“क्या गॉड फियरिंग, ईश्वर-भीरु होना धार्मिक व्यक्ति की पहचान है?” – ओशो
भय, फियर धार्मिक आदमी का लक्षण नहीं है, क्योंकि जो भयभीत है वह कभी सत्य को नहीं खोज सकेगा और न सत्य को जान सकेगा। जो भयभीत है, वह कभी इस योग्य नहीं हो पाता कि वह सत्य का साक्षात कर सके। उसका भय असत्य को ही मान लेने को मजबूर कर देता है।
लेकिन हमें तो सिखाया जाता रहा है, ईश्वर से भयभीत होने को। कहा जाता है गॉड फियरिंग होने को। कहा जाता है ईश्वर-भीरु होने को। ये शब्द अत्यंत झूठे हैं। गॉड फियरिंग, ईश्वर-भीरु से ज्यादा झूठा और अपमानजनक कोई शब्द नहीं हो सकता। क्योंकि जो व्यक्ति भयभीत है, वह व्यक्ति तो कभी ईश्वर के निकट पहुंच ही नहीं सकता।
ईश्वर और व्यक्ति के बीच भय का कोई संबंध नहीं हो सकता। प्रेम का संबंध तो हो सकता है लेकिन भय का नहीं। और स्मरण रखें, प्रेम और भय सर्वाधिक विरोधी बातें हैं। जहां प्रेम है वहां कोई भय नहीं और जहां भय है वहां कोई प्रेम नहीं। जहां भय है वहां घृणा तो हो सकती है लेकिन प्रेम नहीं हो सकता। और जहां प्रेम है वहां भय कैसा? वहां फियर कैसा? जिसे हम प्रेम करते हैं उसके प्रति हमारे चित्त के सारे भय विलीन हो जाते हैं, उससे हमें कोई भय नहीं रह जाता। और जिससे हम भय करते हैं, उसके प्रति हमारे मन में घृणा पैदा होती है। उससे हमारे बहुत गहरे मन में शत्रुता होती है। और जिससे हम भय करते हैं, उसके निकट तो हम कभी पहुंच ही नहीं सकते।
लेकिन हजारों साल से आदमी को सिखाया जाता रहा है वह भयभीत हो। वह स्वर्ग से डरे कि कहीं स्वर्ग न खो जाए, वह नरक से डरे कि कहीं नरक में न पड़ जाए, वह ईश्वर से डरे, वह डरे इसलिए ताकि वह अच्छा हो सके? और डर से कभी कोई अच्छा हो सकता है? डर तो बुराई की जड़ है। और आदमी को हम सिखाते रहे हैं, डरो, ताकि तुम भले हो सको। और भले आदमी का पहला सूत्र होता है कि वह डरता नहीं।
यह शिक्षा बड़ी उलटी है। क्योंकि जो डरता है वह सच्चा ही नहीं हो सकता, और जो सच्चा नहीं हो सकता वह भला कैसे हो सकता है? लेकिन यह कंट्राडिक्शन, यह विरोध हमें दिखाई नहीं पड़ता रहा। और इसलिए पांच हजार सालों की इस गलत शिक्षा का यह परिणाम है कि दुनिया रोज से रोज बुरी होती गई है।
धर्म भय पर खड़ा था इसलिए धर्म झूठा सिद्ध हुआ। धर्म की सारी शिक्षा भय पर खड़ी हुई थी। हम लोगों को समझाते रहे–पाप करोगे तो नरक के कष्ट झेलने पड़ेंगे, नरक की अग्नि सहनी पड़ेगी, कड़ाहों में, जलते हुए कड़ाहों में, तेल में चुड़ाए जाओगे, आग में डाले जाओगे। आदमी को हम भयभीत करते रहे कि घबड़ा जाओ, घबड़ा जाओ ताकि पाप न कर सको। और प्रलोभन देते रहे स्वर्ग का, वहां अप्सराएं उपलब्ध होंगी, जिनकी उम्र कभी ढलती नहीं, जो सोलह वर्ष की ही बनी रहती हैं। और वहां शराब के चश्मे बहते हैं, स्वर्ग में झरने बहते हैं, न केवल पीना बल्कि डूबना और नहाना उनमें। और वहां कल्पवृक्ष हैं जिनके नीचे बैठ कर सभी इच्छाएं तत्क्षण पूरी हो जाती हैं। और सभी सुख के साधन हैं वहां।
स्वर्ग का हम प्रलोभन देते रहे आदमी को। अच्छे बनो ताकि स्वर्ग मिल सके, बुराई से बचो ताकि नरक जाने से बच सको। इस भय पर और प्रलोभन पर, और भय और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिस चीज से हम भयभीत होते हैं उससे उलटी चीज से हम प्रलोभित होते हैं। और जिस चीज से हमारे मन में लोभ पैदा होता है उसके खो जाने से डर पैदा होता है। लोभ और प्रलोभन एक ही सिक्के के दो हिस्से हैं। भय और प्रलोभन, स्वर्ग और नरक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और आज तक हमने आदमी के मन को इन्हीं दो सिक्कों के नीचे दबाने की कोशिश की है और इसका परिणाम यह हुआ कि आदमी धार्मिक नहीं हो सका। हो ही नहीं सकता था। क्योंकि जहां लोभ है और जहां भय है वहां धर्म कहां?
लेकिन हजारों वर्ष तक इन शब्दों के दोहराए जाने के कारण, बात बार-बार दोहराए जाने के कारण हम यह भूल ही गए कि हम सोच लें कि हम अधार्मिक क्यों होते जा रहे हैं। हम अधार्मिक रहे हैं, रहेंगे; जब तक भय से धर्म का छुटकारा नहीं हो जाता। जब तक हम मनुष्य के मन को फियरलेस, अभय उपलब्ध नहीं करा देते तब तक कोई आदमी धार्मिक नहीं हो सकेगा।
और चूंकि हर मुल्क में भय के अलग-अलग कारण हैं इसलिए हमें अलग-अलग स्वर्ग और नरक भी बनाने पड़े। अगर तिब्बती से हम पूछें कि तुम्हारा नरक कैसा है? तो वह कहता है, एकदम ठंडा, बर्फ जैसा ठंडा। तिब्बतियों का नरक गर्म नहीं है, क्योंकि तिब्बत में गर्मी भय नहीं है बल्कि आनंद है। तिब्बत में ठंड भय है। लोग ठंड से परेशान हैं तो उनके नरक में उन्होंने बर्फ जमा दिया है जो कभी नहीं पिघलता। और उस बर्फीली घाटियों में, नरक में डाल दिए जाएंगे लोग जो पाप करेंगे।
तिब्बती आदमी डरता है ठंड से, तो उनका नरक ठंडा है। हम डरते हैं गर्मी से, सूरज तपता है और हम झुलस जाते हैं, तो हमारा नरक गरम है, वहां कड़ाहे जल रहे हैं और आग जल रही है। ये हमारे भय के ऊपर खड़े हुए नरक हैं, इसलिए अलग-अलग हैं। तिब्बतियों का नरक वही नहीं हो सकता जो हमारा नरक है, क्योंकि गर्म स्थान में वे बड़े प्रसन्न होकर नाचने लगेंगे। और अगर हमको हिमाच्छादित घाटियां मिल जाएं तो हम शायद समझेंगे हम कोई हिल-स्टेशन पर आ गए हैं, नरक में नहीं। हम शायद हिमालय की यात्रा को आ गए हैं।
चूंकि हमारे भय हर मुल्क में अलग हैं, इसलिए अगर दुनिया भर के नरकों का इतिहास आप पढ़ेंगे, तो यह समझने में आसानी हो जाएगी कि जिस देश में जो भय है वही उस देश का नरक बन गया। और जिस देश में जिस चीज का प्रलोभन है, वही उस मुल्क के लिए स्वर्ग बन गया।
स्वर्ग और नरक हमारे भय और प्रलोभन के विस्तार हैं। और इनके आधार पर हमने कोशिश की आदमी को धार्मिक बनाने की। यह आधार ही झूठा था। इसलिए पांच हजार साल की संस्कृतियां नष्ट हो गईं, असफल हो गईं, विफल हो गईं। क्योंकि यह आधार ही झूठा था।
आदमी धार्मिक भय से नहीं बनता, आदमी धार्मिक अभय से बनता है। अभय कैसे उपलब्ध हो? और भय क्यों है? कैसे छूटे? कैसे हम उसके बाहर हो जाएं? कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हम भयभीत हैं? और उन भयभीत होने की जो चित्त-दशाएं हैं वे हमारे शोषण का, शोषण की बुनियाद बन गई हैं।
पुरोहित और जो लोग धर्म का व्यवसाय करते हैं वे भलीभांति समझ गए हैं कि आदमी के भय के कौन से कारण हैं? और आदमी के शोषण के लिए उन्होंने उनका उपयोग कर लिया है। दुनिया में राजनीतिज्ञों या तथाकथित धार्मिक लोगों ने जो भी शोषण किया है वह सब भय के आधार पर किया है।
एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्मकथा में लिखा है: अगर तुम्हें किसी भी कौम से कोई काम करवाना हो, तो उसे किसी काल्पनिक शत्रु के नाम से भयभीत कर दो, फिर वह कौम कुछ भी करने को राजी हो जाएगी। और यह उसने अपने अनुभव से लिखा है। उसने लिखा है कि अगर किसी कौम को युद्ध पर लड़वाना हो, तो एक झूठा शत्रु पैदा कर दो, जिससे वह भयभीत हो जाए। अगर सच्चा शत्रु मिल जाए तब तो ठीक, नहीं तो झूठा शत्रु खड़ा कर दो। कह दो इस्लाम खतरे में है। कह दो हिंदू धर्म खतरे में है। कह दो भारत खतरे में है कि पाकिस्तान खतरे में है। और बता दो कि खतरा कौन पैदा कर रहा है। दुश्मन खड़ा कर दो, चाहे वह झूठा ही हो। फिर तुम उस कौम को मरने और मारने के लिए राजी कर सकते हो। फिर उससे तुम कोई भी बेवकूफियां करवाने के लिए उसे राजी कर सकते हो। फिर अपनी खुद की आत्महत्या करने को उस कौम के लिए राजी किया जा सकता है।
आदमी भयभीत हो जाए, फिर उसे किसी भी तरह राजी किया जा सकता है। ये दुनिया के जो भी शोषक हैं, इस बात को बहुत भलीभांति जान गए। लेकिन वृहत्तर मानव-समाज, हम सब अब तक भी ठीक-ठीक परिचित नहीं हो पाए हैं कि हमारा शोषण किन आधारों पर हो रहा है।
भय और प्रलोभन के आधार हैं–दान करो, यज्ञ करो, हवन करो, तो स्वर्ग में स्थान मिल जाएगा। मध्य-युग में तो ईसाई, पोप टिकट बेचते रहे हैं आदमी के स्वर्ग जाने के लिए। टिकट खरीद लो और स्वर्ग में स्थान सुरक्षित हो जाएगा।
कैसी-कैसी बेवकूफियां आदमी के साथ की जाती रही हैं जिनका कोई हिसाब है? लेकिन इस टिकट खरीदने की बात पर हम हंसेंगे। और हम एक ब्राह्मण को गाय दान कर दें, ताकि वैतरणी गाय पार करा देगी, तो हम न हंसेंगे। वह हमारी बेवकूफी है। अपनी बेवकूफी पर कोई भी नहीं हंसता। दूसरों की बेवकूफी पर कोई भी हंसने लगता है। लेकिन समझदार आदमी वह है जो अपनी बेवकूफियों पर हंसना शुरू कर देगा।
यज्ञ करो या हवन करो, या जाओ और भगवान की मूर्ति के सामने भगवान की स्तुति करो, स्तुति क्या है सिवाय खुशामद के? क्या है सिवाय परमात्मा की प्रशंसा के? और क्या यह भूल भरी बात नहीं है कि हम यह सोचते हों कि भगवान की प्रशंसा करके हम उसे प्रसन्न कर लेंगे? क्या हमने भगवान को भी एक कमजोर आदमी की शक्ल में नहीं सोच लिया है? किसी आदमी के पास जाते हैं और कहते हैं, आप बहुत महान हो और उसकी छाती फूल जाती है और सिर ऊंचा हो जाता है। शायद हम सोचते हैं, भगवान के सामने खड़े होते हैं कि तुम महान हो और पतित पावन हो, तो शायद वह भी गरूर से और अहंकार से भर जाता हो और खुश हो जाता हो। कैसे पागल हैं हम? या कि हम भगवान को जाकर कहें कि हम कुछ चढ़ा देंगे, कुछ त्याग कर देंगे, कैसी नासमझियां हैं? और इनके आधारों पर हम सोचते हैं कि हम धार्मिक हो जाएंगे? इस तरह हम धार्मिक नहीं हुए, लेकिन धर्म का शोषण करने वालों का एक व्यवसाय जरूर मोटा और तगड़ा हो गया। एक परंपरा जरूर खड़ी हो गई शोषकों की, जो हमारी कमजोरियों का शोषण कर रहे हैं और हमें समझा रहे हैं कि तुम ऐसा करो।
इस तरह के निवेदन, इस तरह की प्रार्थनाएं, इस तरह के यज्ञ, इस तरह के हवन, इस तरह की पूजा, इस तरह तुम करो, तो परमात्मा प्रसन्न होगा और तुम्हें सुख देगा, और तुमने यह नहीं किया तो परमात्मा नाराज होगा और दुख देगा। परमात्मा हमें सुख दे या न दे लेकिन इन पूजाओं और प्रार्थनाओं से जो पूजा और प्रार्थना कराते हैं उन्हें जरूर बहुत सुख मिल जाता है। और हम पूजा और प्रार्थना न करें तो हमें दुख मिलेगा या नहीं यह तो पता नहीं, लेकिन जो पूजाएं और प्रार्थनाएं करवाते हैं वे जरूर दुख में पड़ जाएंगे।
हमारे मन को लोभ दिए गए हैं और भय दिखाया गया है। बहुत प्रकार के लोभ, बहुत प्रकार के भय। क्या इन्हीं भय के कारण ही आप मंदिरों में नहीं जाते हैं? क्या इन्हीं लोभों के कारण आपने भगवान की स्तुति और प्रार्थनाएं नहीं की हैं? अगर की हों तो जानना कि वे प्रार्थनाएं झूठी थीं और वे मंदिर झूठे थे जिनमें आप गए। वह आपका जाना झूठा था।
लेकिन क्या कभी ऐसे मन को भी आपने अपने भीतर अनुभव किया है जो न लोभ से भरा हो और न भय से, लेकिन प्रेम से परिपूर्ण हो। अगर ऐसे मन को आपने जाना है तो वही मन असली प्रार्थना है, वही मन असली मंदिर है। जहां न लोभ है और न भय है, लेकिन प्रेम है। और प्रेम वहीं होता है जहां लोभ और भय नहीं होते।
— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-4]
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