“कैसे जाने की हम विचारों से अलग है?” – ओशो
विचार के सम्यक निरीक्षण से विचार-शून्यता घटित होती है। इस आंतरिक साधना का मूल तत्व सम्यक निरीक्षण है, राइट आब्जर्वेशन है। इन तीनों चरणों में–शरीर पर, विचार पर और भाव पर–सम्यक स्मरण और सम्यक निरीक्षण, देखना।
विचार की जो धाराएं हमारे चित्त पर दौड़ती हैं, कभी उनके मात्र निरीक्षक हो जाएं। जैसे कोई नदी के किनारे बैठा हो और नदी की भागती हुई धार को देखे; सिर्फ किनारे बैठा हो और देखे। या जैसे कोई जंगल में बैठा हो, पक्षियों की उड़ती हुई कतार को देखे; सिर्फ बैठा हो और देखे। या कोई वर्षा के आकाश को देखे और बादलों की दौड़ती हुई, भागती पंक्तियों को देखे। वैसे ही अपने मन के आकाश में विचार के दौड़ते हुए मेघों को, विचार के उड़ते हुए पक्षियों को, विचार की बहती हुई नदी को चुपचाप तट पर खड़े होकर देखना है। जैसे हम किनारे पर बैठे हैं और विचार को देख रहे हैं। विचार को उन्मुक्त छोड़ दें, विचार को बहने दें और भागने दें और दौड़ने दें और आप चुप बैठकर देखें। आप कुछ भी न करें। कोई छेड़छाड़ न करें। कोई रुकाव न डालें। कोई दमन न करें। कोई विचार आता हो, तो रोकें न; न आता हो, तो लाने की चेष्टा न करें। आप मात्र निरीक्षक हों।
उस मात्र निरीक्षण में दिखायी पड़ता है, अनुभव होता है, विचार अलग हैं और मैं अलग हूं। क्योंकि बोध होता है कि जो विचारों को देख रहा है, वह विचारों से पृथक होगा, अलग होगा, भिन्न होगा। और जब यह बोध होता है, तो अदभुत शांति घनी होने लगती है। क्योंकि तब कोई चिंता आपकी नहीं है। आप चिंताओं के बीच में हो सकते हैं, चिंता आपकी नहीं है। आप समस्याओं के बीच में हो सकते हैं, समस्या आपकी नहीं है। आप विचारों से घिरे हो सकते हैं, विचार आप नहीं हैं।
और अगर यह खयाल आ जाए कि मैं विचार नहीं हूं, तो विचारों के प्राण टूटने शुरू हो जाते हैं, विचार निर्जीव होने लगते हैं। विचारों की शक्ति इसमें है कि हम यह समझें कि वे हमारे हैं। जब आप किसी से विवाद करने पर उतर जाते हैं, तो आप कहते हैं, ‘मेरा विचार!’ कोई विचार आपका नहीं है। सब विचार अन्य हैं और भिन्न हैं, आपसे अलग हैं। उनका निरीक्षण।
एक कहानी कहूं, समझ में आए। बुद्ध के पास ऐसा हुआ था। एक राजकुमार दीक्षित हुआ था। पहले दिन ही वह भिक्षा मांगने गया था। उसने, जिस द्वार पर बुद्ध ने भेजा था, भिक्षा मांगी। उसे भिक्षा मिली। उसने भोजन किया, वह भोजन करके वापस लौटा। लेकिन उसने बुद्ध को जाकर कहा, क्षमा करें, वहां मैं दुबारा नहीं जा सकूंगा। बुद्ध ने कहा, ‘क्या हुआ?’
उसने कहा कि ‘यह हुआ कि जब मैं गया, दो मील का फासला था, रास्ते में मुझे वे भोजन स्मरण आए, जो मुझे प्रीतिकर हैं। और जब मैं उस द्वार पर गया, तो उस श्राविका ने वे ही भोजन बनाए थे। मैं हैरान हुआ। मैंने सोचा, संयोग है। लेकिन फिर यह हुआ कि जब मैं भोजन करने बैठा, तो मेरे मन में यह खयाल आया कि रोज अपने घर था, भोजन के बाद दो क्षण विश्राम करता था। आज कौन विश्राम करने को कहेगा! और जब मैं यह सोचता था, तभी उस श्राविका ने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण रुकेंगे और विश्राम करेंगे, तो अनुग्रह होगा, तो कृपा होगी, तो मेरा घर पवित्र होगा। तो मैं हैरान हुआ था। फिर भी मैंने सोचा कि संयोग होगा कि मेरे मन में खयाल आया और उसने भी कह दिया। फिर मैं लेटा और विश्राम करने को था कि मेरे मन में यह खयाल उठा कि आज न अपनी कोई शय्या है, न कोई साया है। आज दूसरे का छप्पर और दूसरे की दरी पर, दूसरे की चटाई पर लेटा हूं। और तभी उस श्राविका ने पीछे से कहा, भिक्षु, न शय्या आपकी है, न मेरी है। और न साया आपका है, न मेरा है। और तब मैं घबरा गया। अब संयोग बार-बार होने मुश्किल थे। मैंने उस श्राविका को कहा, क्या मेरे विचार तुम तक पहुंच जाते हैं? क्या मेरे भीतर चलने वाली विचारधाराएं तुम्हें परिचित हो जाती हैं? उस श्राविका ने कहा, ध्यान को निरंतर करते-करते अपने विचार शून्य हो गए हैं और अब दूसरों के विचार भी दिखायी पड़ते हैं। तब मैं घबरा गया और मैं भागा हुआ आया हूं। और मैं क्षमा चाहता हूं, कल मैं वहां नहीं जा सकूंगा।’
बुद्ध ने कहा, ‘क्यों?’ उसने कहा कि ‘इसलिए कि…कैसे कहूं, क्षमा कर दें और न कहें वहां जाने को।’ लेकिन बुद्ध ने आग्रह किया और उस भिक्षु को बताना पड़ा। उस भिक्षु ने कहा, ‘उस सुंदर युवती को देखकर मेरे मन में विकार भी उठे थे, वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह से वहां जाऊं? कैसे मैं उस द्वार पर खड़ा होऊंगा? अब दुबारा मैं नहीं जा सकता हूं।’ बुद्ध ने कहा, ‘वहीं जाना होगा। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। इस भांति तुम्हें विचारों के प्रति जागरण पैदा होगा और विचारों के तुम निरीक्षक बन सकोगे।’
मजबूरी थी, उसे दूसरे दिन फिर जाना पड़ा। लेकिन दूसरे दिन वही आदमी नहीं जा रहा था। पहले दिन वह सोया हुआ गया था रास्ते पर। पता भी न था कि मन में कौन-से विचार चल रहे थे। दूसरे दिन वह सजग गया, क्योंकि अब डर था। वह होशपूर्वक गया। और जब उसके द्वार पर गया, तो क्षणभर ठहर गया सीढ़ियां चढ़ने के पहले। अपने को उसने सचेत कर लिया। उसने भीतर आंख गड़ा ली। बुद्ध ने कहा था, भीतर देखना और कुछ मत करना। इतना ही स्मरण रहे कि अनदेखा कोई विचार न हो, अनदेखा कोई विचार न हो। बिना देखे हुए कोई विचार निकल न जाए, इतना ही स्मरण रखना बस।
वह सीढ़ियां चढ़ा, अपने भीतर देखता हुआ। उसे अपनी सांस भी दिखायी पड़ने लगी। उसे अपने हाथ-पैर का हलन-चलन भी दिखायी पड़ने लगा। उसने भोजन किया, एक कौर भी उठाया, तो उसे दिखायी पड़ा। जैसे कोई और भोजन कर रहा था और वह देखता था।
जब आप दर्शक बनेंगे अपने ही, तो आपके भीतर दो तत्व हो जाएंगे, एक जो क्रियमाण है और एक जो केवल साक्षी है। आपके भीतर दो हिस्से हो जाएंगे, एक जो कर्ता है और एक जो केवल द्रष्टा है।
उस घड़ी उसने भोजन किया। लेकिन भोजन कोई और कर रहा था और देख कोई और रहा था। और हमारा मुल्क कहता है–और सारी दुनिया के जिन लोगों ने जाना है, वे कहते हैं–कि जो देख रहा है, वह आप हैं; और जो कर रहा है, वह आप नहीं हैं।
उसने देखा, वह हैरान हुआ। वह नाचता हुआ वापस लौटा। और उसने बुद्ध को जाकर कहा, ‘धन्य है, मुझे कुछ मिल गया। दो अनुभव हुए हैं; एक तो यह अनुभव हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग हो जाता था, तो विचार बंद हो जाते थे।’ उसने कहा, ‘एक अनुभव तो यह हुआ कि जब मैं बिलकुल सजग होकर देखता था भीतर, तो विचार बंद हो जाते थे। दूसरा अनुभव यह हुआ कि जब विचार बंद हो जाते थे, तब मैंने देखा, कर्ता अलग है और द्रष्टा अलग है।’ बुद्ध ने कहा, ‘इतना ही सूत्र है। जो इसे साध लेता है, वह सब साध लेता है।’
विचार के द्रष्टा बनना है, विचारक नहीं। स्मरण रहे, विचारक नहीं, विचार के द्रष्टा।
इसलिए हम अपने ऋषियों को द्रष्टा कहते हैं, विचारक नहीं। महावीर विचारक नहीं हैं, बुद्ध विचारक नहीं हैं। ये द्रष्टा हैं। विचारक तो बीमार आदमी है। विचार वे करते हैं, जो जानते नहीं हैं। जो जानते हैं, वे विचार नहीं करते, वे देखते हैं। उन्हें दिखायी पड़ता है, उन्हें दर्शन होता है। और दर्शन की पद्धति अपने भीतर विचार का निरीक्षण है। उठते-बैठते, सोते-जागते, अपने भीतर जो भी विचार की धारा चलती हो, उसे देखें। और किसी भी विचार के साथ तादात्म्य न करें कि इस विचार के साथ मैं एक हो गया। विचार को अलग चलने दें, आप अलग चलें। आपके भीतर दो धाराएं होनी चाहिए।
साधारण आदमी के भीतर एक धारा होती है, मात्र विचार की। साधक के भीतर दो धाराएं होती हैं, विचार की और दर्शन की। साधक के भीतर दो पैरेलल, दो समानांतर धाराएं होती हैं, विचार की और दर्शन की। सामान्य आदमी के भीतर एक धारा होती है, मात्र विचार की। और सिद्ध के भीतर भी एक ही धारा होती है, मात्र दर्शन की। इसे समझ लें।
साधारण आदमी के भीतर एक धारा होती है, विचार की। दर्शन सोया हुआ होता है। साधक के भीतर दो धाराएं होती हैं समानांतर, विचार की और दर्शन की। सिद्ध के भीतर भी एक ही धारा रह जाती है, दर्शन की; विचार मृत हो जाता है।
तो हमें विचार से दर्शन तक पहुंचना है, तो हमें विचार और दर्शन की समानांतर साधना करनी होगी। अगर विचार से दर्शन तक पहुंचना है, तो हमें विचार की और दर्शन की समानांतर साधना करनी होगी। उसको मैं सम्यक निरीक्षण कह रहा हूं, उसको सम्यक स्मृति कह रहा हूं। उसको महावीर ने विवेक कहा है। विचार और विवेक। जो विचार को भी देखता है, वह विवेक है। विचारक मिल जाने तो बहुत आसान हैं। जिनका विवेक जाग्रत हो, वैसे लोग बहुत कठिन हैं।
विवेक को जगाएं। कैसे जगाएंगे, वह मैंने कहा, स्मरणपूर्वक विचार को देखने से। शरीर की क्रियाओं को देखेंगे, शरीर शून्य हो जाएगा। और विचार की दौड़ को देखेंगे, विचार की प्रक्रिया को, थाट प्रोसेस को देखेंगे, तो विचार शून्य हो जाएगा। और अगर भाव का अंतर्निरीक्षण करेंगे, तो भाव शून्य हो जाएगा।
— ओशो (ध्यान सूत्र | प्रवचन–07)
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