“किसी का अनुकरण (फॉलोईंग) नहीं ! स्वयं का स्वीकार ! ” ~ ओशो
पहली बात, पहली कड़ी, पहली जंजीर, पहली गांठ जो हर मनुष्य ने अपने ऊपर बांध ली है, वह है अंधश्रद्धा की, अंधेपन की, आंख बंद कर लेने की, अनुकरण की, फॉलोईंग की, किसी के पीछे जाने की, किसी का अनुयायी होने की। अनुयायी होना परतंत्रता की पहली जंजीर है। और हम सब किसी न किसी के अनुयायी हैं, किसी न किसी के फॉलोअर हैं। कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई कम्युनिस्ट है, कोई कुछ और है। लेकिन ऐसा आदमी खोजना कठिन है जो यह कहे कि मैं हूं और किसी का अनुयायी नहीं, अकेला हूं। जैसा हूं वही हूं, किसी के अनुकरण के पीछे पागल नहीं हूं। ऐसा अगर कहीं कोई मनुष्य खोजने मिल जाए, तो समझ लेना स्वतंत्रता की तरफ उसने पहला कदम उठा लिया है। मनुष्य का चित्त परतंत्र है अंधानुकरण से। हम किसी न किसी का अनुकरण कर रहे हैं, इमिटेशन कर रहे हैं, इमिटेट कर रहे हैं। कोई महावीर को, कोई बुद्ध को, कोई राम को, कोई कृष्ण को, कोई क्राइस्ट को, कोई मोहम्मद को, लेकिन कोई भी आदमी खुद होने को राजी नहीं है कोई और होना चाहता है। यह उसकी परतंत्रता की शुरुआत है। वह अपने व्यक्तित्व की जगह किसी और का व्यक्तित्व ओढ़ लेना चाहता है। और किसी और का व्यक्तित्व उसके व्यक्तित्व पर परतंत्रता की गांठ बन जाएगा।
स्मरण रहे, कोई मनुष्य अपने अतिरिक्त और कोई भी कभी नहीं हो सकता है। आज तक जमीन पर दो मनुष्य एक जैसे हुए हैं? राम को हुए कितने दिन हो गए, कोई दूसरा राम फिर हो सका है? महावीर को हुए कितना समय बीता, कोई दूसरा महावीर फिर दिखाई पड़ा? नहीं, लेकिन ढाई हजार वर्षों में महावीर के बाद क्या आप सोचते हैं, लाखों लोगों ने महावीर बनने की कोशिश नहीं की है? कोशिश जरूर की है। लेकिन एक भी सफल नहीं हुआ। और नहीं सफल हो सकता है।
प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है, यूनीक है। कोई व्यक्ति किसी दूसरे की कार्बनकापी न है और न हो सकता है। इस होने की कोशिश में बंध जाएगा। यह होने की कोशिश उसका बंधन बनेगी। और तब फिर, तब फिर राम तो नहीं बन सकता, रामलीला का राम जरूर बन सकता है। और जमीन रामलीला के रामों से बहुत परेशान है। राम तो ठीक हैं, बहुत अदभुत हैं, लेकिन रामलीला के राम के साथ क्या करें? यह आदमी झूठा है। और यह रामलीला का आदमी पाखंड है। यह असत्य है। यह ऊपर से ओढ़े है किसी बात को जो यह भीतर नहीं है और नहीं हो सकता है। यह जो विरोध ही इसने अपने ऊपर से ओढ़ लिया है यही इसकी कारागृह है, यही इसका कैद है, यही इसका बंधन है। यह हमेशा पीड़ित और परेशान होगा। और जितना यह रामलीला का राम बनता जाएगा उतना ही इसकी जकड़ गहरी होती जाएगी, इसकी कड़ियां मजबूत होती चली जाएंगी। और भीतर इसके प्राण छटपटाएंगे वही होने को जो यह होने को पैदा हुआ था, जो इसकी आत्मा थी वही होने को इसके प्राण आकांक्षा से भर उठेंगे। प्राण भीतर कहेंगे, स्वतंत्रता चाहिए और यह रामलीला का राम, राम के वस्त्रों को ओढ़ कर कसता चला जाएगा। और भूल जाएगा इस बात को कि राम होने की मेरी कोशिश ही मेरा बंधन है। जब भी कोई आदमी किसी और जैसा होना चाहता है तो वह अपना कारागृह निर्मित कर रहा है, वह अपनी जंजीरें तैयार कर रहा है। यह कभी नहीं हो सकता कि कोई मनुष्य किसी दूसरे जैसा हो जाए।
इसीलिए तो हम कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के पास आत्मा है। मशीन एक जैसी हो सकती हैं, क्योंकि मशीनों के पास कोई आत्मा नहीं है। फोर्ड की मोटरें एक जैसी निकल सकती हैं लाखों, उनके पास कोई आत्मा नहीं है। आत्मा है व्यक्तित्व, आत्मा है इंडिविजुअलिटी, आत्मा है अद्वितीयता। और प्रत्येक व्यक्ति जिसके पास आत्मा है वह कभी किसी दूसरे जैसा नहीं हो सकता। होने की कोशिश में उसकी आत्मा यांत्रिकता में जकड़ जाएगी। लेकिन हम सबको यही सिखाया जा रहा है बचपन से कि राम जैसे बनो, कृष्ण जैसे बनो। और हम सोचते हैं ये आदर्श हमारे जीवन को मुक्त करते हैं? ये ही आदर्श हमारे जीवन को बांधे हुए हैं। ये ही हैं हमारी गुलामी। और अगर पुराने आदर्श फीके पड़ जाते हैं तो नये महापुरुष हमें रोज मिल जाते हैं, फिर तो हम कहते हैं: गांधी जैसे बनो, विवेकानंद जैसे बनो।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, कभी किसी जैसे बनने की कोशिश मत करना। अगर किसी जैसे बनने की कोशिश की, तो फिर आपके जीवन में स्वतंत्रता संभव नहीं है। और जहां स्वतंत्रता न हो, वहां सत्य की भी कोई संभावना नहीं है। स्वतंत्रता है द्वार सत्य का। वे ही जो स्वतंत्र हैं, वे जान पाते हैं कि सत्य क्या है। और वे जो अपनी आत्मा को भी नहीं पहचान पाते और दूसरे की होने की नकल में पड़ जाते हैं, वे कैसे जान पाएंगे परमात्मा को? वे अपने को ही नहीं जान पाते, वे अपने को होने को राजी ही नहीं हो पाते। यह भी हो सकता है इस दौड़ में, दूसरे जैसे हो जाने की दौड़ में यह हो सकता है कि आप सफल भी हो जाएं, सारी दुनिया कहे कि यह आदमी सफल हो गया। देखो, बिलकुल, बिलकुल गांधी की कॉपी है, बिलकुल गांधी जैसा हो गया है। देखो, बिलकुल, बिलकुल महावीर जैसा, बुद्ध जैसा मालूम पड़ता है। वे ही वस्त्र हैं, उन जैसा ही नग्न खड़ा है, उन जैसा ही उपवास करता है, उन जैसा ही चलता है, उन जैसा ही बोलता है, उन जैसा ही उठता-बैठता है। कोई इतनी कुशलता से अनुकरण कर सकता है, इतनी कुशलता से अभिनय कर सकता है कि यह भी हो सकता है कि महावीर का अभिनय करने वाला अगर महावीर के सामने ले जाया जाए तो महावीर उससे हार जाएं। यह भी हो सकता है। यह इसलिए हो सकता है कि असली आदमी से भूल-चूक भी हो सकती है, अभिनेता भूल-चूक भी नहीं करता। जिंदगी में असली आदमी गलत कदम भी रख सकता है, क्योंकि असली आदमी किसी पैटर्न के आधार पर नहीं जीता, किसी ढांचे पर नहीं जीता। असली आदमी अपनी स्वतंत्रता से जीता है। उसके पैर भूल-चूक में भी ले जा सकते हैं। उसके पैर में कांटे भी गड़ सकते हैं। वह आदमी पैर आगे बढ़ा कर खींच भी सकता है। असली आदमी किसी बंधे-बंधाए ढांचे से नहीं जीता। लेकिन नकली आदमी तो बिलकुल प्लैंड, बिलकुल आयोजना से जीता है। उससे भूल-चूक नहीं होती, वह कभी गलती नहीं करता। ऐसा एक बार हो चुका। ऐसी एक बहुत मजेदार घटना हुई।
चार्ली चैपलीन को उसके मित्रों ने एक समारोह आयोजित किया, उसकी किसी वर्षगांठ पर। और उसके मित्रों ने चाहा कि एक कोई अनूठा आयोजन हो। तो उन्होंने सारे यूरोप में एक प्रतियोगिता करवाई। कोई आदमी चार्ली चैपलीन का पार्ट करे, चार्ली चैपलीन का अभिनय करे। और सारे यूरोप से सौ प्रतियोगी चुने जाएंगे और फिर लंदन में बड़ी प्रतियोगिता होगी। उसमें जो तीन प्रतियोगी जीत जाएंगे, उनको बड़े पुरस्कार इंग्लैंड की महारानी देंगी।
बहुत बड़ा आयोजन हुआ। सारे यूरोप में नाटक खेले गए। और हजारों अभिनेताओं ने चार्ली चैपलीन का पार्ट किया। सौ अभिनेता चुने गए। चार्ली चैपलीन ने अपने मन में सोचा, क्यों न एक मजाक किया जाए, मैं भी झूठा फार्म भर कर दूसरे के नाम से भरती हो जाऊं, और इतना तो तय है कि मैं जीत जाऊंगा, इसमें कोई शक की बात नहीं। पहला पुरस्कार भी मिलेगा। बाद में बात खुलेगी तो सारी दुनिया हंसेगी कि खूब मजाक हुआ।
तो वह सम्मिलित हो गया। एक छोटे गांव से, एक छोटे गांव में अभिनय करके वह सम्मिलित हो गया एक दूसरे नाम से। प्रतियोगिता हुई और मजाक जितना सोचा था चार्ली चैपलीन ने उससे ज्यादा हो गया, उसको दूसरा पुरस्कार मिला। पहला पुरस्कार कोई दूसरा अभिनेता ले गया। और जब बात खुली कि चार्ली चैपलीन खुद भी था मौजूद सम्मिलित, तो सारी दुनिया हंसी कि यह तो हद्द हो गई कि चार्ली चैपलीन का अभिनय करने में दूसरा आदमी चार्ली चैपलीन से जीत गया!
तो मैं आपसे निवेदन करता हूं, महावीर का अभिनय करने में भी यह हो सकता है। बुद्ध के अभिनय करने में भी यह हो सकता है। लेकिन फिर भी जानना जरूरी है महावीर का अभिनेता महावीर से जीत जाए तो भी महावीर के आनंद को, आत्मा को, मुक्ति को उपलब्ध नहीं हो सकता। उसकी जीत अनुकरण की जीत होगी, अभिनय की जीत होगी, आत्मा की नहीं। उसकी आत्मा तो तड़फड़ाएगी भीतर, उसकी आत्मा तो बेचैन होगी, वैसी ही बेचैन होगी जैसे हम किसी बगीचे में चले जाएं और फूलों को समझाएं कि गुलाब तुम जुही जैसे हो जाओ; चंपा को कहें, तुम चमेली जैसे हो जाओ; इस फूल को कहें, उस फूल जैसे हो जाओ।
पहली तो बात यह है कि फूल सुनेंगे नहीं, क्योंकि फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं कि हर किसी की बात सुनें। बिलकुल नहीं सुनेंगे। अपनी मौज से झूलते रहेंगे हवा में। उपदेशक चिल्लाता रहेगा, न वे ताली बजाएंगे, न फिकर करेंगे। लेकिन यह भी हो सकता है, आदमी की सोहबत में रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों, आदमी की सोहबत में बिगड़ जाते हैं। जंगल के जानवर बीमार नहीं होते, आदमी की सोहबत में रहते हैं, वही बीमारियां उनको होने लगती हैं जो आदमी को होती है। तो आदमी की सोहबत, आदमी का सत्संग। हो सकता है कुछ फूल बिगड़ गए हों उसकी बगिया में रहते-रहते और राजी हो जाएं और चमेली चंपा होने की कोशिश करने लगे, और गुलाब जुही बनने लगे, उस बगिया में फिर क्या होगा? उस बगिया में फिर फूल पैदा नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब लाख कोशिश करे तो चमेली नहीं हो सकता, जुही नहीं हो सकता। वह बीज उसके प्राणों में नहीं, वह आत्मा नहीं उसकी, वह उसका व्यक्तित्व नहीं। लेकिन इस कोशिश में कि गुलाब जुही बन जाए, कि जुही चंपा बन जाए, कि चंपा चमेली बन जाए, इस कोशिश में गुलाब में गुलाब के फूल तो पैदा नहीं हो सकेंगे, और चमेली के फूल भी पैदा नहीं हो सकते। क्योंकि सारी शक्ति चमेली होने में लग जाएगी, जो शक्ति गुलाब बनती है वह चमेली होने की कोशिश में व्यर्थ हो जाएगी। चमेली तो नहीं पैदा होगी, गुलाब भी फिर पैदा नहीं होगा। वह ताकत न बचेगी जिससे गुलाब पैदा हो सकता था। वह बगिया उजाड़ हो जाएगी, अगर किसी धर्मगुरु की बातें कोई बगिया सुन ले, तो फिर उसमें फूल पैदा नहीं हो सकते। आदमी की बगिया ऐसे ही उजाड़ हो गई, उसमें फूल नहीं खिलते हैं। आदमी बेरौनक हो गया, उसकी सुगंध खो गई। कभी एकाध आदमी करोड़-करोड़ में अगर फूल बन जाता है, तो यह कोई बहुत शुभ बात है? अगर एक बगिया में हम हजार पौधे लगाएं और एक फूल एक पौधे में खिल जाए, तो यह कोई माली के लिए सम्मान की बात है? अगर हजार दो हजार वर्षों में एक बुद्ध और एक महावीर और एक कृष्ण पैदा हो जाएं, तो यह कोई आदमी के लिए गौरव की बात है? और यह करोड़-करोड़ लोगों का जीवन व्यर्थ चला जाए, इनके जीवन में कोई फूल न खिले? इनके जीवन में फूल क्यों नहीं खिलते?
मैं आपसे निवेदन करता हूं, इन्होंने उपदेशक की बातें सुन ली हैं इसलिए इनके जीवन में फूल नहीं खिलेंगे। इन्होंने कुछ और होने की कोशिश शुरू कर दी है। इस कुछ और होने की कोशिश में यह कुछ और तो कभी नहीं हो पाते, लेकिन जो पैदा हुए थे होने को, वह होने की क्षमता और संभावना ही समाप्त हो जाती है।
मनुष्य के ऊपर पहला बंधन है, अंधानुकरण का। अंधे होकर अपने ऊपर किसी को थोप लेने का, अंधे होकर कुछ और बन जाने का। पहली स्वतंत्रता है इसलिए, स्वयं होने की कोशिश; पहली स्वतंत्रता है इसलिए, स्वयं की स्वीकृति; पहली स्वतंत्रता है इसलिए, इस बात की खोज कि क्या मेरे भीतर छिपा है? और किन मार्गों से, किन दिशाओं में वह व्यक्त होना चाहता है? क्या मेरे भीतर गुलाब पैदा होने को है या कि जुही? या कि घास का एक फूल? और स्मरण रखें, घास एक छोटा सा फूल भी जब अपने पूरे सौंदर्य में खिल जाता है, तो उसका आनंद किसी गुलाब से कम नहीं होता। एक घास का छोटा सा फूल भी जब अपने पूरे सौंदर्य में, अपने पूरे प्राणों से प्रकट हो जाता है और हवाओं में झूल उठता है, तब उसका सौंदर्य, उसका आनंद, उसकी आत्मा की लहर, उमंग किसी कमल से कम नहीं होती। यह आदमी के कंपेरिजन से कि वह कहता है, गुलाब अच्छा है और यह तो घास का फूल है। यह वही नासमझ आदमी, जो महावीर और बुद्ध होने की कोशिश में लगा है, यह उसी का वैल्युएशन है, यह उसी का मूल्यांकन है कि गुलाब अच्छा और यह तो घास का फूल है। लेकिन घास के खिले हुए फूल के प्राणों में घुसें, तो आप पाएंगे, वहां उतना ही आनंद है खिल जाने का, हो जाने का, अभिव्यक्त हो जाने का, प्रकट हो जाने का। जितना गुलाब के भीतर है, जितना कमल के भीतर है। वह आनंद गुलाब, कमल और चमेली और घास के फूल के कारण नहीं होता, वह होता है पूरी तरह खिल जाने के कारण, पूरी तरह प्रकट हो जाने के कारण।
जो व्यक्ति पूरी तरह नहीं प्रकट हो पाता, उसके भीतर एक बंधन और एक जकड़ रह जाती है। जीवन भर एक तड़पन, एक पीड़ा। जैसे कोई बीज फूटना चाहता हो, अंकुर बनना चाहता हो, लेकिन खोल इतनी मजबूत हो, लोहे की हो, कि तड़फड़ाते हों उसके प्राण भीतर, लेकिन खोल को न तोड़ पाते हों, तो कैसी दशा हो जाएगी उस अंकुर की? हर आदमी वैसी दशा में है। लोहे की खोल ओढ़े हुए हैं हम और भीतर तड़प रहा है कोई अंकुर प्रकट हो जाने को, जीवन के पल बीते जाते हैं, उम्र बीती जाती है, मौत करीब आई जाती है और खोल है कि टूटती नहीं। और हम हैं ऐसे कारीगर कि और खोल पर और लोहे की और पर्तें चढ़ाते चले जाते हैं, और आदर्श ओढ़ते चले जाते हैं, और अनुकरण करते चले जाते हैं, और सिद्धांत और शास्त्र, और न मालूम उस खोल को कितना मजबूत करे चले जाते हैं। भीतर का अंकुर प्रकट नहीं हो पाता और मौत आ जाती है।
यही है पीड़ा मनुष्य की, यही है दुख, यही है उसका संताप। कौन करेगा इस संताप से मुक्त किसी को? कौन हाथ आएगा मुक्त करने को? कोई और हाथ नहीं, हमारे ही ये हाथ जो अनुकरण की भूल में कड़ियां गुंथ रहे हैं। इन हाथों को समझ से रुक जाना होगा और खोल देनी होंगी अनुकरण की कड़ियां और उठा देने होंगे खुले आकाश की तरफ हाथ और कह देना होगा सारे जगत को, मैं मैं होने को पैदा हुआ हूं, मैं कोई और होना नहीं चाहता।
जिस दिन कोई व्यक्ति इस निष्कर्ष पर पहुंच जाता है कि मैं, चाहे घास का फूल ही सही, मैं मैं ही होने को पैदा हुआ हूं। चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ एक कंकड़ ही सही, लेकिन मैं मैं ही होने को पैदा हुआ हूं। न सही आकाश का तारा, न सही पारसमणी; सही धूल का एक कंकड़, लेकिन मैं मैं ही होने को पैदा हुआ हूं। इसे मैं स्वीकार कर लूं और जान लूं, तो शायद आकाश का एक तारा भी जिस आनंद को उपलब्ध होता है, राह के किनारे पड़ा हुआ एक कंकड़ भी जब खुद की स्वीकृति से खिल जाता है, उतने ही आनंद को उपलब्ध हो जाता है।
स्वयं की स्वीकृति स्वतंत्रता का पहला सूत्र है। और हम सब स्वयं को किए हुए हैं अस्वीकार। स्वयं के बने हुए हैं दुश्मन। दूसरे के हैं प्रशंसक, खुद के हैं शत्रु। दूसरे के हैं अनुयायी, और खुद के? खुद के खिलाफ तलवार लिए हुए खड़े हैं। खुद की हत्या को तैयार हैं, दूसरे बनने को हम तैयार हैं। कैसे? कैसे? कैसे हो सकती है मुक्ति की कोई संभावना? कोई गुंजाइश? कैसे खुल सकता है वह द्वार?
इसलिए पहला सूत्र निवेदन करना चाहता हूं, स्वयं होने की स्वीकृति। अंधानुकरण नहीं, आदर्श का आरोपण नहीं, किसी और जैसे होने का प्रयास नहीं, जो मैं हूं उसकी पूर्ण स्वीकृति। जो मैं हो सकता हूं, तब फिर उसकी खोज हो सकती है। फिर जो मैं हो सकता हूं, उस यात्रा पर गति हो सकती है। जब तक कोई किसी और के पीछे चल रहा है तब तक स्मरण रखें, तब तक वह कभी अपनी आत्मा तक नहीं आ सकता है। आत्मा के लिए जाना जरूरी है खुद के भीतर। और अनुयायी जाता है किसी और के पीछे। ये दोनों दिशाएं भिन्न हैं। अनुयायी जाता है किसी और के पीछे।
अनुयायी कभी धार्मिक नहीं हो सकता। धार्मिक व्यक्ति वह है जो जाता है स्वयं के भीतर। और स्वयं के भीतर जाना और किसी और के पीछे जाना, दो विरोधी दिशाएं हैं। इनका कोई मेल नहीं, ये कहीं मिलती नहीं। ये एकदम एक-दूसरे की तरफ पीठ की हुई दिशाएं हैं।
क्यों हम अनुकरण करना चाहते हैं? क्यों? क्यों हम किसी और जैसे हो जाना चाहते हैं? शायद इसलिए ही कि स्वयं होने का साहस नहीं जुटा पाते। स्वयं होने का सहजता नहीं जुटा पाते। स्वयं होने की स्वीकृति नहीं जुटा पाते।
क्यों नहीं जुटा पाते हैं? क्यों नहीं यह साहस कर पाते हैं कि हम कह सकें इस जगत को, निवेदन कर सकें कि मुझे मुझ जैसा रहने दो? कौनसा कारण है जिससे यह नहीं हो पा रहा? एक ही कारण है, वही हमारी दूसरी कड़ी है बंधन की। और वह यह है कि हमने कभी विचार ही नहीं किया। हम कभी विचार ही नहीं करते हैं। तो कैसे का सवाल ही नहीं उठता। हम कभी विचार ही नहीं करते। जीवन को पकड़ कर कभी हम सोचते नहीं। हम हमेशा किसी को पढ़ लेते हैं, किसी को सुन लेते हैं। लेकिन न तो पढ़ना सोचना है और न सुनना सोचना है। दोनों हालत में हम तो होते हैं निष्क्रिय, हम तो होते हैं पैसिव, कोई और कर रहा होता है सोचने का काम। कोई किताब लिखता है, कोई बोलता है। कोई और कर रहा है सोचने का काम, हम पैसिव, हम निष्क्रिय बैठे हुए सुन रहे हैं। कोई हमारे दिमाग में कुछ डाल रहा है और हम टोकरी की तरह बैठे हुए हैं कि वह डालता जाए, हम इकट्ठा करते चले जाएंगे। पूरी जिंदगी हमारी एक पैसिविटी है। रात को सिनेमा देख लेते हैं, कोई और नाच रहा है हम देख लेते हैं। रेडियो सुन लेते हैं, कोई गीत गा रहा है, हम सुन लेते हैं। अखबार पढ़ लेते हैं, कोई खबर ला रहा है, हम सुन लेते हैं। चौबीस घंटे हमारे भीतर कोई एक्टिव, कोई सक्रिय चेतना नहीं है, निष्क्रिय चेतना है।
निष्क्रिय चेतना के कारण अनुकरण पैदा होता है। निष्क्रिय चेतना सोचती है, कोई और ने कर लिया, मैं उसके पीछे चल जाऊं। किसी और ने पा लिया, मैं उसका पल्ला पकड़ लूं। किसी और को सत्य उपलब्ध हो गया, मैं उसके चरणों में सिर रख कर बैठ जाऊं। मैं हूं निष्क्रिय, मुझे कुछ करना नहीं है। किसी और ने कर लिया, मैं उसमें भागीदार बन जाऊं। निष्क्रिय चेतना हो गई है निरंतर। सक्रिय चेतना नहीं है। और सक्रिय चेतना तब तक नहीं होगी जब तक हम विचार करने को तैयार न हों। निष्क्रिय चेतना पैदा हो गई है विश्वास के कारण, सारी दुनिया में विश्वास के प्रचार के कारण निष्क्रिय चेतना पैदा हो गई है। सारी दुनिया पैसिव से पैसिव होती जा रही है, निष्क्रिय से निष्क्रिय। सक्रिय रूप से जीवन का हमारा कोई संबंध नहीं रहा। सब कुछ कोई और कर दे।
— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-7]
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