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“जानिए विचार का सही अर्थ व अध्यात्म में विचारशील होने का महत्व ! ” ~ ओशो

विचार करना अत्यंत जरूरी है। विचार का क्या मतलब? विचार से क्या संबंध? विचार का क्या अर्थ? क्या विचार का यह अर्थ है कि हम बहुत से विचार इकट्ठे कर लें तो हम विचारक हो जाएंगे? विचारों का संग्रह क्या हमें विचारक बना देगा? यह भ्रम पैदा हुआ है दुनिया में। कि हम बहुत से विचारों को इकट्ठा कर लें, बहुत से शास्त्रों को पी जाएं, सदियों में जो चिंतन हुआ है उसके हम संग्रहालय बन जाएं, वह हमारे दिमाग में सब इकट्ठा हो जाए, तो हम विचारक हो गए। एक आदमी जो वेद के वचन बोल देता है, एक आदमी जो उपनिषद की ऋचाएं उद्धृत कर देता है, एक आदमी जो गीता पूरी की पूरी कंठस्थ कर लेता, हम कहते हैं, विचारक है, ज्ञानी है। क्या विचार के संग्रह से ज्ञान का कोई भी संबंध हो सकता है? सच्चाई तो यह है कि जिस व्यक्ति के भीतर विचार की क्षमता जितनी कम होती है, उस विचार की क्षमता की कमी को भुलाने के लिए विचारों के संग्रह को इकट्ठा कर लेता है। ताकि यह अहसास उसे न हो इस अभाव का कि मेरे भीतर विचार नहीं है। और विचार का संग्रह कोई बुद्धिमत्ता नहीं है, एकदम यांत्रिक प्रक्रिया है, मैकेनिकल बात है। अब तो हमने यांत्रिक मस्तिष्क बना लिए हैं, कंप्यूटर्स बना लिए हैं, जो हमारे सारे प्रश्नों के उत्तर दे सकते हैं। कोई जरूरत नहीं किसी पंडित को कि पूरी बाइबिल को याद करे। एक मशीन पूरी बाइबिल को याद कर लेती। और आप पूछ लीजिए कि ल्यूक के फलां-फलां अध्याय में, फलां-फलां सूत्र में क्या लिखा हुआ है? मशीन फौरन उत्तर छाप कर बाहर भेज देती है कि यह लिखा हुआ है। इस मशीन को विचारक कहिएगा?

शायद आपको पता न हो, कोरिया के युद्ध में अमेरिका ने जो निर्णय लिया चीन से युद्ध में न उतरने का, वह निर्णय किसी मनुष्य के मस्तिष्क ने तय नहीं किया, वह कंप्यूटर्स ने तय किया था। वह उन मशीनों ने तय किया, जिन मशीनों में सारी बातें डाल दी गईं। चीन की कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं, कितने बम हैं उसके पास। अमेरिका की कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं, वह सब जानकारी फीड कर दी गई, खिला दी गई उस मशीन को, और फिर पूछ लिया गया कि चीन से युद्ध में उतरना ठीक है या नहीं? मशीन ने उत्तर दिया, बिलकुल ठीक नहीं है। अमेरिका चीन से युद्ध में नहीं उतरा। वह निर्णय किसी मनुष्य-मस्तिष्क ने नहीं किया। यह पहला निर्णय है इतना बड़ा, जो कि मशीन के द्वारा लिया गया।

मनुष्य-मस्तिष्क से कभी भूल भी हो सकती है, मशीन कभी भूल नहीं करती। इसलिए आने वाले दिनों में विचारकों से कोई पूछने न जाएगा, पक्का खयाल रखिए। मशीनें होंगी गांव-गांव में जिनसे हम पूछ लिया करेंगे कि क्या है ठीक उत्तर इस बात का? और हम भी क्या करते हैं? हमारा मस्तिष्क भी क्या करता है? इस मस्तिष्क को भी तो हमें भोजन देना पड़ता पहले–स्कूल में, कालेज में शिक्षा देनी पड़ती। सिखाना पड़ता इसको। बच्चा होता पैदा, हम उससे कहते, तुम्हारा नाम है, राम। तुम्हारा नाम है राम, तुम्हारा नाम है राम, सुनते-सुनते बच्चे का मस्तिष्क, मस्तिष्क की रिकाघडग पकड़ लेती इस बात को कि मेरा नाम है राम। फिर एक आदमी उससे पूछता है, तुम्हारा नाम? वह फौरन कहता है, मेरा नाम है, राम। आप सोचते हैं, इसमें विचार की कोई जरूरत पड़ी? कोई जरूरत नहीं पड़ी। इसमें विचार का कोई संबंध नहीं आया। यांत्रिक स्मृति ने पकड़ ली यह बात, राम। फिर उत्तर पूछा किसी ने, क्या है तुम्हारा नाम? वह कहता है, राम। उससे पूछो, भगवान है? अगर वह हिंदुस्तान में पैदा हुआ है और उसके दिमाग में यह बात डाली गई है, तो उससे पूछ लो अंधेरे में उठा कर भी, सोते में से कि भगवान है? वह कहेगा, है, बिलकुल है। रूस में अगर वह पैदा हुआ होता, वहां सिखाया जाता, नहीं है। उसको उठा कर पूछते, भगवान है? वह कहता, नहीं है। ये दोनों उत्तर यांत्रिक हैं, इसमें विचार का कोई संबंध नहीं। जो सिखा दिया गया है वह बोला जाता है। जो सीखा हुआ ही बोल रहा है, वह आदमी विचारपूर्ण नहीं है। और हम सब सीखा हुआ ही बोल रहे हैं। अनसीखा हुआ हमारे भीतर एक भी तत्व नहीं है। अनसीखा, अनलर्न अगर हमारे भीतर कोई सूत्र पैदा होता है, उसका नाम विचार है।

तो विचार के संग्रह का नाम विचार नहीं है; विचार एक क्षमता है जीवन के प्रति अत्यंत जागरूक होने की। जीवन प्रतिक्षण समस्याएं खड़ी कर रहा है। प्रतिक्षण जीवन के आघात हमारे चित्त पर पढ़ रहे हैं। हमारे चित्त को उत्तर देने पड़ रहे हैं। क्या वे उत्तर हम सीखे हुए ही दे रहे हैं? अगर सीखे हुए दे रहे हैं तो समझ लेना कि अभी विचार का आपके भीतर जन्म नहीं हुआ। लेकिन क्या कभी हमारे भीतर से अनसीखे हुए उत्तर भी आते हैं? जब जीवन कोई प्रश्न खड़ा करता है, तो क्या हम तत्काल स्मृति में खोज कर उत्तर ले आते हैं या कि स्मृति को कहते हैं तुम चुप रहो, तुम मत बोलो, मुझे देखने दो समस्या को, मुझे समस्या से परिचित होने दो, मेरे पूरे चित्त को समस्या के साथ एक होने दो और फिर आने दो उत्तर को, वह उत्तर स्मृति से नहीं, वह उत्तर विचार से आया हुआ होगा।

सुभाष के एक बड़े भाई थे, शरदचंद। वे एक दिन एक ट्रेन में यात्रा करते थे, सुबह के कोई चार बजे होंगे, अंधेरी रात थी, वे उठे, बाथरूम में गए, नींद से उठे थे, मुंह पर पानी छिड़कते थे, घड़ी खुली थी, शायद नींद से भरा हुआ हाथ होगा, घड़ी छूट गई और संडास के रास्ते नीचे गिर गई।

आपकी घड़ी गिर गई होती, फिर आप क्या करते? शरदचंद ने चेन खींची, लेकिन चेन खींचते-खींचते और गाड़ी के रुकते-रुकते एक मील कम से कम पार हो गया होगा। रात अंधेरी, ड्राइवर, कंडक्टर भागे हुए, गार्ड आया। कहा कि मेरी घड़ी गिर गई, बहुत कीमती है। उन्होंने कहा, बड़ा मुश्किल है अब घड़ी को खोज पाना। एक मील दूर, वह न मालूम कहां गिरी होगी? छोटी सी चीज है, अंधेरी रात है, कहां हम उसे खोजेंगे? और टे्रन कितनी देर रोकी जा सकती है? मुश्किल है यह बात।

लेकिन शरदचंद ने कहा, मुश्किल नहीं है। आदमी भगाएं, मैंने अपनी जलती हुई सिगरेट उसके पीछे डाल दी है। वह एक फीट के फासले पर मेरी जलती हुई सिगरेट अंधेरे में चमक रही होगी। उसके पास ही बहुत शीघ्र घड़ी मिल जाएगी। आदमी दौड़ाएं। आदमी दौड़ाया गया, वह घड़ी सच में ही एक फीट के फासले के बीच में ही मिल गई चमकती हुई जलती सिगरेट के!

शरदचंद ने, स्मृति से यह उत्तर नहीं आ सकता था, क्योंकि पहले कभी घड़ी नहीं गिरी थी और न सिगरेट डालने की कोई आदत थी। और न किसी किताब में ही यह पढ़ा हुआ हो सकता था, क्योंकि किसी किताब में कहीं यह लिखा ही हुआ नहीं है कि आपकी घड़ी गिर जाए तो जलती हुए सिगरेट पीछे डाल देना। किसी शास्त्र में कहीं किसी में यह नहीं लिखा हुआ। यह मौका बिलकुल नया था। चेतना के समझ अनूठी समस्या थी। स्मृति में कोई उत्तर इसके लिए हो नहीं सकता था। यह कोई पिछले अनुभव की बात न थी।

आप होते शायद घबड़ा गए होते। शायद चेन खींची होती, चिल्लाए होते कि मेरी घड़ी गिर गई। लेकिन वह घड़ी नहीं मिल सकती। क्योंकि आपकी चेतना ने उस समस्या के साथ कोई समन्वय स्थापित नहीं किया था। लेकिन शरदचंद ने, जलती सिगरेट डाली उसके पीछे। यह एक क्षण में ही हो गया, इसके लिए सोचने के लिए समय भी नहीं था। क्योंकि सोचने में बहुत समय जाया हो सकता है। सोचने में तो समय लगेगा, क्योंकि स्मृति में खोजना पड़ेगा, स्मृति का बड़ा संग्रह है। जैसे कि घर के तलघरे में बहुत सी चीजें भरी हों, वहां जाकर खोजने जाइएगा, तो समय लगेगा। अगर स्मृति में उत्तर खोजते, तो समय लगता, और समय में तो दूरी हो जाती है। लेकिन विचार तत्क्षण सजगता है। वह कोई खोज नहीं है जिसमें समय लगता हो। विचारक विचारशील नहीं होता, जिसको हम संग्रह के, संग्रह वाले को विचारक कहते हैं।

विचारक का अर्थ है: जिसकी चेतना समस्याओं से सीधा साक्षात करने में समर्थ है। अक्सर तो उलटा होता है, जो विचारों से बहुत घिरे हैं, अगर उनसे आप उनकी किताब लिखी हुई बात पूछें, तो वे तत्क्षण उत्तर दे देंगे। लेकिन अगर जिंदगी कोई ऐसा मसला खड़ा कर दे–जैसा कि जिंदगी रोज खड़ी करती है–जो उनकी किताब में न लिखा हो, तो वे बिलकुल भौचक्के खड़े रहे जाएंगे। प्रतीत होगा, उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है। या फिर वे कोई ऐसा उत्तर देंगे जिसकी कोई संगति नहीं होगी। क्योंकि वह उनकी स्मृति से आएगा, जीवन के साथ सीधे साक्षात से नहीं।

एक बहुत बड़ा गणितज्ञ था। उसने ही सबसे पहले गणित के बाबत किताबें लिखी हैं। अनूठा उसका ज्ञान था गणित के संबंध में। जो कुछ जानकारी थी मनुष्य-जाति की सभी उसे ज्ञात थी। गणित का कोई ऐसा सवाल न था जो वह हल न कर सके। एक दिन सुबह छुट्टी के दिन अपने पत्नी और बच्चों के लेकर वह पहाड़ी के पास पिकनिक को गया हुआ था। बीच में पड़ता था एक बड़ा नाला। ऐसे बहुत गहरा नहीं था। उसकी पत्नी ने कहा, बच्चों को सम्हाल कर पार कर दो, कोई बच्चा डूब न जाए। उसने कहा, ठहरो, वह अपने साथ हमेशा एक फूटा रखता था नापने के लिए, वह गया उसने नदी को चार-छह जगह नापा, कितनी गहरी है। अपने बच्चों को नापा, कितने ऊंचे हैं। रेत पर हिसाब लगाया और कहा, बेफिकर रहो, बच्चों की औसत ऊंचाई नदी की औसत गहराई से ज्यादा है। जाने दो, कोई डूबने वाला नहीं। बच्चे एवरेज ऊंचे हैं। बच्चे गए, पत्नी क्या कर सकती थी, इतना बड़ा ज्ञानी था उसका पति, इतना बड़ा गणितज्ञ था, इतना शास्त्रीय था। पत्नियां हमेशा शास्त्रीय पति के सामने एकदम हार जाती हैं। कोई उपाय भी नहीं है। और पत्नियों ने शास्त्री होने की आज तक भूल नहीं की है। इसलिए उनसे कोई लड़ाई करने की गुंजाइश बनती नहीं है। उसे डर तो हुआ, लेकिन जब पति कहता है और हिसाब उसने लगा लिया और उसके हिसाब में कभी भूल-चूक होती नहीं, तो ठीक ही कहता होगा। इसलिए पांच-सात बच्चे, कोई बड़ा था, कोई छोटा, कोई बहुत छोटा। बड़ा तो एक निकल गया, बाकी छोटे उसमें डुबकी खाने लगे। उसकी पत्नी चिल्लाई कि छोटा बच्चा डुबा जाता है। लेकिन उस गणितज्ञ न क्या किया? उसने कहा, आं, क्या हिसाब में कोई भूल-चूक हो गई? वह भागा, बच्चा डूबता था, वह डूबता रहा, वह भागा नदी के किनारे जहां रेत पर उसने हिसाब किया था कि कोई भूल तो नहीं हो गई।

यह संग्रह वाले विचारक की मनःस्थिति है। जीवन को सीधा साक्षात नहीं करता, जीवन बच्चे को डुबाए दे रहा है, नदी बच्चे को डुबाए दे रही है, उसका प्राण लिए ले रही है। इस समस्या को भी वह गणित के माध्यम से साक्षात करता है, जो हिसाब उसने किया है नदी के किनारे, उसको देखने जाता है कि कोई भूल तो नहीं हो गई। क्योंकि डूबना नहीं चाहिए, अगर गणित ठीक है तो।

लेकिन किस पागल ने कब कहा कि जिंदगी गणित के हिसाबों से चलती है। जिंदगी कभी गणित के हिसाबों से नहीं चलती। और जिस दिन जिंदगी बिलकुल गणित के हिसाबों से चलेगी उस दिन आदमी में कोई आत्मा नहीं बचेगी। गणित के हिसाब से यंत्र चल सकते हैं। जिंदगी अनूठी है, अनजान रास्ते लेती है, कोई गणित के रास्ते उसके लिए निर्णीत नहीं हो सकते। और न ही तर्क के कोई रास्ते निर्णीत हो सकते हैं। और न ही सिद्धांतों की कोई बंधी हुई रेखाएं निर्णीत हो सकती हैं। लेकिन विचारों का संग्रह करने वाला पंडित इसी ढांचे में कैद होता है। इसलिए विचारों का संग्रह नहीं है विचार की क्षमता।

फिर क्या है विचार की क्षमता?

यह दूसरी कड़ी है, हमने विचारों के संग्रह को समझ रखा है कि हम विचारशील हैं। यह हमारी गुलामी है। इसको तोड़ देना होगा।

स्वतंत्रता के लिए जानना होगा कि विचारों का संग्रह नहीं, बल्कि कोई और चीज है जिसका नाम विचार है, जिसका नाम विवेक है। वह कौनसी चीज है? वह मैं तीसरी कड़ी के भीतर आपसे बात करना चाहता हूं।

किस चीज को मैं विचार कहूं? मैं जागरूकता को विचार कहता हूं, अवेयरनेस को, होश को। मैं मर्ूच्छा को अविचार कहता हूं, सोए हुए पन को। जागे हुए पन को मैं विचार कहता हूं। क्योंकि जो सोया हुआ है वह अपनी नींद के कारण किसी भी जीवन की समस्या से सीधा साक्षात नहीं कर पाता।

एक आदमी एक घर में सोया हुआ हो और घर में आग लग जाए, वह सोया रहेगा, क्योंकि उसके बीच और मकान में लगी आग के बीच नींद की एक दीवाल है। उस नींद की दीवाल के कारण मकान में लगी आग की कोई खबर उसकी चेतना तक नहीं पहुंचती। लेकिन एक आदमी जागा हुआ है अपने घर में और मकान में आग लग जाए, तो क्या वह मकान में बैठा रहेगा? नहीं, आग लगी हुई स्थिति से उसकी चेतना साक्षात करेगी और बाहर निकलने का द्वार खोजेगी।

हम सारे लोग लेकिन अपनी-अपनी समस्याओं में घिरे हैं और कोई मार्ग नहीं खोज पाते, इससे यह सिद्ध होता है कि हम सोए हुए होंगे। नहीं तो हम मार्ग खोज लेते। हमने द्वार खोज लिया होता। जिंदगी में हमने कोई राह खोज ली होती, हम बाहर हो गए होते समस्याओं के। कोई आदमी समस्याओं के बाहर नहीं है, लेकिन हर आदमी घिरा है। बल्कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है समस्याएं बढ़ती चली जाती हैं। मौत के वक्त तक आदमी छोटा सा रह जाता है, समस्याओं का हिमालय उसके चारों तरफ खड़ा हो जाता है। होना उलटा चाहिए था, होना यह चाहिए था कि जिंदगी आगे बढ़ती, समस्याएं कम होतीं। क्योंकि आखिर जिंदा होने का मतलब क्या है फिर? होना यह था कि मरने के क्षण कोई समस्या न रह जाती। वह समाधान होता, वह समाधि होती। और तब मृत्यु मोक्ष बन जाती है। लेकिन हम तो समस्याएं बढ़ाते चले जाते हैं, मरते वक्त हम समस्याओं के सागर में होते हैं। तब मौत एक पीड़ा है। क्योंकि सारा जीवन गया व्यर्थ और एक समस्या हल न हुई। एक सूत्र खोला न जा सका। एक गांठ खुल न सकी। गांठ पर गांठ बनती चली गईं। तो जरूर हम सोए हुए होंगे।

सोए हुए होने का क्या अर्थ? वह हम समझ लें, क्योंकि सोया हुआ होना हमारी तीसरी गांठ है, हमारी परतंत्रता की, हमारी गुलामी की। मुक्ति के लिए जरूरी है कि हम जागरूक हो जाएं।

जागरूकता का अर्थ है – चेतना सोई-सोई न हो, निरंतर सजग हो। निरंतर एक अवेयरनेस, एक होश चित्त को जगाए रखे। हम तो सोए-सोए हैं। चलते हैं सोए-सोए, खाते हैं सोए-सोए। रास्ते पर देखें, एक किनारे खड़े होकर, कोई किसी को देखता नहीं, फुर्सत किसको है। रास्ते के किनारे कभी आधा घंटे खड़े हो जाएं। रास्ते पर चलते लोगों को गौर से देखें, आपको दिखाई पड़ जाएगा, वे बिलकुल सोए हुए चले जा रहे हैं। कोई अपनी नींद में बड़बड़ाता चला जा रहा है, कोई अपनी नींद में बात करता चला जा रहा है, कोई हाथ के इशारे कर रहा है, किसी से चर्चा कर रहा है, जो मौजूद नहीं है आदमी, उससे चर्चा कर रहा है। यह आदमी जागा हुआ हो सकता है या सपने में है? लोगों को जरा गौर से देखें, उनके चेहरों को देखें, तो पता चल जाएगा कि वे एक नींद में चले जा रहे हैं। एक बेहोशी में सब कुछ हो रहा है। सारी दुनिया बेहोशी में चल रही है। इसलिए तो इतनी टकराहट होती है, इतनी दुर्घटनाएं होती हैं। इतना एक-दूसरे से मुठभेड़ हो जाती है। कोई जागा हुआ नहीं है। फिर थोड़ा अपने को भी देखें कि मैं जाग कर चलता हूं क्या? तो आप हैरान हो जाएंगे!

अभी यहां से लौटते वक्त जरा खयाल करें, इस दरवाजे से बाहर के दरवाजे तक भी जाग कर जा सकते हैं क्या? क्या पूरी तरह होश से भरे हुए एक-एक कदम को जानते हुए, एक-एक श्वास को अनुभव करते हुए बाहर के दरवाजे तक जा सकते हैं? न जा पाएंगे, बीच में ही यह बात भूल जाएगी, दूसरे सब खयाल पकड़ लेंगे। और तब आप जान जाना कि दो क्षण भी जागना कठिन है, आर्डुअस है। और सबसे बड़ा मनुष्य के ऊपर बंधन यह मूर्छा है, जो उसे पकड़े हुए है सब तरफ से। वह सोया हुआ है। लेकिन अगर मैं आपसे कहूं कि आप सोए हुए हैं, तो आप नाराज हो जाएंगे। क्योंकि कोई आदमी यह सुनना पसंद नहीं करता कि मैं सोया हुआ हूं।

लेकिन स्मरण रखिए, अगर आप भ्रम से अपने को जागा हुआ समझ रहे हैं तो कभी जाग नहीं सकेंगे। इसलिए पहले अपनी नींद को स्वीकार कर लेना, समझ लेना जरूरी है।

एक जागरूकता ही विकसित हो जाए, तो आत्मा के साक्षात में ले जाती है। और जागरूकता ही पूर्ण हो जाए, तो समग्र जीवन परमात्मा में परिवर्तित हो जाता है। सोए हुए आदमी के लिए संसार है, जागे हुए आदमी के लिए कोई संसार नहीं। सोया हुआ होना ही संसार है। जागा हुआ होना ही मोक्ष है, मुक्ति है।

ये थोड़ी से बातें मैंने कहीं। इसलिए नहीं कि मैंने जो कहा है उसे आप मान लेना। क्योंकि अगर आपने मेरी बात मानी, तो आपने परतंत्रता की पहली कड़ी और खींच कर बांध ली। मैं कौन हूं, जिसकी बात मानने की कोई जरूरत है? मैंने जो कहा, अगर आपने उसका अनुकरण किया, तो आप कभी स्वतंत्र नहीं हो सकेंगे। मैं कौन हूं, जिसकी बात का अनुकरण किया जाए? फिर मैंने किसलिए कहीं ये सारी बातें? इसलिए नहीं कि आप उन पर विश्वास कर लेंगे, बल्कि इसलिए कि आप बहुत निष्पक्ष, तटस्थता से उनके प्रति जागेंगे और विचार करेंगे। उन्हें दूर रख लेंगे, सामने रख लेंगे; मानने या न मानने का कोई सवाल नहीं है। दूर सामने रख कर उनको ऑब्जर्व कर सकेंगे, निरीक्षण कर सकेंगे। और बंधी हुई स्मृति के उत्तर को मत मान लेना, वह विचार नहीं है। नहीं तो भीतर से कोई कहेगा, अरे, यह बात तो शास्त्र में लिखी नहीं, यह ठीक नहीं हो सकती। यह स्मृति के उत्तर को मत मान लेना। या स्मृति कहे कि हां, यह बात बिलकुल ठीक है, फलां-फलां संत ने यही बात कही है। गीता में भी यही लिखा है। इसको मत मान लेना। यह स्मृति है, इसके उत्तर यांत्रिक हैं, इसको कहना कि तुम चुप रहो। मुझे सीधी बात को देखने दो, तुम बीच में मत आओ। मैं सीधा इस सत्य के प्रति जागना चाहता हूं, जो कहा गया है, मैं सीधा उसे देख लेना चाहता हूं।

जाग कर अगर उसको देखने की कोशिश की, तो वह चाहे सही सिद्ध हो चाहे गलत, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन उसे जाग कर देखने की प्रक्रिया में आपके जीवन में क्रांति होनी शुरू हो जाती है। वह जागने की प्रक्रिया, उसके प्रति मैंने जो कहा है, उसके प्रति जागने की प्रक्रिया आपके भीतर एक क्रांति को ले आती है, एक परिवर्तन ले आती है। जीवन एक नये आयाम में गतिमान हो जाता है।

परमात्मा करे, सोए हुए होने से वह जागरूकता की तरफ ले जाए। परमात्मा करे, भीतर हमें वह जगाए, जहां हम सोए हुए हैं। और हमारी कड़ियां और बंधन हमें दिखाए, जो हमने खुद बांध लिए हैं, ताकि हम उन्हें खोल सकें और मुक्त हो सकें। और चिल्लाते न रहें, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता। और कड़ियों को, जंजीरों को, सींकचों को पकड़े भी न रहें। ये दोनों बातें विरोधी हैं। इनको देख लेना, समझ लेना है। इसके अतिरिक्त मेरा और कोई निवेदन नहीं है।

— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-7]

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About OSHO ~ ओशो

Osho was born in Kuchwada, M.P. on 11th December, 1931. His parents Swami Devateertha Bharti and Ma Amrit Saraswati became his disciples in later years. He was enlightened at the age of 21 years on March 21, 1953, while he was studying philosophy at D.N. Jain College in Jabalpur. In 1956 Osho did M.A. from the University of Sagar with First Class Honors in Philosophy. He joined Sanskrit College, Raipur in 1957. He was appointed Professor of Philosophy at the University of Jabalpur, in 1958, where He taught until 1966. During this period He traveled widely in India speaking to large audiences and challenging orthodox religious leaders in public debates. After nine years of teaching, He left the university in 1966 for regular spiritual work. He started conducting intense ten-day meditation and Samadhi camps. At times He addressed gatherings of 20000 to 50000 people. In July, 1970, He moved to Mumbai. By this time He came to be known as Bhagwan Shree Rajneesh. He started initiating seekers into Neo-Sannyas, which did not involve renouncing the world. This was a great revolutionary step since sannyas in all other traditions requires renunciation. In 1974 He moved to Poona Ashram, where He gave 90 minutes discourses nearly every morning, alternating every month between Hindi and English. He spoke on Yoga, Zen, Taoism, Tantra and Sufism covering masters like Gautam Buddha, Jesus, Lao Tzu, and other mystics. These discourses have been collected into over 300 volumes and translated into 20 languages. In the evenings, during these years, He gave Energy darshan and sannyas. And while explaining the sannyas names He unraveled many secrets of divine sound, divine light, and other dimensions of spiritualism. These evening talks are compiled in 64 darshan diaries of which 40 are published. In March 1981, He moved to USA, where His disciples raised city of Rajneeshpuram from the ruins of the central Oregonian high desert. In October 1984 Osho ended His three and half years of self-imposed silence, and started speaking to small groups of people. In July 1985 He resumed His public discourses each morning to thousands of seekers gathered in a two-acre meditation hall. During 1985 - 1986 He undertook a World Tour and visited many countries including Nepal, Greece, Uruguay, Jamaica and Portugal. In all, 21 countries denied Him entry or deported Him after arrival. On July 29,1986, He returned to Mumbai, India and shifted to the ashram in Poona, India, in January, 1987. During January-February 1989 He stopped using the name "Bhagwan," retaining only the name Rajneesh. Later He adopted ‘Osho’ as His new name. On 19th January 1990 Osho left His body.

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