमी नहीं है जो उसके पैर छूने को भी मिल जाएंगे और कहेंगे यह अभय को उपलब्ध हो गया है। क्योंकि इसने एक सांप गले में लटका रखा है, इसको भय नहीं है।
या कि आदमी सोचता है कि मैं घर-द्वार छोड़ दूं, सड़क पर खड़ा हो जाऊं तो मैं अभय को उपलब्ध हो जाऊंगा। क्योंकि घर के साथ, परिवार के साथ बहुत से भय जुड़े थे। नुकसान हो सकता था, घाटा लग सकता था, पत्नी मर सकती थी, बच्चे बीमार पड़ सकते थे, और न मालूम क्या-क्या हो सकता था। वह सब मैं छोड़ कर सड़क पर आ गया। मैंने सारे भय छोड़ दिए, अब मैं निर्भय हो गया हूं। कोई सोचता हो कि निर्भयता ऐसे आती हो तो वह गलती में है।
एक फकीर की कहानी मैं सुनाऊं, उससे मेरी बात समझ में आ सके।
उस फकीर ने भी इसी भांति चाहा कि वह अभय को उपलब्ध हो जाए, फियरलेसनेस को पा ले। तो उसने जंगल में जाकर, घने जंगलों में, पहाड़ों में जहां कोई आदमी न पहुंचता था, जहां जंगली जानवरों का हमेशा प्राण को ले लेने का भय था, जहां भयंकर विषधर सर्प सरकते थे, वहां उसनें एक कुटी बना ली और रहने लगा। धीरे-धीरे उसकी खबर पहुंचनी शुरू हो गई। धीरे-धीरे गांव-गांव में उसकी चर्चा हो गई। धीरे-धीरे लोग उसके दर्शन को पहुंचने लगे और कहने लगे कि वही है अकेला जो अभय को उपलब्ध हुआ है। वह बूढ़ा हो गया था। कहते हैं उसके पीछे अगर आकर सिंह भी गर्जना करे तो वह लौट कर भी नहीं देखता कि पीछे कौन खड़ा है, वह बैठा रहता जैसा बैठा था। सांप उसके ऊपर चढ़ जाते तो उसको सिहरन भी पैदा नहीं होती थी, उसके रोंगटे भी खड़े नहीं होते थे।
एक नया भिक्षु, एक नया साधु उसके पास पहुंचा। एक संध्या जब कि सूरज ढलने को था, वह वृद्ध साधु बाहर अपनी कुटी के उस निबिड़ वन में एक चट्टान पर बैठा हुआ था नग्न। उसके पास ही वह नया भिक्षु भी जाकर एक छोटे पत्थर पर बैठ गया और उस बूढ़े साधु से उसने पूछा कि परमात्मा को पाने का रास्ता क्या है? उसका तो एक ही उत्तर था हमेशा से, अभय, भय से मुक्त हो जाओ। और जिस दिन भी तुम भय से मुक्त हो जाओगे, तुम्हारे चित्त में कोई भय नहीं होगा, उसी दिन परमात्मा अपने द्वार तुम्हारे लिए खोल देगा। यही उसने उससे भी कहा।
जब यह बात ही चलती थी कि तभी एक जंगली जानवर ने आकर पीछे जोर से चिंघाड़ा, आवाज की। वह नया भिक्षु खड़ा हो गया, उसके हाथ-पैर कंपने लगे। वह बूढ़ा भिक्षु हंसा और उसने कहा, अरे, तुम डरते हो! संन्यासी होकर डरते हो! और जहां डर है वहां धर्म नहीं हो सकता। वह युवक बोला, मैं तो डरता हूं। और घबड़ाहट में मुझे बहुत जोर से प्यास लग आई, क्या आप थोड़ा पानी मुझे दे सकेंगे, ताकि मैं इतनी ताकत जुटा सकूं कि मैं गांव तक वापस पहुंच जाऊं। अब मुझे कोई धर्म वगैरह नहीं सुनना है, मुझे वापस जाना है। वह बूढ़ा हंसा और उठ कर अपनी कुटी के भीतर गया। वहां से वह पानी लेकर वापस आया। लेकिन जब वह कुटी के भीतर था तो उस युवक साधु ने जिस चट्टान पर वह बूढ़ा बैठा हुआ था, उस पर एक पवित्र ग्रंथ की पंक्ति लिख दी। एक धार्मिक ग्रंथ की पंक्ति लिख दी जिसको वह बूढ़ा मानता था। एक पत्थर से उठा कर उसने पवित्र मंत्र लिख दिया। बूढ़ा आया, जैसे ही उसने पैर उठा कर चट्टान पर रखना चाहा देखा कि पवित्र मंत्र नीचे लिखा हुआ है, उसका पैर कंप गया और वह नीचे उतर गया।
उस युवक ने, युवक की बारी थी, वह हंसा और उसने कहा, डरते आप भी हैं। भयभीत आप भी हैं और जहां तक मेरे भय का संबंध है वह तो स्वाभाविक है और आपका भय बिलकुल ही अस्वाभाविक है।
पवित्र मंत्र पर पैर न पड़ जाए इससे वह बूढ़ा भी डर गया। जो सिंह की गर्जना से नहीं डरता, जो सांपों के लपट जाने से नहीं डरता, जो निबिड़ अंधकार वन में अकेला रहता है और नहीं डरता, वह भी पवित्र मंत्र नीचे लिखा हुआ है उस पर पैर न पड़ जाए इसलिए डर गया।
उस युवक ने कहा, मैं तो परमात्मा को कभी जान भी लूं, लेकिन स्मरण रहे, आप कभी न जान पाएंगे।
मैं भी आपसे यही निवेदन करना चाहता हूं। भय से मुक्त होने का यह मतलब नहीं है कि बस आती हो तो आप सामने ही खड़े हो जाएं। यह मूढ़ता होगी, ईडियाटिक होगा, यह भय से मुक्त होना नहीं होगा। न ही भय से मुक्त होने का यह मतलब है कि जहां धूप हो वहां आप खड़े हो जाएं, न गङ्ढों में कूद जाएं। भय से मुक्त होने का यह मतलब नहीं है।
भय से मुक्त होने का है जो साइकोलाजिकल हैं, जो मानसिक भय हमने तैयार कर रखे हैं, उनसे मुक्त हो जाएं। यह तो जीवन की संवेदना है, बोध है, अगर सांप रास्ते पर है और आप रास्ते से हट जाते हैं तो यह भय नहीं है। यह तो सहज समझ है, यह तो होश है। यह तो स्वस्थ चित्त का लक्षण है। अगर कोई जहर खाने को आपको देता है और आप इनकार करते हैं, या जिस बोतल पर जहर लिखा हुआ है उसे आप नहीं पीते, तो यह तो एक स्वस्थ चित्त का लक्षण है। यह भय नहीं है, यह तो जीवन की सामान्य रक्षा है।
भय दूसरे तल पर हैं, गहरे तल पर हैं, मानसिक हैं। मानसिक तल पर जो भय हैं वे मनुष्य को धार्मिक नहीं होने देते। शरीर के तल पर जो भय हैं वे जीवन के लिए अपरिहार्य हैं, जरूरी हैं। वे तो जिस बच्चे में न हों उसके संबंध में हमें चिंतित हो जाना पड़ेगा। अगर एक बच्चा हो और आग में हाथ डाले और भयभीत न हो, वह बच्चा जिंदा नहीं रह सकेगा। उस बच्चे में बुद्धिमत्ता ही नहीं है।
एक बार ऐसा हुआ कि जापान में एक राजा को सनक आ गई, जैसा कि अक्सर होता है, राजाओं को सनकें आती हैं। सच तो यह है कि जो सनकी नहीं होते वे राजा ही नहीं होते। उस राजा को सनक आ गई। और उसने यह सारे राज्य में खबर करवा दी कि जो लोग भी मंदबुद्धि हैं, उनका कोई कसूर नहीं है मंदबुद्धि होने में, भगवान ने उनको मंदबुद्धि पैदा किया। तो मंदबुद्धि लोग कुछ काम नहीं करते हैं, आलसी हैं, बैठे रहते हैं, उनका कोई कसूर तो नहीं है मंदबुद्धि होने में। तो राज्य से व्यवस्था की जाएगी, जितने मंदबुद्धि हैं उनको राज्य की तरफ से आश्रय दिया जाएगा। वे राज्य के द्वारा बनाए गए आश्रमों में रहें, आनंद से खाएं और मौज करें। उनका कोई कसूर नहीं है कि वे मंदबुद्धि हैं। सारे राज्य में उसने खबर निकाल दी।
हजारों दरख्वास्तें आ गईं कि हम मंदबुद्धि हैं, हमको राज्य की सहायता मिलनी चाहिए। राजा बहुत परेशान हो गया। उसे कल्पना भी न थी कि उसके राज्य में इतने मंदबुद्धि हैं। रोज हजारों दरख्वास्तें आती ही गईं। शायद ही कोई आदमी ऐसा हो जिसने दरख्वास्त न दी हो। कौन इतना नासमझ था? राज्य खाने, कपड़े और रहने की मुफ्त व्यवस्था कर रहा था। राजा घबड़ा गया, उसने सोचा था कि होंगे सौ-पचास, हजार, दो हजार आदमी। तो उसने अपने मंत्रियों को कहा, यह तो बड़ी मुश्किल हो गई। यह कैसे तय होगा कि कौन मंदबुद्धि है? उसके मंत्रियों ने कहा, हर चीज के रास्ते हैं, इंतजाम हो जाएगा। जिन लोगों ने दरख्वास्तें दी हैं उनको खबर कर दी जाए कि वे आ जाएं, उनकी परीक्षा होगी। अगर वे मंदबुद्धि सिद्ध हुए तो राज्य उन्हें शरण देगा। और नहीं सिद्ध हुए तो वापस लौटा दिए जाएंगे।
जिन लोगों ने सबसे पहले दरख्वास्त दी थी उनमें से एक हजार लोग बुलवा लिए गए। मंत्रियों ने बड़ी होशियारी का काम किया। उन्होंने घास-फूस के छोटे-छोटे झोपड़े बनाए एक हजार लोगों के रहने के लिए। और उन हजार लोगों को उनमें ठहरा दिया। और रात में उन झोपड़ों में आग लगा दी। जैसे ही आग लगी, लोग बाहर भागे। लेकिन चार आदमी ऐसे भी थे जो कंबल ओढ़ कर अंदर और ठीक से सो गए। जब आग लगी और उनके पड़ोसियों ने उनसे कहा, भागो, आग लगी है, तो उन्होंने कंबल ओढ़ लिया और सो गए। उन्होंने कहा कि अगर किसी की होगी इच्छा तो हमको निकाल बाहर कर दे। आग लगी है तो बाहर कौन जाए, सम्हल कर यहीं सो जाओ। वे चार आदमी चुन लिए गए, वे मंदबुद्धि थे। उनमें आग का भी भय नहीं था। वे और कंबल सौंड़ कर आराम से वहीं ओढ़ कर सो गए थे।
मंदबुद्धि होना और बात है, भयरहित होना और बात है। इसलिए जो मंदबुद्धि हैं, उनको अगर इस तरह के भय से मुक्त होना हो कि ट्रेन के सामने खड़े हो जाएं, या बस के सामने, या सांप को गले में लटका लें, तो मंदबुद्धियों के लिए यह बहुत आसान है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है।
लेकिन अभय का अर्थ मंदबुद्धि नहीं है। अभय का अर्थ संवेदनशून्यता नहीं है। अभय का दूसरा अर्थ है। अभय का अर्थ है, मानसिक तल पर हमने जो भय पाल रखे हैं, उनसे मुक्त हो जाना। हमने कौन से भय पाल रखे हैं? हमने बहुत से भय पाल रखे हैं। मानसिक तल पर हम इतने ज्यादा भयभीत हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। आप जब मंदिर में जाकर प्रणाम करते हो तो किस कारण से करते हो? कोई भय काम कर रहा है।
मेरे एक मित्र हैं, वे नियमित जिस मंदिर के सामने से भी निकलें, हाथ जोड़े बिना नहीं रह जाते थे। मेरे साथ एक दिन एक सड़क पर से निकले, कोई तीन मंदिर आए। उन्होंने हर मंदिर के सामने हाथ जोड़े, मेरी वजह से थोड़ा संकोच किया लेकिन फिर भी जैसे ही मेरी आंख बची उन्होंने जल्दी से हाथ जोड़ लिए। मैंने उनसे बात की कि यह क्या कर रहे हैं? उन्होंने कहा, मुझे ऐसा भय लगता है कि अगर मैंने हाथ न जोड़े तो भगवान नाराज हो जाए। और एक दिन आपकी बात मान कर मैं एक मंदिर के सामने से बिना हाथ जोड़े निकल गया। मैंने बड़ी हिम्मत की, मेरे माथे पर पसीना आ गया। मैंने बड़ी हिम्मत की और मैंने कहा कि आज मैं देखूं तो निकल कर क्या होता है? लेकिन मैं दस कदम से आगे नहीं जा सका, दस कदम पर जाकर मुझे ऐसी घबड़ाहट होने लगी कि मुझे लगा कि पता नहीं क्या हो जाए? मैं वापस लौटा, मैंने ठीक से हाथ जोड़े और क्षमा मांगी कि ऐसी भूल अब कभी न करूंगा।
ये मानसिक भय हैं, ये साइकोलाजिकल फियर्स हैं। ये सीखे हुए हैं, ये बिलकुल झूठे हैं, ये सिखाए गए हैं। और ऐसे भयभीत चित्त को ही हम धार्मिक कहते रहे हैं। यह तो बिलकुल धार्मिक नहीं है, यह तो जरा भी धार्मिक नहीं है। ऐसे भय को चित्त में खोजना जरूरी है।
हमारी मान्यताएं, हमारे विश्वास, हमारी बिलीफस, सब भय पर खड़ी हुई हैं। हमारे सिद्धांत, हमारा तथाकथित ज्ञान, हमारा पंथ, हमारा संप्रदाय, हमारी पूजा, हमारी प्रार्थना, इसी तरह के भय पर खड़ी हुई हैं। ये भय चित्त को रुग्ण करते हैं, ये भय चित्त को कमजोर करते हैं, ये भय चित्त को शक्तिहीन करते हैं और इन भय से घिरा हुआ व्यक्ति धीरे-धीरे विक्षिप्त हो सकता है, मुक्त नहीं हो सकता।
यह जाल भय का तोड़ना जरूरी है, लेकिन हमको भय लगेगा कि अगर हमने यह जाल तोड़ा तो फिर हम धार्मिक न रह जाएंगे, फिर तो हम अधार्मिक हो जाएंगे। यह भी हमें सिखाया गया है कि इन भय से जो भयभीत होता है, वही आदमी रिलीजस, वही आदमी धार्मिक है, वही अच्छा आदमी है। जो इनको तोड़ देता है, वह आदमी बुरा हो जाता है। यह बात गलत है।
असल में जो इनको तोड़ता है, इन भय के जाल को जो तोड़ देता है, वही इन जाल के भीतर छिपी हुई आत्मा को जानने में समर्थ हो पाता है। क्योंकि भय को तोड़ते ही एक इतनी बड़ी शक्ति उसके भीतर जन्मती है, एक इतना बड़ा साहस उसके भीतर पैदा होता है, एक इतना बल उसके भीतर मुक्त होता है। यह भय के जाल के भीतर बड़ी शक्ति दबी बैठी है, जो उठ नहीं पाती, जो खड़ी नहीं हो पाती। विवेक जाग्रत नहीं हो पाता, विचार मुक्त नहीं हो पाता है। इन भय से ही हम बंधे रह जाते हैं, अटके रह जाते हैं। ये भय हमें हिलने भी नहीं देते। इन भय की दीवाल में हम आंख भी नहीं उठा सकते ऊपर। कहीं देख भी नहीं सकते। हर चीज में भय लगता है कि कहीं यह न हो जाए। ये जो भय हैं कैसे-कैसे हैं?
मैंने सुना है, हिंदुओं के ग्रंथों में लिखा हुआ है और वैसा ही जैनों के ग्रंथों में भी लिखा हुआ है। मैंने सुना है कि हिंदुओं के ग्रंथों में लिखा है कि अगर पागल हाथी तुम्हारे पीछे दौड़ता हो और जैन मंदिर आ जाए तो तुम पागल हाथी के पैर के नीचे दब कर मर जाना लेकिन जैन मंदिर में मत जाना। और यही बात जैन ग्रंथों में भी लिखी हुई है कि अगर हिंदू मंदिर आ जाए और पागल हाथी पीछे आता हो तो तुम उसके पैर के नीचे दब कर मर जाना वह बेहतर है लेकिन हिंदू मंदिर में प्रवेश मत करना, वह बड़ा पापपूर्ण है। ऐसे-ऐसे भय हैं।
एक जैन साधु मेरे पास ठहरे। उन्होंने सुबह उठ कर ही मुझसे कहा, जैन मंदिर कहां है, मैं वहां जाना चाहता हूं। मैंने उनसे कहा, वहां जाकर क्या करिएगा? उन्होंने कहा, मैं वहां एकांत में आत्म-चिंतन करूंगा, ध्यान करूंगा, सामायिक करूंगा। मैंने उनसे कहा, मेरे पास जहां आप ठहरे हैं, जितनी शांति और एकांत है, उतनी शांति और एकांत में यहां का मंदिर नहीं है। क्योंकि मंदिर जो भीड़ बनाती है वह अपने आस-पास ही बनाती है। तो जहां यहां भीड़ रहती है, वहीं वह मंदिर है। वहां बहुत शोरगुल है, वहां क्या करिएगा? यहां बहुत एकांत है। वे बोले कि नहीं, फिर भी यह रहने का मकान है, इसमें लोग रहते हैं। मंदिर में कोई रहता नहीं, इसलिए उसकी पवित्रता दूसरी है। मैं वहीं जाऊं। तो मैंने उनसे कहा, हमारे पड़ोस में ही एक चर्च है, वहां भी कोई नहीं रहता, आप उस चर्च में चले चलिए। उन्होंने कहा, चर्च! आप कैसी बातें करते हैं? मैं जो आपसे पूछ रहा हूं उसका उत्तर दीजिए कि जैन मंदिर कहां है? आप दूसरी बातें मत करिए।
मैंने कहा, उस चर्च में कोई भी नहीं रहता। और आज चूंकि इतवार नहीं है, रविवार नहीं है इसलिए वहां कोई भी नहीं होगा, आज पादरी भी सिनेमा देखने गया होगा। रविवार को वहां लोग होते हैं तब पादरी भी वहां रहता है। क्योंकि मैं कई दफा जब रविवार नहीं होता वहां जाता हूं, मुझे पादरी भी नहीं मिलता। तो वहां कोई भी नहीं होगा, एकदम एकांत, बड़ी शांति में वह जगह है, चले चलिए।
लेकिन चर्च शब्द भय पैदा करता है। जैन शब्द प्रलोभन पैदा करता है, वह अपना मंदिर है, अपने भगवान का। यह दूसरों का मंदिर है, ऐसे भगवानों का जिनका होना भी तय नहीं। यहां जाने में कोई अर्थ नहीं है, कोई लाभ नहीं है। वही ईसाई से कहिए, तो जैन मंदिर का सवाल हो जाएगा। वही हिंदू से कहिए, मुसलमान से कहिए।
ये सारे भय हैं हमारे भीतर। ये जो मानसिक तल पर भय हैं, ये जो साइकोलाजिकल फियर्स हैं, क्या इनके रहते हुए कोई आदमी धार्मिक हो सकता है? नहीं हो सकता। यह जाल टूट जाना चाहिए। और यह जाल टूटना बहुत कठिन नहीं है। यह असंभव तो है ही नहीं, कठिन भी नहीं है, बहुत सरल है।
असल में यह जाल कोई ऐसा जाल नहीं है जिसकी वास्तविक जंजीरें हों, केवल शब्दों की जंजीरें हैं। और शब्दों की जंजीरें कागजों से भी कमजोर हैं। इनको कोई देख ले तो इनसे मुक्त हो जाता है। इनको कोई समझ ले तो इनसे मुक्त हो जाता है। इनकी अंडरस्टैंडिंग ही इनसे छुटकारा बन जाती है, इनको तोड़ना नहीं पड़ता।
एक दफा अपने मन में यह देख लें कि मेरे चित्त में कौन-कौन से मानसिक भय बैठे हुए हैं? उनको देख लेना, उनको पहचान लेना, उनको जान लेना ही उनसे छुटकारा है। उनको जानने के बाद उनका कोई बंधन नहीं रह जाएगा, क्योंकि आप खुद उन पर हंसने लगेंगे कि यह क्या पागलपन है? यह क्या नासमझी है? यह मैं क्या कर रहा हूं? यह सब मैंने कौन सा जाल मन के ऊपर रच रखा है? अगर आप एक बार अपने मन के इस जाल को देख लेंगे, तो दिखाई पड़ेगा, एकदम काल्पनिक है यह जाल। इसमें आप बंधे हैं केवल इसलिए कि इस जाल को आपने सत्य समझ रखा है। और अगर आपको यह दिखाई पड़ जाए यह असत्य है तो आप छूट गए। सत्य समझा है इसलिए बंधे हैं। समझ बांध रही है। और कोई जाल नहीं है जो बांध रहा हो।
— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-4]
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