‘विवेक और विचार’ धर्म का आधार है, ‘श्रद्धा और विश्वास’ नहीं !! ~ ओशो
मनुष्य के मन को निर्माण करने वाली बातों में जो सबसे बड़ी बुनियादी भूल हो गई, जिसकी वजह से वह अपनी तरफ आंख भी नहीं उठा पाता और वे लोग जो निरंतर कहते हैं अपने को जानो, आत्मा को जानो, नो दाई सेल्फ, और इस तरह की बातें कहते हैं, वे लोग भी उसी भूल को दोहराते हैं। और इसलिए बातचीत तो हो जाती है लेकिन कोई अपने को जान नहीं पाता।
वह पहली भूल यह हो गई है कि मनुष्य को हमने इधर पांच हजार वर्षों से श्रद्धा और विश्वास सिखाया है, विवेक और विचार नहीं। हम आदमी को सिखाते रहे हैं विश्वास करने के लिए, और जो आदमी विश्वास कर लेता है उस आदमी की सारी खोज बंद हो जाती है। जो आदमी विश्वास कर लेता है, श्रद्धा कर लेता है, मान लेता है, स्वीकार कर लेता है, उसके भीतर से सारा अन्वेषण समाप्त हो जाता है। उसकी सारी इंक्वायरी, उसकी सारी खोज, उसकी सारी जिज्ञासा की मृत्यु हो जाती है।
श्रद्धा सबका बड़ा, सबसे बड़ी रुकावट और पत्थर की तरह मनुष्य की आत्मा की खोज पर खड़ी हो जाती है। लेकिन हमें यह कहा जाता रहा है कि हम विश्वास करें, श्रद्धा करें–हम मान लें गीता को, या कुरान को, या बाइबिल को; महावीर को, बुद्ध को, या कृष्ण को, या किसी को भी, चाहे वह कोई हो–चाहे हिंदू हों, चाहे मुसलमान हों, चाहे ईसाई हों, उनकी बातों में कितना भी भेद हो, लेकिन एक बात पर दुनिया के सारे धर्म सहमत रहे हैं, वह यह कि विश्वास करना जरूरी है। और विश्वास का मतलब क्या होगा? विश्वास का मतलब होता है, अंधापन। विश्वास का मतलब होता है, अपनी आंखों पर नहीं, किसी और की आंखों पर श्रद्धा। विश्वास का मतलब होता है, जो मैं नहीं जानता हूं, उसको मान लेना। विश्वास का अर्थ होता है, खुद के विवेक और विचार का आत्मघात।
विश्वास स्युसाइडल है, आत्मघाती है। क्योंकि विश्वास यह कहता है कि अपने से बाहर श्रद्धा का कोई बिंदु है–चाहे वह राम हों, चाहे कृष्ण, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे गीता, चाहे कुरान, चाहे कुछ और, मेरे से बाहर कुछ है जो मुझे मान लेना है। और स्मरण रखें, जो व्यक्ति मान लेने को राजी हो जाता है वह कभी जान नहीं पाता। क्योंकि मानने का अर्थ ही है, जानने की सारी चिंता, जानने की सारी आकांक्षा, जानने की सारी अभीप्सा छोड़ दी गई। मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्वाण में जो सबसे ज्यादा आत्मज्ञान के विरोध में बात खड़ी हो गई है, वे हैं उसके विश्वास, उसकी बिलीफस, उसकी वे स्वीकृतियां जो उसने अनजाने, बिना खुद जाने अंगीकार कर ली हैं और मान लीं, तब वह अंधे की भांति किसी के पीछे चलने को राजी हो जाता है। तब वह सोचता नहीं, तब वह विचारता नहीं, तब वह संदेह नहीं करता, तब वह आंख बंद कर लेता है। क्योंकि खुली आंख होगी तो विचार पैदा होगा, अगर खुली आंख होगी तो चिंतन पैदा होगा, अगर आंख खुली होगी तो संदेह भी पैदा होगा।
इसलिए जिसे विश्वास करना है, उसे आंख बंद कर लेनी होती है। आंख अगर बिलकुल ही फूट जाए तो विश्वास पूरा हो जाता है। तब कोई संदेह पैदा नहीं होता, कोई विचार पैदा नहीं होता, कोई जिज्ञासा पैदा नहीं होती। तब जो भी कहा जाता है वह मान लिया जाता है। और ऐसे व्यक्ति को हम धार्मिक कहते रहे हैं। ऐसा व्यक्ति जरा भी धार्मिक नहीं है। और ऐसे धार्मिक व्यक्तियों की वजह से जमीन पर धर्म का अवतरण नहीं हो सका। ऐसे धार्मिक व्यक्तियों की वजह से दुनिया में अधर्म है। ऐसे धार्मिक व्यक्तियों की वजह से हिंदू तो पैदा हो सका, मुसलमान पैदा हो सका, ईसाई और जैन पैदा हो सकें, लेकिन धर्म पैदा नहीं हो सका। धर्म हजार हो सकते हैं? धर्म अनेक हो सकते हैं? धर्म बहुत हो सकते हैं? अगर धर्म सत्य है तो एक ही हो सकता है। हिंदुओं की केमेस्ट्री अलग नहीं होती, हिंदुओं की फिजिक्स मुसलमानों की फिजिक्स से अलग नहीं हो सकती। ईसाइयों का गणित जैनियों के गणित से अलग नहीं हो सकता।
पदार्थ के नियम एक हैं, युनिवर्सल हैं, तो आत्मा के नियम अनेक कैसे हो सकते हैं? अगर जड़ पदार्थ के नियम भी सार्वलौकिक हैं, तो परमात्मा के नियम भिन्न-भिन्न और अलग-अलग कैसे हो सकते हैं? लेकिन जमीन पर कोई तीन सौ धर्म हैं, और एक-दूसरे के शत्रु। इन तीन सौ धर्मों के खड़े होने का आधार क्या है? ये किस बुनियाद पर खड़े हुए हैं? अगर सोच-विचारशील मनुष्य होता, तो दुनिया में धीरे-धीरे एक धर्म रह जाता। उसका कोई नाम नहीं होता, उसका हिंदू-मुसलमान नाम नहीं हो सकता था। क्योंकि नामों की जरूरत तभी तक है जब तक बहुत धर्म हों, अगर एक ही नियम शेष रह जाए तो नामों की कोई जरूरत नहीं। और सच्चाई यह है कि न तो परमात्मा का कोई नाम है और न धर्म का कोई नाम है, लेकिन नामों वाले धर्मों के कारण उस बेनाम धर्म को खोजना संभव नहीं हो सका।
और नामों वाले धर्मों के खड़े होने का आधार क्या है?
आधार है विश्वास। इसलिए हिंदू मुसलमान के कितने ही विरोध में हो, ईसाई हिंदू के कितने ही विरोध में हो, लेकिन एक बात पर वे सब सहमत हैं कि विश्वास लाओ, विश्वास करो। विचार विद्रोही है, इसलिए विचार से सभी को डर है। विचार संदेह करता है, डाउट करता है, इसलिए विचार से सभी को भय है। विचार मत करो, स्वीकार करो। संदेह मत करो, श्रद्धा करो। यह शिक्षा रही है। और इस शिक्षा का परिणाम यह होता है कि मनुष्य के भीतर जो सोया हुआ विवेक है उसके जागने पर ताले पड़ जाते हैं, उसके जागरण के आस-पास दीवालें खड़ी हो जाती हैं। उस विवेक के जागने का कोई कारण नहीं रह जाता। अगर कोई आदमी किसी दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर आंख बंद करके चलने का अभ्यास करे और वर्ष, दो वर्ष तक अपनी आंख बंद रखे, तो फिर उसकी आंखें काम करना बंद कर देंगी। अगर कोई आदमी अपने पैरों को बांध कर बैठ जाए, तो वर्ष, दो वर्ष में उसके पैर काम करना बंद कर देंगे। जिन अंगों का हम उपयोग बंद कर देते हैं, वे मुर्दा हो जाते हैं। जो आदमी विश्वास कर लेता है, वह विवेक से काम लेना बंद कर देता है। विवेक मर जाता है, रह जाता है विश्वास और विश्वास अंधा है। अंधा विश्वास आत्मज्ञान में नहीं ले जा सकता। आत्मज्ञान के लिए चाहिए आंखों वाला विवेक, अंधा विश्वास नहीं। और जरूरी नहीं है कि विश्वास आस्तिक का ही हो, विश्वास नास्तिक का भी होता है। एक आदमी का विश्वास है कि ईश्वर है, उससे पूछें कि वह जानता है ईश्वर को? अगर वह नहीं जानता और उसने मान लिया, तो उसने अपने जीवन को एक असत्य पर खड़ा दिया।
एक आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है। उससे पूछें, वह जानता है कि ईश्वर नहीं है? अगर वह नहीं जानता है और उसने किन्हीं की बातों को मान कर यह स्वीकार कर लिया है कि ईश्वर नहीं है, उसने भी विश्वास कर लिया है, उसने भी अपने जीवन को एक असत्य पर खड़ा कर लिया है।
नास्तिक और आस्तिक दोनों का जीवन असत्य का जीवन है। धार्मिक व्यक्ति न तो आस्तिक होता है, न नास्तिक होता है, धार्मिक व्यक्ति तो खोजी होता है। वह स्वीकार नहीं कर लेता यात्रा के पहले, वह मान नहीं लेता, वह खोज करता है। और जिस दिन उसके प्राण किसी साक्षात को उपलब्ध होते हैं, उसी दिन, उसी दिन वह जानता है। और उस दिन मानने की कोई भी जरूरत नहीं रह जाती, उस दिन विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। उस दिन वह जानता है। जानना ज्ञान, मुक्ति लाता है। विश्वास, मान लेना बंधन पैदा करता है। और ये बंधन, विश्वास के बंधन हमेशा बाहर होते हैं, क्योंकि विश्वास जब भी हम करते हैं तो किसी पर करते हैं, वह बाहर होगा। इसलिए विश्वास हमेशा बहिर्मुखी है और ज्ञान हमेशा अंतर्मुखी है। जिसे स्वयं को जानना है उसे विश्वास का रास्ता छोड़ देना होगा और ज्ञान के रास्ते पर चरण रखने होंगे।
ज्ञान के रास्ते पर चलने का पहला सूत्र होगा, विश्वास के रास्ते से मन को हटा लेना। हम सारे लोग विश्वास के रास्ते पर हैं। इसलिए चाहे हम मंदिरों में जाते हों, चाहे मस्जिदों में, चाहे शास्त्र पढ़ते हों और पूजा करते हों, हमें स्वयं से साक्षात नहीं हो सकेगा। विश्वास के रास्ते से कभी भी स्वयं का साक्षात न हुआ है और न हो सकता है।
विश्वास सबसे बड़ा अधार्मिक गुण है। मनुष्य के व्यक्तित्व को बांध लेने वाले और अंधा कर देने वाले सूत्रों में विश्वास पहला सूत्र है। इसके पहले कि मैं दूसरे सूत्र की बात करूं, मैं एक बार पुनः आपको यह स्पष्ट कर दूं, नास्तिक भी विश्वासी होता है और आस्तिक भी। इसलिए यह न सोच लें कि मैं विश्वास छोड़ने को कह कर नास्तिकता सिखा रहा हूं। नास्तिक भी विश्वासी होता है और आस्तिक भी। क्योंकि दोनों नहीं जानते। और न जानने में जो भी स्वीकार कर लिया जाता है वह अंधा कर देता है। इसलिए ज्ञान के रास्ते पर पहली बात यह जान लेना जरूरी है कि मैं नहीं जानता हूं। और इस न जानने की स्थिति में कोई भी विश्वास करना खतरनाक है। क्योंकि विश्वास से यह भ्रम पैदा होता है, न जानते हुए यह भ्रम पैदा होता है कि मैं जानता हूं।
— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-1]
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