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“क्या भारत का युवक मर गया है?” – ओशो

एक विचारक भारत आया था, काउंट केसरले। लौटकर उसने एक किताब लिखी है। उस किताब को मैं पढ़ता तो मुझे बहुत हैरानी होने लगी। उसने एक वाक्य लिखा है, जो मेरी समझ के बाहर हो गया, क्योंकि वाक्य कुछ मालूम पड़ता था, जो कि कंट्राडिक्टरी है, विरोधाभासी है।
फिर मैंने सोचा कि छापेखाने की कोई भूल हो गयी होगी। तो ख्याल आया कि किताब जर्मनी में छपी है। में छापेखाने की तो भूलें होती नहीं। वह तो हमारे ही देश में होती हैं। यहां तो किताब छपती है, उसके ऊपर —छ: पन्ने की भूल—सुधार छपी रहती है और उन पांच—छह पन्नों को गौर से पढ़िये तो उसमें भूलें मिल जायेंगी! किताब जर्मनी में छपी है, भूल नहीं हो सकती।
फिर मैंने गौर से पढ़ा, फिर बार—बार सोचा, फिर ख्याल आया, भूल नहीं की है, उस आदमी ने मजाक की है। लिखा है कि मैं हिन्दुस्तान गया। मैं एक नतीजा लेकर वापस आया हूं ‘इण्डिया इज ए रिच कंट्री, व्हेअर पुअर पीपुल लिव। ‘ हिन्दुस्तान एक अमीर देश है, जहां गरीब आदमी रहते हैं!
मैं बहुत हैरान हुआ, यह कैसी बात है! अगर देश अमीर है तो गरीब आदमी क्यों रहते हैं वहां? और देश अमीर है तो वहां के लोग गरीब क्यों हैं? लेकिन वह मजाक कर रहा है। वह यह कह रहा है कि हिन्दुस्तान पास जवानी नहीं है, जो कि देश के छिपे हुए धन को प्रगट कर दे और देश को धनवान बना दे। देश में धन छिपा हुआ है, लेकिन देश बूढ़ा है।
बूढ़ा कुछ कर नहीं सकता। धन खजाने में पड़ा रह जाता है, का भूखा मरता रहता है। धन जमीन में दबा जाता है, बूढ़ा भूखा मरता है! देश का है, इसलिए गरीब है। देश जवान हो तो गरीब होने का कोई कारण नहीं। देश के पास क्या कमी है?
लेकिन अगर हमें कुछ सूझता है तो एक ही बात सूझती है कि जाओ दूनिया में और भीख मांगो। जाओ अमरीका, जाओ रूस, हाथ फैलाओ सारी दुनिया में। भिखारी होने में हमें शर्म भी नहीं आती! हम जवान हैं?
रास्ते पर एक जवान, स्वस्थ आदमी भीख मांगता हो तो हम उससे कहते हैं कि जवान होकर भीख मांगते हो? हम कभी नहीं सोचते कि हमारा पूरा मुल्क सारी दुनिया में भीख मांग रहा है! हमें जवान होने का हक रह है? सड़क पर भीख मांगते आदमी को कोई भी कह देता है कि जवान होकर भीख मांगते हो। हम जानते है कि होकर भीख मांगना लज्जा से भरी हुई बात है, अपमानजनक है। जवान को पैदा करना चाहिए। हां, बूढ़ा छ मांगता हो तो हम क्षमा कर सकते हैं, अब उससे आशा नहीं पैदा करने की।
सारी दुनिया में हम भीख मांग रहे हैं! 1947 के बाद अगर हमने कोई महान कार्य किया है तो वह यही कि सारी दूनिया से भीख मांगने में सफलता पायी है! शर्म भी नहीं आती हमें! दूनिया क्या सोचती होगी कि बूढ़ा देश है, कुछ कर नहीं सकता, सिर्फ भीख मांग सकता है!
लेकिन उन्हें पता नहीं है कि हम पहले से ही पैदा करने की बजाय, भीख मांगने को आदर देते रहे हैं। हिन्दुस्तान में जो भीख मांगता है, वह आदृत है। ब्राह्मण हजार साल तक देश में आश्रित रहे, सिर्फ इसलिए कि वे पैदा नहीं करते और भीख मांगते हैं।
और हिन्दुस्तान ने बड़े—बड़े भिखारी पैदा किये हैं! महापुरुष—बुद्ध से लेकर विनोबा तक भीख मांगने वाले महापुरुष! अगर सारा मुल्क भीख मांगने लगा हो तो हर्ज क्या है? हम सब महापुरुष हो गये हैं। महापुरुषों का देश है, सारा देश महापुरुष हो गया है। हम सारी दुनिया में भीख मांग रहे हैं! भिक्षा—वृत्ति बड़ी धार्मिक वृत्ति है!
पैदा करने में हिंसा भी होती है, पैदा करने में हमें श्रम भी उठाना पड़ता है। और फिर हम पैदा क्यों करें? जब भगवान ने हमें पैदा कर दिया है तो भगवान इंतजाम करे। जिसने चोंच दी है, वह ऋ देगा। हम अपनी चोंच को हिलाते फिरेंगे सारी दुनिया में कि चून दो, क्योंकि हमें पैदा किया है और जो हमें भीख न देंगे, हम गालियां देंगे उन्हें कि तुम भौतिकवादी हो—यू मैटीरियालिस्ट—तुम भौतिकवाद में मरे जा रहे हो, हम आध्यात्मिक लोग हैं! हम इतने आध्यात्मिक हैं कि हम पैदा भी नहीं करते! हम खाते हैं; खाना आध्यात्मिक काम है, पैदा करना भौतिक काम है! भोगना आध्यात्‍मिक काम है! श्रम? श्रम आध्यात्मिक लोग कभी नहीं करते, हीन आत्‍माएं श्रम करती हैं! महात्मा भोग करते हैं। पूरा देश महात्मा हो गया है!
1962 में चीन में अकाल की हालत थी। ब्रिटेन के कुछ भले मानुषों ने एक बड़े जहाज पर बहुत—सा सामान, बहुत—सा भोजन, कपड़े, दवाइयां भरकर वहां भेजे। हम अगर होते तो चन्दन तिलक लगाकर फूल मालाएं पहनाकर उस जहाज की पूजा करते, लेकिन चीन ने उसको वापस भेज दिया और जहाज पर बड़े—बड़े अक्षरों में लिख दिया, हम मर जाना पसंद करेंगे, लेकिन भीख स्वीकार नहीं कर सकते।
शक होता है कि यहां कुछ जवान लोग होंगे!
जवान ही यह हिम्मत कर सकता है कि भूखे मरते देश में, और आया हो भोजन बाहर से और लिख दे जहाज पर कि हम भूखों मर सकते हैं, लेकिन भीख नहीं मांग सकते।
भूखा मरना इतना बुरा नहीं है, भीख मांगना बहुत बुरा है। लेकिन जवानी हो तो बुरा लगे, भीतर जवान खून हो तो चोट लगे, अपमान हो। हमारा अपमान नहीं होता! हम शांति से अपमान को झेलते चले जाते हैं! हम बड़े तटस्थ हैं, अपमान को झेलने में कुछ भी हो जाये, हम आंख बंद करके झेल लेते हैं। यह तो संतोष का, शांति का लक्षण है कि जो भी हो, उसको झेलते रहो, बैठे रहो चुपचाप और झेलते रहो।
हजारों साल से देश दुख झेल—झेल कर मर गया तो कैसे हम स्वीकार कर लें कि देश के पास जवान आदमी हैं, अथवा युवक हैं। युवक देश के पास नहीं हैं।
और इसलिए पहला काम तथाकथित युवकों के लिए.. जो उम्र से युवक दिखायी पड़ते हैं, वह यह है कि वह मानसिक यौवन को पैदा करने की देश में चेष्टा करें। वे शरीर के यौवन को मानकर तृप्त न हो जायें। आत्मिक यौवन, स्प्रीचुअल यंगनेस पैदा करने का एक आदोलन सारे देश में चलना चाहिए। हम इससे राजी नहीं होंगे कि एक आदमी शकल सूरत से जवान दिखायी पड़ता है तो हम जवान मान लें। हम इसकी फिक्र करेंगे कि हिन्दुस्तान के पास जवान आत्मा हो।
स्वामी राम भारत के बाहर यात्रा में पहली दफा गये थे। जिस जहाज पर वे यात्रा कर रहे थे, उस पर एक बूढ़ा जर्मन था, जिसकी उम्र कोई 90 साल होगी। उसके सारे बाल सफेद हो चुके थे, उसकी आंखों में 90 साल की स्मृति ने गहराइयां भर दी थीं, उसके चेहरे पर झूर्रियां थीं लम्बे अनुभवों की; लेकिन वह जहाज के डैक पर बैठकर चीनी भाषा सीख रहा था!
चीनी भाषा सीखना साधारण बात नहीं है, क्योंकि चीनी भाषा के पास कोई वर्णमाला नहीं है, कोई अ ब स नहीं होता चीनी भाषा के पास। वह पिक्टोरियल लैंग्वेज है, उसके पास तो चित्र हैं। साधारण आदमी को साधारण शान के लिए कम से कम पांच हजार चित्रों का ज्ञान चाहिए तो एक लाख चित्रों का ज्ञान हो, तब कोई आदमी चीनी भाषा का पंडित हो सकता है। दस—पन्द्रह वर्ष का श्रम मांगती है चीनी भाषा। 90 साल का बूढ़ा सुबह से बैठकर सांझ तक चीनी भाषा सीख रहा है!
रामतीर्थ बेचैन हो गये। यह आदमी पागल है, 90 साल की उस में चीनी भाषा सीखने बैठा है, कब सीख पायेगा? आशा नहीं कि मरने के पहले सीख जायेगा। और अगर कोई दूर की कल्पना भी करे कि यह आदमी जी जायेगा दस—पन्द्रह साल, सौ साल पार कर जायेगा, जो कि भारतीय कभी कल्पना नहीं कर सकता कि सौ साल पार कर जायेगा। 35 साल पार करना तो मुश्किल हो जाता है, सौ कैसे पार करोगे? लेकिन समझ लें भूल—चूक भगवान की कि यह सौ साल से पार निकल जायेगा तो भी फायदा क्या है? जिस भाषा को सीखने में 15 वर्ष खर्च हों, उसका उपयोग भी तो दस—पच्चीस वर्ष करने का मौका मिलना चाहिए। सीखकर भी फायदा क्या होगा?
दो तीन दिन देखकर रामतीर्थ की बेचैनी बढ़ गयी। वह का तो आंख उठाकर भी नहीं देखता था कि कहां क्या हो रहा है, वह तो अपने सीखने में लगा था। तीसरे दिन उन्होंने जाकर उसे हिलाया और कहा कि महाशय, क्षमा करिये, मैं यह पूछता हूं कि आप यह क्या कर रहे हैं? इस उम्र में चीनी भाषा सीखने बैठे हैं? कब सीख पाइयेगा? और सीख भी लिया तो इसका उपयोग कब करियेगा? आपकी उम्र क्या है?
तो उस बूढ़े ने कहा, उम्र? मैं काम में इतना व्यस्त रहा कि उम्र का हिसाब रखने का कुछ मौका नहीं मिला। उम्र अपना हिसाब रखती होगी। हमें फुर्सत कहां कि उम्र का हिसाब रखें। और फायदा क्या है उम्र का हिसाब रखने में? मौत जब आनी है, तब आनी है। तुम चाहे कितने हिसाब रखो, कि कितने हो गये, उससे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। मुझे फुर्सत नहीं मिली उम्र का हिसाब रखने की, लेकिन जरूर नब्बे तो पार कर गया हूं।
रामतीर्थ ने कहा कि फिर यह सीखकर क्या फायदा? बूढ़े हो। अब कब सीख पाओगे? उस बूढ़े आदमी ने क्या कहा? उसने कहा, मरने का मुझे ख्याल नहीं आता, जब तक मैं सीख रहा हूं। जब सीखना खत्म हो जाएगा तो सोचूंगा मरने की बात। अभी तो सीखने में जिंदगी लगा रहा हूं अभी तो मैं बच्चा हूं क्योंकि मैं सीख रहा हूं। बच्चा सीखता है। लेकिन उस बूढ़े ने कहा कि चूंकि मैं सीख रहा हूं इसलिए बच्चा हूं।
यह आध्यात्मिक जगत में परिवर्तन हो गया।
उसने कहा, चूंकि मैं सीख रहा हूं और अभी सीख नहीं पाया, अभी तो जिंदगी की पाठशाला में प्रवेश किया है। अभी तो बच्चा हूं अभी से मरने की कैसे सोचें? जब सीख लूंगा, तब सोचूंगा मरने की बात।
फिर उस बूढ़े ने कहा, मौत हर रोज सामने खड़ी है। जिस दिन पैदा हुआ था, उस दिन उतनी ही सामने खड़ी थी, जितनी अभी खड़ी है। अगर मौत से डर जाता तो उसी दिन सीखना बंद कर देता। सीखने का क्या फायदा नहीं था? मौत आ सकती है कल, लेकिन 90 साल का अनुभव मेरा कहता है कि मैं 90 साल मौत को जीता हूं। रोज मौत का डर रहा है कि कल आ जायेगी, लेकिन आयी नहीं। 90 साल तक मौत नहीं आयी तो कल भी कैसे आयेगी? 90 साल का अनुभव कहता है कि अब तक नहीं आयी तो कल भी कैसे आ पायेगी? अनुभब करे मानता हूं। 90 साल तक डर फिजूल था। वह बूढ़ा पूछने लगा रामतीर्थ से आपकी उम्र क्या है?
रामतीर्थ तो घबरा ही गये थे उसकी बात सुनकर। उनकी उम्र केवल 30 वर्ष थी।
उस बूढ़े ने कहा, तुम्हें देखकर, तुम्हारे भय को देखकर मैं कह सकता हूं, भारत बूढ़ा क्यों हो गया। तीस साल का आदमी मौत की सोच रहा है! मर गया। मौत की सोचता कोई तब है, जब मर जाता है। तीस साल का आदमी सोचता है कि सीखने से क्या फायदा, मौत करीब आ रही है! यह आदमी जवान नहीं रहा। उस बूढ़े ने कहां, मैं समझ गया कि भारत बूढा क्यों हो गया है? इन्हीं गलत धारणाओं के कारण।
भारत को एक युवा अध्यात्म चाहिए। युवा अध्यात्म। बूढा अध्यात्म हमारे पास बहुत है। हमारे पास ऐसा अध्यात्म है, जो बूढ़ा करने की कीमिया है, केमिस्ट्री है। हमारे पास ऐसी आध्यात्मिक तरकीबें हैं कि किसी भी जवान के आसपास उन तरकीबों का उपयोग करो, वह फौरन बूढ़ा हो जायगा। हमने बूढ़े होने का राज खोज लिया है, सीक्रेट खोज लिया है। बूढ़े होने का क्या राज है?
बूढ़ा होने का राज है : जीवन पर ध्यान मत रखो, मौत पर ध्यान रखो। यह पहला सीक्रेट है। जिंदगी पर ध्‍यान मत देना, ध्यान रखना मौत पर। जिंदगी की खोज मत करना, खोज करना मोक्ष की। इस पृथ्वी की फिक्र मत करना, फिक्र करना परलोक की, स्वर्ग की। यह बूढ़ा होने का पहला सीक्रेट है। जिन—जिन को बूढ़ा होना हो, इसे नोट कर लें। कभी जिंदगी की तरफ मत देखना। अगर फूल खिल रहा हो तो तुम खिलते फूल की तरफ मत देखना, तुम बैठकर सोचना कि जल्द ही यह मुरझा जायेगा। यह बूढ़े होने की तरकीब है।
अगर एक गुलाब के पौधे के पास खड़े हों तो फूलों की गिनती मत करना, कांटों की गिनती करना की सब असार है, कांटे ही कांटे पैदा होते हैं। एक फूल खिलता है, मुश्किल से हजार कांटों में। हजार कांटों की गिनती कर लेना। उससे जिंदगी असार सिद्ध करने में बड़ी आसानी मिलेगी।
अगर दिन और रात को देखो, तो कभी मत देखना कि दो दिन के बीच एक रात है। हमेशा ऐसा देखना कि दो रातों के बीच में एक छोटा—सा दिन है।
बूढ़े होने की तरकीब कह रहा हूं। जिंदगी में जहां अंधेरे हों, उनको मैग्रीफाई करना। बड़ा दिखाने वाला कौन अपने पास रखना, जहां अंधेरा दिखाई पड़े, फौरन मैग्रीफाई ग्लास लगा देना, बड़ा भारी अंधेरा देखना है। और जहां रोशनी दिखाई पड़े, वहां छोटा कर देने वाला ग्लास अपने पास रखना, जो जल्दी से रोशनी को छोटा कर दे। जहां फूल दिखाई पड़े, गिनती मत करना और फौरन सोच लेना क्या रखा है फूल में? क्षण भर को है, अभी खिला है, अभी मुरझा जायेगा। और कांटा स्थायी है, शाश्वत है, सनातन है, न कभी खिलता है, न कभी मुरझाता है। हमेशा है। इन बातों पर ध्यान देने से आदमी बहुत जल्दी बूढ़ा हो जाता है।
मैंने सुना है कि न्यूयार्क की सौवीं मंजिल से एक आदमी गिर रहा था। सौवी मंजिल से वह आदमी गिर रहा था। जब वह पचासवीं मंजिल के पास से गुजर रहा था, तो खिड़की से एक आदमी ने चिल्लाकर उससे पूछा कि दोस्त क्या हाल है? उसने कहा कि अभी तक तो सब ठीक है। यह आदमी गड़बड़ आदमी है। यह आदमी जवान होने का ढंग जानता है।
लेकिन यह ठीक नहीं है। उस आदमी ने कहा, अभी तक सब ठीक है, अभी जमीन तक पहुंचे नहीं हैं, जब पहुंचेंगे तब देखेंगे। अभी पचासवीं खिड़की तक सब ठीक चल रहा है। ओके। यह आदमी जवान होने की तरकीब जानता है।
लेकिन हमको ऐसी तरकीबें कभी नहीं सीखनी चाहिए। हमें तो बूढ़े होने के रास्ते पर चलना चाहिए। बूढ़ा होने का रास्ता—कभी जिंदगी में जो सुन्दर हो, उसकी तरफ ध्यान मत देना, जो असुन्दर हो उसकी खोज—बीन करना। और कोई आदमी आकर आपको कहे कि फलां आदमी बहुत बड़ा संगीतज्ञ है, कितनी अदभुत बांसुरी बजाता है। तो फौरन उसको कहना कि वह बांसुरी क्या खाक बजायेगा। वह आदमी चोर है, बेईमान है, वह बांसुरी कैसे बजा सकता है। आप धोखे में पड़ गये होंगे, वह आदमी पका बेईमान है, वह बांसुरी नहीं बजा सकता। यह बूढ़े होने की तरकीब है।
अगर जवान आदमी उस गांव में जायेगा और कोई उससे कहेगा, उस आदमी को जानते हो? वह बड़ा चोर, बेईमान है? तो वह जवान आदमी कहेगा कि यह कैसे हो सकता है कि वह चोर है, बेईमान है। मैंने उसे बड़ी सुन्दर बांसुरी बजाते देखा है। इतनी अदभुत बांसुरी जो बजाता है, वह चोर नहीं हो सकता।
बूढे का जिंदगी को देखने का ढंग है—दुखद को देखना, अंधेरे को देखना, मौत को देखना, कांटे को देखना।
हिंदुस्तान हजारों साल से दुखद को देख रहा है। जन्म भी दुख है, जीवन भी दुख है, मरण भी दुख है! प्रियजन का बिछुड़ना दुख है, अप्रियजन का मिलना दुख है, सब दुख है! मां के पेट का दुख झेलो, फिर जन्म का दुख झेलो, फिर बड़े होने का दुख झेलो, फिर जिंदगी में गृहस्थी के चक्कर झेलो, फिर बुढ़ापे की बिमारियां झेली, फिर मौत झेलो, फिर जलने की अस में अंतिम पीड़ा झेलो! ऐसे जीवन की एक दुख की लम्बी कथा है। बूढ़ा होना हो तो इसका स्मरण करना चाहिए।
बूढ़ा होना है तो बगीचे में नहीं जाना चाहिए, हमेशा मरघट पर बैठकर ध्यान करना चाहिए, जहां आदमी जलाये जाते हों। सुंदर से बचना चाहिए, असुंदर को देखना चाहिए। विकृत को देखना चाहिए, स्वस्थ को छोडना चाहिए। सुख मिले तो कहना चाहिए क्षणभंगुर है, अभी खत्म हो जायेगा। दुख मिले तो छाती से लगाकर बैठ जाना चाहिए। और सदा आंखें रखनी चाहिए जीवन के उस पार, कभी इस जीवन पर नहीं।
इस जीवन को समझना चाहिए एक वेटिंग रूम है।
जैसे बड़ौदा के स्टेशन पर एक वेटिग रूम हो, उसमें बैठते हैं आप थोड़ी देर। वहीं छिलके फेंक रहे हैं वहीं पान थूक रहे हैं, क्योंकि हमको क्या करना है, अभी थोड़ी देर में हमारी ट्रेन आयेगी और फिर हम चले जायेंगे। तुमसे पहले जो बैठा था, वह भी वेटिंग रूम के साथ यही सदव्यवहार कर रहा था, तुम भी वही सदव्यवहार करो, तुम्हारे बाद वाला भी वही करेगा।
वेटिंग रूम गंदगी का एक घर बन जायेगा, क्योंकि किसी को क्या मतलब है। हमको थोड़ी देर रुकना है तो आंख बंद करके राम—राम जप के गुजार देंगे। अभी ट्रेन आती है, चली जायेगी।
जिंदगी के साथ जिन लोगों की आंखें मौत के पार लगी हैं उनका व्यवहार वेटिंग रूम का व्यवहार है। वे कहते हैं, क्षण भर की तो जिंदगी है; अभी जाना है, क्या करना है हमें। हिंदुस्तान के संत—महात्मा यही समझा रहे हैं लोगों को— क्षणभंगुर है जिंदगी, इसके मायामोह में मत पड़ना। ध्यान वहां रखना आगे, मौत के बाद। इस छाया में सारा देश बूढा हो गया है।
अगर जवान होना है तो जिंदगी को देखना, मौत को लात मार देना। मौत से क्या प्रयोजन है? जब तक जिंदा हैं, तब तक जिंदा हैं। तब तक मौत नहीं है। सुकरात मर रहा था। ठीक मरते वक्त जब उसके लिए बाहर जहर घोला जा रहा था। वह जहर घोलने वाला धीरे—धीरे घोल रहा है। वह सोचता है, जितने देर सुकरात और जिंदा रह ले, अच्छा है। जितनी देर लग जाय।
वक्त हो गया है, जहर आना चाहिए। सुकरात उठकर बाहर जाता है और पूछता है मित्र, कितनी देर और?
उस आदमी ने कहा, तुम पागल हो गये हो सुकरात, मैं देर लगा रहा हूं इसलिए कि थोड़ी देर तुम और रह लो, थोड़ी देर सांस तुम्हारे भीतर और आ जाय, थोड़ी देर सूरज की रोशनी और देख लो, थोड़ी देर खिलते फूलों को, आकाश को, मित्रों की आंखों को और झांक लो, बस थोड़ी देर और। नदी भी समुद्र में गिरने के पहले पीछे लौटकर देखती है। तुम थोड़ी देर लौटकर देख लो। मैं देर लगाता हूं तुम जल्दी क्यों कर रहे हो? तुम इतनी उतावली क्यों किये जा रहे हो?
सुकरात ने कहा, मैं जल्दी क्यों किये जा रहा हूं! मेरे प्राण तड़पे जा रहे हैं मौत को जानने को। नयी चीज को जानने की मेरी हमेशा से इच्छा रही है। मौत बहुत बड़ी नयी चीज है; सोचता हूं देखूं क्या चीज है!
यह आदमी जवान है, यह का नहीं है। मौत को भी देखने के लिए इसकी आतुरता है। मित्र कहने लगा कि थोड़ी देर और जी लो।
सुकरात ने कहा, जब तक मैं जिन्दा हूं मैं यह देखना चाहता हूं कि जहर पीने से मरता हूं कि जिंदा रहता हूं। लोगों ने कहा कि अगर मर गये तो?
उसने कहा कि यदि मर ही गये तो फिक्र ही खअ हो गयी। चिंता का कोई कारण न रहा और जब तक जिंदा हूं जिंदा हूं।। जब मर ही गये, चिंता की कोई बात नहीं, खत्म हो गयी बात। लेकिन जब तक मैं जिंदा हूं जिंदा हूं तब तक मैं मरा हुआ नहीं हूं और पहले से क्यों मर जाऊं? मित्र सब डरे हुए बैठे हैं पास, रो रहे हैं, जहर की घबराहट आ रही है।
वह सुकरात प्रसन्न है! वह कहता है, जब तक मैं जिन्दा हूं तब तक मैं जिंदा हूं तब तक जिंदगी को जानूं। और सोचता हूं कि शायद मौत भी जिंदगी में एक घटना है।
सुकरात को बूढ़ा नहीं किया जा सकता। मौत सामने खड़ी हो जाय तो भी यह बूढ़ा नहीं होता।
और हम?.. जिंदगी सामने खड़ी रहती है और बूढ़े हो जाते हैं। यह रुख भारत में युवा मस्तिष्क को पैदा नहीं होने देता है। जीवन का विषादपूर्ण चित्र फाड़कर फेंक दो। और उसमें जिंदगी के दुख और जिंदगी के विषाद को बढ़ा—चढ़ा कर बतलाते हैं; वे जिंदगी के दुश्मन हैं, देश में युवा को पैदा होने देने में दुश्मन हैं। वह युवक को पैदा होने के पहले का बना देते हैं।
अभी मैं कुछ दिन पहले भावनगर में था। एक छोटी सी लड़की ने, तेरह चौदह साल उम्र थी, उसने मुझे आकर कहा कि मुझे आवागमन से छुटकारे का रास्ता बताइए! तेरह—चौदह साल की लड़की कहती है कि आवागमन से कैसे छूटूं फिर इस मुल्क में कैसे जवानी पैदा होगी? तेरह—चौदह साल की लड़की बूढ़ी हो गयी! वह कहती है, मैं मुक्त कैसे होऊं? जीवन से छूटने का विचार करने लगी है!
अभी जीवन के द्वार पर थपकी भी नहीं दी, अभी जीवन की खिड़की भी नहीं खुली, अभी जीवन की वीणा भी नहीं बजी, अभी जीवन के फूल भी नहीं खिले। वह द्वार के बाहर ही पूछने लगी, छुटकारा, मुक्‍ति, मोक्ष कैसे मिलेगा?
जहर डाल दिया होगा किसी ने उसके दिमाग में। मां—बाप ने, गुरुओं ने, शिक्षकों ने उसको पायजन बना दिया। उसकी जवानी पैदा नहीं होगी अब। अब वह बूढ़ी ही जियेगी। उसका विवाह भी होगा तो वह एक बूढ़ी औरत का विवाह है, जवान लड़की का नहीं। उसके घर के द्वार पर शहनाइयां बजेगी तो एक बूढ़ी औरत सुनेगी उन शहनाइयों को, एक जवान लड़की नहीं। उन शहनाइयों से’ भी मौत की आवाज सुनाई पड़ेगी, जीवन का संगीत नहीं? वह बूढ़ी हो गयी!

— ओशो (संभोग से समाधि कि ओर–युवक कौन (ग्‍याहरवां प्रवचन) )

 

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About OSHO ~ ओशो

Osho was born in Kuchwada, M.P. on 11th December, 1931. His parents Swami Devateertha Bharti and Ma Amrit Saraswati became his disciples in later years. He was enlightened at the age of 21 years on March 21, 1953, while he was studying philosophy at D.N. Jain College in Jabalpur. In 1956 Osho did M.A. from the University of Sagar with First Class Honors in Philosophy. He joined Sanskrit College, Raipur in 1957. He was appointed Professor of Philosophy at the University of Jabalpur, in 1958, where He taught until 1966. During this period He traveled widely in India speaking to large audiences and challenging orthodox religious leaders in public debates. After nine years of teaching, He left the university in 1966 for regular spiritual work. He started conducting intense ten-day meditation and Samadhi camps. At times He addressed gatherings of 20000 to 50000 people. In July, 1970, He moved to Mumbai. By this time He came to be known as Bhagwan Shree Rajneesh. He started initiating seekers into Neo-Sannyas, which did not involve renouncing the world. This was a great revolutionary step since sannyas in all other traditions requires renunciation. In 1974 He moved to Poona Ashram, where He gave 90 minutes discourses nearly every morning, alternating every month between Hindi and English. He spoke on Yoga, Zen, Taoism, Tantra and Sufism covering masters like Gautam Buddha, Jesus, Lao Tzu, and other mystics. These discourses have been collected into over 300 volumes and translated into 20 languages. In the evenings, during these years, He gave Energy darshan and sannyas. And while explaining the sannyas names He unraveled many secrets of divine sound, divine light, and other dimensions of spiritualism. These evening talks are compiled in 64 darshan diaries of which 40 are published. In March 1981, He moved to USA, where His disciples raised city of Rajneeshpuram from the ruins of the central Oregonian high desert. In October 1984 Osho ended His three and half years of self-imposed silence, and started speaking to small groups of people. In July 1985 He resumed His public discourses each morning to thousands of seekers gathered in a two-acre meditation hall. During 1985 - 1986 He undertook a World Tour and visited many countries including Nepal, Greece, Uruguay, Jamaica and Portugal. In all, 21 countries denied Him entry or deported Him after arrival. On July 29,1986, He returned to Mumbai, India and shifted to the ashram in Poona, India, in January, 1987. During January-February 1989 He stopped using the name "Bhagwan," retaining only the name Rajneesh. Later He adopted ‘Osho’ as His new name. On 19th January 1990 Osho left His body.

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