“मनुष्य के ऊपर सबसे बड़े बंधन – श्रद्धा और विश्वास !” ~ ओशो
हम सारे मनुष्यों की भी स्थिति यही नहीं है? क्या हम सब भी जीवन भर नहीं चिल्लाते हैं–मोक्ष चाहिए, स्वतंत्रता चाहिए, सत्य चाहिए, आत्मा चाहिए, परमात्मा चाहिए? लेकिन मैं देखता हूं कि हम चिल्लाते तो जरूर हैं, लेकिन हम उन्हें सींकचों को पकड़े हुए बैठे रहते हैं जो हमारे बंधन हैं। हम चिल्लाते हैं, मुक्ति चाहिए, और हम उन्हीं बंधनों की पूजा करते रहते हैं जो हमारा पिंजड़ा बन गया, हमारा कारागृह बन गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि यह मुक्ति की प्रार्थना भी सिखाई गई प्रार्थना हो, यह हमारे प्राणों की आवाज न हो? अन्यथा कितने लोग स्वतंत्र होने की बातें करते हैं, मुक्त होने की, मोक्ष पाने की, प्रभु को पाने की। लेकिन कोई पाता हुआ दिखाई नहीं पड़ता। और रोज सुबह मैं देखता हूं, लोग अपने पिंजड़ों में वापस बैठे हैं, रोज अपने सींकचों में, अपने कारागृह में बंद हैं। और फिर निरंतर उनकी वही आकांक्षा बनी रहती है।
सारी मनुष्य-जाति का इतिहास यही है। आदमी शायद व्यर्थ ही मांग करता है स्वतंत्रता की। शायद सीखे हुए शब्द हैं। शास्त्रों से, परंपराओं से, हजारों वर्ष के प्रभाव से सीखे हुए शब्द हैं। हम सच में स्वतंत्रता चाहते हैं? और स्मरण रहे कि जो व्यक्ति अपनी चेतना को स्वतंत्र करने में समर्थ नहीं हो पाता, उसके जीवन में आनंद की कोई झलक कभी उपलब्ध नहीं हो सकेगी। स्वतंत्र हुए बिना आनंद का कोई मार्ग नहीं है।
दासता ही दुख है। यह जो स्प्रिचुअल स्लेवरी है, यह जो हमारी मानसिक गुलामी है, वही हमारा दुख, वही हमारी पीड़ा, वही हमारे जीवन का संकट है। शायद हम सबके मन में उससे मुक्त होने का खयाल भी पल रहा हो। लेकिन हमें पता नहीं कि जिन बातों को हम पकड़े हुए बैठे रहते हैं वे ही हमारे बंधन को पुष्ट करने वाली बातें हैं। उन थोड़े से बंधनों पर मैं चर्चा करूंगा। और उन्हें तोड़ने के संबंध में भी। ताकि मनुष्य की आत्मा मुक्ति का कोई मार्ग खोज सके।
मनुष्य के ऊपर सबसे बड़े बंधन क्या हैं?
हैरान होंगे आप यह जान कर कि मनुष्य के ऊपर सबसे बड़े बंधन विश्वास के, श्रद्धा के बंधन हैं। शायद हमें इसका खयाल भी न हो। हम तो सोचते हैं, जो मनुष्य विश्वासी है, जो मनुष्य श्रद्धालु है, वही धार्मिक है। और मैं आपसे निवेदन करना चाहूंगा, धर्म का श्रद्धा और विश्वास से कोई भी संबंध नहीं है। श्रद्धा और विश्वास से गुलामी का संबंध है, धर्म का संबंध नहीं। धर्म तो परम स्वतंत्रता से संबंध रखता है। धर्म तो परम स्वतंत्रता की आकांक्षा है। और विश्वास और श्रद्धाएं बंधन हैं, स्वतंत्रताएं नहीं।
विश्वास का मतलब है: जो हम नहीं जानते उसे हमने मान रखा है। और जो हम नहीं जानते उसे मान लेना चित्त को गुलाम बनाता है। ज्ञान तो मुक्त करता है। विश्वास? विश्वास बंधन में बांधता है। सारी दुनिया विश्वासों के बंधन में पीड़ित है। फिर चाहे उन विश्वासों का नाम हिंदू हो, उन विश्वासों का नाम मुसलमान हो, उन विश्वासों का नाम ईसाई हो, उन विश्वासों का नाम जैन हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। विश्वास मात्र मनुष्य के चित्त को मुक्त नहीं होने देते। विश्वास मात्र मनुष्य के जीवन में विचार को पैदा नहीं होने देते। और विचार, विचार की तीव्र शक्ति का जाग जाना विवेक का प्रबुद्ध हो जाना ही स्वतंत्रता का पहला चरण है। मनुष्य की आत्मा मुक्त हो सकती है विचार की ऊर्जा से, विश्वासों के बंधनों से नहीं।
लेकिन यदि हम अपने मन की खोज करेंगे, तो पाएंगे, हम सब विश्वासों से बंधे हुए हैं। विश्वास हमारे अज्ञान को बचा लेने का कारण बन जाते हैं। बचपन से ही हमें कुछ बातें सिखा दी जाती हैं और हम उनको मान लेते हैं बिना पूछे, बिना प्रश्न किए, बिना खोजे, बिना अनुभव किए हम स्वीकार कर लेते हैं। यह स्वीकृति, यह सहयोग ही हमारे हाथ से अपने ही बंधन निर्मित करने का कारण हो जाते हैं।
मैं आपसे निवेदन करता हूं, सत्य को सिखाया ही नहीं जा सकता, जो भी सिखाया जाता है वह सब असत्य होता है। क्योंकि सिखाई गई बात व्यक्ति के प्राणों से नहीं उठती, ऊपर से डाल दी जाती है। हम सब भी जो बातें जानते हैं जीवन के संबंध में, वे भी सीखी हुई बातें हैं इसलिए झूठी हैं। इसलिए उन बातों से हमारे जीवन का अंधकार नहीं मिटता है। इसलिए उस ज्ञान से हमारे जीवन में आनंद की कोई वर्षा नहीं होती। इसलिए उस रोशनी से हमारे जीवन में कोई मुक्ति, कोई स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं होती।
विश्वास से उपलब्ध हुआ ज्ञान धर्म नहीं है। लेकिन हमारा सारा ज्ञान ही विश्वास से उपलब्ध हुआ है। क्या हमें कोई ऐसे ज्ञान का भी अनुभव है जो विश्वास से नहीं अनुभव से उपलब्ध हुआ हो? अगर ऐसे किसी ज्ञान का कोई अनुभव नहीं है तो उचित है कि हम अपने को अज्ञानी जानें, ज्ञानी न मान लें। तो उचित है कि हम समझें कि हम नहीं जानते हैं। वैसी समझ से भी, मैं नहीं जानता हूं, जानने की खोज का प्रारंभ हो सकता है। लेकिन इस भ्रांत खयाल से कि मुझे पता है, हमारे जानने की यात्रा भी शुरू नहीं हो पाती। और तब यह जानने का भ्रम हमारा पिंजड़ा बन जाता है, जिसमें हम बंद हो जाते हैं।
हम सब अपने-अपने ज्ञान में बंद हो गए हैं, थोथे ज्ञान में, शब्दों के ज्ञान में, शास्त्रों और सिद्धांतों के ज्ञान में बंद हो गए हैं। और उसी बंधन को हम जोर से पकड़े हुए हैं। और फिर चाहते हैं कि स्वतंत्र हो जाएं, यह स्वतंत्र होना कैसे संभव हो सकेगा? ज्ञान की उपलब्धि के लिए, जो ज्ञान बाहर से सीख लिया गया उससे, उससे छुटकारा पाना होता है। यह बहुत कष्टपूर्ण प्रक्रिया है। वस्त्र निकालना आसान है, धन छोड़ देना आसान है, घर-द्वार, पत्नी-बच्चों को छोड़ देना बहुत आसान है, कठिन है तपश्चर्या उस ज्ञान को छोड़ देने की जो हम सीख कर बैठ गए होते हैं। इसलिए एक व्यक्ति घर छोड़ देता, पत्नी छोड़ देता, समाज छोड़ देता, लेकिन उन शास्त्रों को नहीं छोड़ पाता है जिनको बचपन से सीख लिया है।
संन्यासी भी कहता है, मैं जैन हूं। संन्यासी भी कहता है, मैं हिंदू हूं। संन्यासी भी कहता है, मैं ईसाई हूं। हद्द पागलपन की बातें हैं। संन्यासी भी हिंदू, ईसाई और मुसलमान हो सकता है? संन्यासी की भी सीमाएं हो सकती हैं? संन्यासी का भी संप्रदाय हो सकता है? नहीं, लेकिन बचपन से सीखी गई धारणाओं से छुटकारा पाना बहुत कठिन है।
नग्न खड़ा हो जाना आसान। भूखा, उपवासी खड़ा हो जाना अत्यंत सरल। प्रियजनों को, समाज को छोड़ देना बहुत सुविधापूर्ण, लेकिन चित्त पर सिखाए गए ज्ञान की जो पर्तें जम जाती हैं उन्हें उखाड़ देना बहुत कठिन है, बहुत आर्डुअस है।
इसलिए मैं तपश्चर्या एक ही बात को कहता हूं, सीखे हुए ज्ञान को छोड़ देना तप है। और जो सीखे हुए ज्ञान को छोड़ने की सामर्थ्य उपलब्ध कर लेता है, उसे उस ज्ञान की उपलब्धि होनी शुरू हो जाती है जो अनसीखा है जिसे कभी सीखा नहीं जाता, जो भीतर छिपा है और मौजूद है। ज्ञान तो मनुष्य की चेतना में समाविष्ट है। ज्ञान ही तो मनुष्य की आत्मा है। लेकिन चूंकि हम बाहर से सीखे हुए ज्ञान को इकट्ठा कर लेते हैं इसलिए भीतर के ज्ञान को बाहर पाने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह भीतर ही पड़ा रह जाता है। वह तो बाहर उठता तभी है जब हम बाहर से जो भी सीखा है उसको अलग कर दें ताकि भीतर जो छिपा है वह प्रकट हो सके। आत्मा के ज्ञान की, आत्मा के ज्ञान के आविर्भाव की संभावना ऊपर की सारी पर्तों को तोड़ देने पर ही उपलब्ध होती है। लेकिन हम तो इन पर्तों को मजबूत किए चले जाते हैं। रोज इकट्ठा किए चले जाते हैं। रोज इन पर्तों को भरते चले जाते हैं, ताकि हमें यह खयाल हो सके कि मैं जानता हूं।
यह मैं जानता हूं बाहर से सीखे गए शब्दों के आधार से बिलकुल झूठ और व्यर्थ है। क्या आपको पता है, अब तो मशीनें भी इस तरह के ज्ञान को जानने लगी हैं। कंप्यूटर्स पैदा हो गए हैं। अब तो ऐसी मशीनें बन गई हैं जिन्हें ज्ञान सिखाया जा सकता है। जिन्हें महावीर की पूरी वाणी सिखाई जा सकती है। और फिर उन मशीनों से प्रश्न पूछे जा सकते हैं कि महावीर ने अहिंसा पर क्या कहा? मशीन इतने सही उत्तर देती है कि कोई आदमी कभी नहीं दे सका है।
आपको शायद पता न हो, कोरिया का युद्ध आदमी की सलाह से बंद नहीं हुआ, कोरिया का युद्ध मशीन की सलाह से बंद किया गया। मशीन को सारा ज्ञान दे दिया गया कि चीन के पास कितनी सामग्री है युद्ध की, कितने सैनिक हैं, चीन की कितनी शक्ति है, चीन कितने दिन लड़ सकता है। और हमारी, कोरिया के पास कितनी ताकत है, कितने सैनिक हैं, कितने दिन लड़ सकते हैं। मशीन को दोनों ज्ञान दे दिए गए। फिर मशीन से पूछा गया, युद्ध जारी रखा जाए या बंद कर दिया जाए? मशीन ने उत्तर दिया, युद्ध बंद कर दिया जाए। कोरिया हार जाएगा।
आज अमेरिका और रूस में सारा ज्ञान मशीनों को खिलाया-पिलाया जा सकता है, और उनसे उत्तर लिए जा सकते हैं।
आप भी क्या करते हैं बचपन से? ज्ञान खिलाया जाता है स्कूलों में, पाठशालाओं में, धर्म-मंदिरों में, आपके दिमाग में ज्ञान डाला जाता है। फिर उस डाले हुए ज्ञान की स्मृति इकट्ठी हो जाती है। फिर उसी स्मृति से आप उत्तर देते हैं। इस उत्तर देने में आप कहीं भी नहीं हैं, केवल मन की मशीन काम कर रही है।
आपको सिखा दिया गया है कि ईश्वर है। फिर कोई प्रश्न पूछता है, ईश्वर है, आप कहते हैं, हां, ईश्वर है।
इस उत्तर में आप कहीं भी नहीं हैं। यह सीखा हुआ उत्तर मन का यंत्र वापस लौटा रहा है। अगर यह आपको न बताया जाए कि ईश्वर है, आप उत्तर नहीं दे सकेंगे।
आपसे कोई पूछता है, आपका नाम क्या है? आप कहते हैं, मेरा नाम राम है। इसमें आप सोचते हों कि कुछ सोच-विचार है, तो आप गलती में हैं। बचपन से आपकी स्मृति पर थोपा जा रहा है तुम्हारा नाम, राम, तुम्हारा नाम राम। फिर कोई पूछता है, आपका नाम? स्मृति उत्तर देती है, मेरा नाम राम है।
— ओशो [अंतर की खोज-(विविध)-प्रवचन-09]
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