“अहंकार क्या है? त्याग और भोग के अहंकार में क्या अंतर है?” – ओशो
अहंकार आदमी की कमजोरी है। दंभ, ईगो आदमी की कमजोरी है। मैं कुछ हूं, यह आदमी की कमजोरी है। और जब तक कोई इस कमजोरी से घिरा है, तब तक वह किन्हीं मंदिरों की तलाश करे और किन्हीं शास्त्रों को पढ़े और कैसी ही पूजाएं करे और कैसे ही त्याग और उपवास करे, संन्यासी हो जाए और जंगलों में चला जाए, कोई फर्क न पड़ेगा, बल्कि यह कमजोरी इतनी अदभुत है कि वे सब चीजें भी इसी कमजोरी को और मजबूत करने में कारण बन जाएंगी।
एक आदमी के पास लाखों रुपये हों, वह उनका त्याग कर दे, तो हम कहेंगे, यह परमात्मा के रास्ते पर चला गया। लेकिन इतनी आसान बात नहीं है परमात्मा के रास्ते पर जाना। रुपयों से परमात्मा को खरीदना आसान नहीं है कि कोई रुपये छोड़ दे और परमात्मा को खरीद ले। बल्कि यह भी हो सकता है और यही होता है कि वह आदमी रुपये छोड़ कर भी उसी कमजोरी से भरा रह जाएगा जो कमजोरी रुपयों के होते हुए थी।
एक संन्यासी ने मुझसे कहा, मैंने लाखों रुपयों पर लात मार दी। एक बार कहा, दो बार कहा, तीन बार कहा। मेहमान था मैं उनके आश्रम में। फिर चलते वक्त मैंने उनसे पूछा, यह लात आपने कब मारी थी? उन्होंने कहा, कोई तीस वर्ष हुए। मैंने उनसे कहा, अगर बुरा न माने तो मैं निवेदन कर दूं, लात ठीक से लग नहीं पाई, अन्यथा तीस वर्षों के बाद भी उसकी याद कैसे हो सकती थी?
लाखों रुपये आपके पास रहे होंगे तब यह अहंकार रहा होगा कि मेरे पास लाखों रुपये हैं, मैं कुछ हूं, उस समबडी होने का खयाल रहा होगा। फिर लाखों रुपये छोड़ दिए, तब से यह खयाल है कि मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं, मैं कुछ हूं। मैंने लाखों रुपये छोड़े हैं! वह जो अहंकार लाखों रुपये के होने से भरता था वह अहंकार अब लाखों रुपये के छोड़ने से भी भर रहा है। कमजोरी वहीं की वहीं है। बात वहीं अटकी है उसमें कोई फर्क नहीं आया।
धन वाले का अहंकार होता है, धन छोड़ने वाले का अहंकार होता है। अच्छे वस्त्र पहनने वाले का अहंकार होता है, सादे वस्त्र पहनने वाले का अहंकार होता है। बड़े मकान बनाने वाले का अहंकार होता है, झोपड़ियों में रहने वाले का अहंकार होता है। अहंकार के बड़े सूक्ष्म रास्ते हैं। वह न मालूम किन-किन रूपों से अपनी तृप्ति कर लेता है। न मालूम किन-किन रूपों से यह खयाल पैदा हो जाता है मैं कुछ हूं।
एक आदमी सारे वस्त्र छोड़ कर नग्न खड़ा हो जाए उसका अहंकार होता है कि मैं कुछ हूं। तुम, तुम जो कपड़े पहने हुए हो तुम क्या हो, ना-कुछ, मैं हूं कुछ, जिसने सब वस्त्र भी छोड़ दिए और नग्न हो गया हूं।
इसीलिए तो संन्यासियों के अहंकार को छूना गृहस्थियों के हाथ की बात नहीं। त्याग करने वाले का अहंकार इसलिए बड़ा हो जाता है कि भोग तो छीना जा सकता है त्याग छीना भी नहीं जा सकता। मेरे पास कपड़े हैं और उनका अहंकार है, तो कपड़े तो छीने भी जा सकते हैं लेकिन अगर मैं नंगा खड़ा हो गया, तो मेरी नग्नता कैसे छीनी जा सकती है। वह संपत्ति ऐसी है जिसे मुझसे कोई नहीं छीन सकता। अगर मेरे पास करोड़ों रुपये हैं तो कल नष्ट भी हो सकते हैं, खो भी सकते हैं, चोरी भी जा सकते हैं, मेरा अहंकार टूट भी सकता है, लेकिन अगर मैंने लाखों रुपये छोड़ दिए, तो मैंने छोड़ दिए हैं लाखों रुपये, इससे छूटने का अब कोई उपाय नहीं है, इससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।
यह अहंकार, यह मैं कुछ हूं, सबसे बड़ी भ्रांति है जो मनुष्य को पकड़ लेती है। कोई कारण नहीं है इस भ्रांति के पकड़ लेने का। कोई बुनियाद नहीं है। यह अहंकार का भवन बिलकुल बेबुनियाद है, इसका कोई आधार नहीं है, इसकी कोई नींव नहीं है, यह मकान बिलकुल ताश के पत्तों का है। लेकिन जैसे ताश के पत्तों का महल बनाने में एक सुख मालूम होता है, वैसे ही इस अहंकार को खड़े होने में भी एक सुख मालूम होता है।
क्यों मनुष्य अपने अहंकार को खड़ा करना चाहता है? कौन से कारण हैं उसके अहंकार को खड़ा करने के? पहला कारण तो यह है कि कोई भी मनुष्य यह नहीं जानता कि वह कौन है? यह बात इतनी घबड़ाने वाली है, यह अज्ञान इतना पीड़ा देने वाला है, इतनी एंज़ायटी पैदा करने वाला है कि मुझे पता भी नहीं कि मैं कौन हूं? इस अज्ञान को ढांकने के लिए मैं कोई उपाय कर लेता हूं, कहने लगता हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं, मैं धनपति हूं, मैं त्यागी हूं, मैं ज्ञानी हूं, मैं यह हूं, मैं वह हूं।
जरूरी है, यह इतनी घबड़ाने वाली बात है कि मैं अपने को नहीं जानता। यह इतनी ज्यादा ह्यूमिलिएटिंग है, यह इतनी ज्यादा अपमानजनक है कि मैं अपने को नहीं जानता। तो मैं किसी भांति अपना एक रूप खड़ा कर लेता हूं, कहने लगता हूं, मैं यह हूं, कौन कहता है कि मैं अपने को नहीं जानता?
इस भांति एक सेल्फ डिसेप्शन, एक आत्मवंचना देकर हम अपनी तृप्ति खोज लेते हैं कि मैं कुछ हूं। लेकिन क्या इस भांति हम अपने को जान पाते हैं? क्या आप जानते हैं कि आप कौन हैं? क्या आपको पता है कि क्या है वह जो आपके भीतर जीवंत है? वह जो लीविंग कांशसनेस है, वह जो चेतना है आपके भीतर, जो जीवन है वह क्या है? कुछ पता है उसका? झूठी बातें न दोहरा लें अपने मन में कि मैं आत्मा हूं। किताब में पढ़ लिया होगा इससे कुछ पता नहीं होता है। यह मत कह लें अपने मन में कि मैं ईश्वर का अंश हूं। पढ़ लिया होगा कहीं इससे काई फर्क नहीं पड़ता है।
सचाई यह है कि पता नहीं भीतर क्या है? तथ्य यह है कि नहीं मालूम कौन भीतर बैठा है? और उस व्यक्ति को जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं, क्या उसके जीवन में सत्य का कोई अवतरण हो सकता है? जिसे यह भी पता न हो कि मैं कौन हूं वह भी अगर ईश्वर की खोज में निकल पड़े तो पागल है।
हमारी सारी पहचान वस्त्रों की है, अपने संबंध में भी, दूसरों के संबंध में भी। और इन वस्त्रों की पहचान का जो केंद्र है वही अहंकार है, वही ईगो है। हमारा पद, हमारा घर, हमारा नाम, हमारा वंश, हमारा परिवार, हमारा देश, हमारा धर्म, इन सबके वस्त्रों के बीच का जो केंद्र है, मैं, इन सबसे जो भरता है और परिपूरित होता है, मैं। मैं कुछ होता चला जाता हूं। छोटी कुर्सी से बड़ी कुर्सी पर बैठता हूं, तो मैं और बड़ा हो आता हूं। थोड़े धन से बड़ा धन मेरे पास होता है, तो मैं और बड़ा हो आता हूं। छोटे नेता से मैं बड़ा नेता होता हूं, तो मैं और बड़ा हो आता हूं। थोड़े अनुयायियों की जगह ज्यादा अनुयायी मुझे मिल जाते हैं, ज्यादा शिष्य मिल जाते हैं, तो मैं और बड़ा हो आता हूं। बड़ा गुरु हो आता हूं।
ऐसे मैं बढ़ता चला जाता है और इकट्ठा होता चला जाता है। और यह मैं, इतना बड़ा भ्रम, इतना बड़ा इल्युजन, यही भ्रम रोक लेता है सत्य को जानने से और परमात्मा को जानने से। यही मैं का खयाल रोक देता है उसको जानने से जो मैं हूं, जो कि सच में मैं हूं, जो कि असलियत में मैं हूं। तो इस मैं के साथ क्या करें? कैसे इस मैं को हटा दें? कैसे यह मैं मिट जाए? कैसे यह मैं न हो जाए? तो शायद द्वार खुल जाएं, दीवाल टूट जाए, रोशनी प्रकट हो जाए प्रकाश में मैं खड़ा हो जाऊं।
यह मैं की दीवाल है जो मुझे चारों तरफ से घेरे हुए है और बांधे हुए है। इसके भीतर मैं बंद हूं। और जब तक इसके भीतर बंद हूं परमात्मा से तो मिलना दूर अपने पड़ोसी से भी नहीं मिल सकता। पड़ोसी से मिलना तो दूर पति अपनी पत्नी से नहीं मिल सकता, पिता अपने पुत्र से नहीं मिल सकता, मित्र अपने मित्र से नहीं मिल सकता। जहां अहंकार है वहां दूसरे से अलगाव हो गया, दूसरे से भेद हो गया, पृथकता हो गई, दीवाल खड़ी हो गई।
जहां मैं है वहां प्रेम नहीं। क्योंकि प्रेम वहीं हो सकता है जहां मैं न हो। और जहां मैं है वहां कोई प्रार्थना नहीं। क्योंकि प्रार्थना भी वहीं हो सकती है जहां मैं न हो। मैं का न हो जाना ही प्रेम है। और मैं का न हो जाना ही प्रार्थना है। और मैं का न हो जाना ही परमात्मा का अनुभव है। लेकिन यह मैं न कैसे हो जाए?
पहले दिन की चर्चा में मैंने आपसे कहा, विश्वास छोड़ दें और विचार को जन्माएं। संध्या की चर्चा में मैंने कहा, भय छोड़ दें और अभय को पैदा करें। और अब तीसरी और अंतिम चर्चा में आपसे मैं कहता हूं, मैं को छोड़ दें, तब जो शेष रह जाएगा वही वास्तविक होना है, वही सत्य है, वही ईश्वर है, उसे कोई और नाम दे दें, उससे कोई भेद नहीं पड़ता।
यह कैसे मैं न हो जाए? क्या करें? बड़ी कठिनाई यही है कि आप जो भी करेंगे उससे मैं नहीं मिटेगा। क्योंकि करने वाला मैं ही हूं। तो मैं जो भी करूंगा उससे मैं नहीं मिटेगा। मैं जो भी करूंगा उससे मैं भरेगा, मजबूत होगा। इसलिए विनम्र आदमी जो कहता है कि मैं ना-कुछ हूं, मैं तो कुछ भी नहीं आपके पैर की धूल हूं, उसकी आंखों में झांक कर देखें, वह कह रहा है कि मैं कुछ हूं।
विनम्र आदमी की अपनी अहमता है, अपनी ईगो है, अपना अहंकार है। अगर उससे आप कह दें कि तुमसे भी बड़ा एक विनम्र आदमी है हमारे गांव में। तो आपको पता चल जाएगा। वह कहेगा, ऐसा नहीं हो सकता कि मुझसे भी बड़ा और कोई विनम्र हो। मैं ही सबसे ज्यादा विनम्र हूं, और मैं खड़ा हो जाएगा। एक महात्मा से कह दें, तुमसे बड़ा महात्मा भी मौजूद है, और कठिनाई शुरू हो जाएगी।
यह जो हमारे भीतर मैं है, यह जो खयाल है कि मैं ही हूं कुछ। यह खयाल, अगर हम इसको मिटाना चाहें, तोड़ना चाहें, तो भी टूटेगा नहीं। तब यह खयाल पैदा हो जाएगा कि मैं विनम्र हूं। मैं अहंकारी नहीं हूं। लेकिन मैं मौजूद रहेगा। दो रास्ते हैं आदमी के सामने, या तो इसको भरे, दौड़े, राज्य जीते, धन जीते, यश जीते और इस मैं को भरे। तो भी यह कभी भर नहीं पाता। यह थोड़ा समझ लेने जैसा है। यह कभी भर नहीं पाता। सिकंदर सारी दुनिया जीत ले तो भी नहीं भर पाता।
सिकंदर जिस दिन मरा, जिस नगर में मरा, उस नगर के लोग हैरान हो गए। सिकंदर की अरथी बड़ी अजीब थी। ऐसी अरथी कभी भी दुनिया में किसी गांव में कभी न निकली थी। उसकी अरथी के बाहर दोनों हाथ लटके हुए थे नीचे। लोग बड़े हैरान हो गए कि यह क्या कुछ भूल हो गई है? लेकिन भूल कैसे हो सकती थी? और सिकंदर की अरथी थी, किसी सामान्य भिखमंगे की, सामान्य आदमी की तो नहीं। और हाथ दोनों बाहर लटके हुए थे, सबको दिखाई पड़ते थे। भूल कैसे हो सकती थी? तो लोग पूछने लगे, क्या है, ये हाथ बाहर क्यों हैं? सभी अरथियों के हाथ तो भीतर बंद होते हैं। तो पता चला कि सिकंदर ने मरने के पहले कहा था कि मैं जब मर जाऊं तो अरथी के बाहर मेरे दोनों हाथ रखना ताकि दुनिया ठीक से देख ले कि मेरी मुट्ठियां भी खाली हैं, मैं भी भर नहीं पाया। दौड़ा बहुत, बहुत कोशिश की मैंने कि भर लूं। जो मेरे भीतर उठा था मेरा अहंकार पूरा हो जाए, लेकिन नहीं पूरा हो सका है।
सिकंदर का नहीं हुआ, किसी का कभी नहीं हुआ। अहंकार पूरा नहीं होता, क्यों? कुछ कारण हैं।
दो तरह की गलतियां हैं, अहंकार अगर कुछ भी नहीं है तो न तो उसे भरा जा सकता और न उसे खाली किया जा सकता। क्योंकि खाली भी उसे किया जा सकता है जो भरा जा सकता हो। इस बात को मैं फिर से दोहराता हूं, खाली वही चीज की जा सकती है जो भरी जा सकती हो। जब अहंकार भरा ही नहीं जा सकता तो उसको खाली भी नहीं किया जा सकता।
दो तरह की नासमझियां हैं, जो दुनिया में चलती हैं। अहंकार भरने की नासमझी है और अहंकार खाली करने की नासमझी है। एक का नाम भोग है, एक का नाम त्याग है। दोनों नासमझियां हैं। फिर अहंकार के साथ क्या किया जा सकता है? जो पहली चीज की जा सकती है वह यह कि उसे खोजा जा सकता है कि वह है भी या नहीं? पहली चीज है, जाना जा सकता है कि अहंकार क्या है?
और बड़े आश्चर्यों का आश्चर्य है कि जो उसे जानने जाता है वह पाता है कि वह है ही नहीं। जो उसे भीतर खोजने जाता है वह पाता है कि वह है ही नहीं। और जिस क्षण यह पा लिया जाता है कि अहंकार नहीं है उस क्षण जो शेष रह जाता है वही परमात्मा है। उस क्षण जो शेष रह जाता है वही आत्मा है। उस क्षण जो शेष रह जाता है असीम और अनंत वही सत्य है।
अहंकार को न तो भरना है, न छोड़ना है। अहंकार को जानना है, देखना है, पहचानना है। क्या है? है भी या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं किसी छाया से लड़ रहा हूं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं किसी छाया का पीछा कर रहा हूं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं कोई सपने में हूं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं नींद में हूं? और जिस चीज को भरने या निकालने की कोशिश में लग गया हूं, वह है ही नहीं। ऐसा ही है। लेकिन मेरे कहने से नहीं। तो भीतर जाकर देखने की बात है। खोजने की बात है कि यह अहंकार कहां है?
कभी खोजा आपने? कभी दो क्षण एकांत में बैठ कर भीतर जाकर खोज की कि यह अहंकार क्या है? जो मुझे पागल किए हुए है, दौड़ा रहा है, दौड़ा रहा है, दौड़ा रहा है और एक सीमा पर जब मैं थक जाता हूं, परेशान हो जाता हूं, तो उलटी दौड़ शुरू होती है, छोड़ने की दौड़ शुरू होती है, छोड़ने की दौड़ शुरू होती है, लेकिन यह है क्या? कौनसी है जगह यह अहंकार?
— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-6]
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