अगर व्यक्ति के सामने से लक्ष्य या आदर्श हट जायेंगे तो फिर व्यक्ति बनेगा क्या?

Question

प्रश्न – बहुत से मित्रों ने पूछा है: आदर्श, जो मैंने दूसरा सूत्र कहा, कि आदर्श हट जाने चाहिए व्यक्तित्व के सामने से। तो उन्होंने कहा, आदर्श हट जाएंगे तो फिर व्यक्ति बनेगा क्या?

Answer ( 1 )

  1. हमें खयाल ही नहीं है, व्यक्ति आदर्श से नहीं बनता, व्यक्ति बनता से बीज से, पोटेंशिएलिटी से। व्यक्ति भविष्य से नहीं बनता, जो उसके भीतर छिपा है उसके प्रगटन से, उसकी अभिव्यक्ति से बनता है।
    एक बीज हम बो देते हैं फूल का; वृक्ष बड़ा होता है किसी आदर्श के कारण? वृक्ष मैं फूल आते हैं किसी आदर्श के कारण? नहीं, वृक्ष के बीज में जो छिपा है उसके एक्सप्रेशन, उसकी अभिव्यक्ति के कारण वृक्ष में पत्ते आते हैं, फूल आते हैं, फल आते हैं। जो छिपा है वह पूरी तरह प्रकट हो सके, तो वृक्ष में फूल आ जाते हैं। आदमी के साथ हम उलटा काम कर रहे हैं हजारों साल से। हम आगे उस पर कुछ थोपते हैं कि तुम यह बनो। हम यह फिकर नहीं करते कि तुम्हारे भीतर क्या छिपा है वह तुम प्रकट हो जाओ। जीवन का विकास प्रकटीकरण है, मेनिफेस्टेशन है। जीवन का विकास आरोपण नहीं है, कल्टीवेशन नहीं है। जीवन को ऊपर से नहीं थोपना पड़ता, भीतर से विकसित करना होता है।
    हम एक आदमी को कहते हैं, महावीर जैसे बन जाओ। हम महावीर को इस आदमी के ऊपर थोपने की कोशिश करते हैं बिना यह जाने कि इस आदमी का बीज क्या है, इस आदमी की पोटेंशिएलिटी क्या है, इसके भीतर क्या छिपा है। यह गुलाब का फूल बनने को है, चमेली का, जुही का, क्या? इसको बिना जाने हम इसके ऊपर किसी को थोपने की कोशिश करते हैं। स्वभावतः परिणाम यह होता है कि जो इसके भीतर छिपा है वह कुंठित हो जाता है, वह वहीं ठहर जाता है, स्टेग्नेंट हो जाता है, जड़ हो जाता है। फिर इसके प्राण तड़फड़ाते हैं, क्योंकि जो भीतर छिपा है अगर प्रकट न हो सके, तो जीवन दुख, चिंता, एंज़ायटी, फ्रस्ट्रेशन से भर जाता है। जीवन की एक ही खुशी है, एक ही आनंद, एक ही मुक्ति कि जो मेरे भीतर छिपा है वह पूरी तरह प्रकट हो जाए, पूरी फ्लावरिंग हो जाए, उसका पूरा फूल विकसित हो जाए। लेकिन हमने अब तक जो किया है वह उलटा है।
    भीतर जो छिपा है उसे प्रकट करने की कोशिश नहीं, बाहर जो दिखाई पड़ता है उसे थोपने की चेष्टा, ये दोनों उलटी बातें हैं।
    अगर मैं किसी बगिया में चला जाऊं और वहां जाकर गुलाब के फूल को कहूं, तू कमल का फूल हो जा। चमेली को कहूं, तू चंपा हो जा। पहली तो बात, फूल मेरी बात सुनेंगे नहीं। फूल आदमियों जैसे नासमझ नहीं होते कि हर किसी की बात सुनने को इकट्ठे हो जाएं। सुनेंगे ही नहीं। मैं चिल्लाता रहूंगा, फूल अपनी मौज में, हवाओं में तैरते रहेंगे। फिकर भी नहीं करेंगे कि कोई समझाने आया हुआ है। लेकिन हो सकता है आदमी के साथ-साथ रहते-रहते कुछ फूल बिगड़ गए हों। सोहबत का बुरा असर पड़ता ही है। हो सकता है कुछ फूल उपदेश सुनने के प्रेमी हो गए हों और मेरी बात सुन लें, तो उस बगिया में बड़ा उत्पात मच जाएगा। फिर उस बगिया में एक बात तय है, फूल पैदा ही नहीं होंगे। क्योंकि गुलाब कोशिश करेगा कमल होने की। चमेली कोशिश करेगी चंपा होने की। गुलाब के भीतर कमल होने की कोई संभावना ही नहीं है। कमल होने की कोशिश में कमल तो हो ही नहीं सकेगा, यह असंभव है। लेकिन दूसरी दुर्घटना घट जाएगी, कमल होने की कोशिश में वह गुलाब भी नहीं हो पाएगा। क्योंकि सारी कोशिश कमल होने में लग जाएगी, तो गुलाब होने के लिए शक्ति कहां बचेगी, दृष्टि कहां बचेगी, समय कहां बचेगा, सुविधा कहां बचेगी, खयाल भी नहीं बेचेगा कि मुझे गुलाब होना है, मुझे तो कमल होना है। यह रोग उसके ऊपर चढ़ गया तो वह गुलाब नहीं हो सकता। उस बगिया में फूल पैदा होने बंद हो जाएंगे।
    आदमी की बगिया में फूल पैदा होना हजारों साल से बंद है। कभी एकाध फूल पैदा हो जाता है। अगर कोई माली साढ़े तीन लाख पौधे लगाए, साढ़े तीन अरब पौधे लगाए और एक पौधे में फूल पैदा हो जाए, उस माली को हम धन्यवाद देंगे? शायद हम यही समझेंगे कि यह फूल माली से बच कर शायद विकसित हो गया। क्योंकि साढ़े तीन अरब पौधों में तो कोई फूल नहीं लगा। एकाध महावीर कभी पैदा हो जाता, एकाध बुद्ध, एकाध क्राइस्ट, इससे कोई आदमी का गौरव है? इससे आदमी का कोई गौरव नहीं। अरबों आदमी बिना फूलों के समाप्त हो जाते हैं। क्या शेष सारे लोग पूजा करने को पैदा हुए हैं कि एक फूल पैदा हो जाए शेष उसकी पूजा करें? मंदिर बनाएं? जयजयकार करें? नहीं साहब, नहीं, हर आदमी अपने भीतर फूलों को विकसित करने को पैदा हुआ है किसी की पूजा करने को नहीं।
    लेकिन आदमी को कर दिया हमने हीन-हीन। दूसरे जैसे बनने की कोशिश से आदमी हो गया विकृत। उसकी सारी चेतना हो गई पथभ्रष्ट। हमने उसको समझा दिया दूसरे जैसे बनो। छोटे से बच्चे को ही हम यह बीमारी के रोगाणु भरना शुरू कर देते हैं–गांधी जैसे बनो, फलां जैसे बनो, ढिकां जैसे बनो। गांधी बहुत अच्छे हैं, बहुत प्यारे, लेकिन गांधी जैसे बनने की चेष्टा बहुत गलत, बहुत खतरनाक। महावीर बहुत खूबी के हैं, लेकिन कोई दूसरा आदमी महावीर बनने को नहीं है।
    एक-एक आदमी अनूठा और अलग और पृथक है, कोई आदमी किसी दूसरे जैसा नहीं है। तो आदर्श मनुष्य को आत्मच्युत कर देते हैं, उसे भटका देते हैं। आदर्श भटका देते हैं, आदर्श ने भटकाया हुआ है। इसलिए जो आप पैदा हुए हैं जो क्षमता लेकर, वह क्षमता वैसी ही पड़ी रह जाती है, वह कभी विकसित नहीं होती।
    मेरा कहना है, आदर्श नहीं; आत्मा।
    बाहर कोई आदर्श नहीं है किसी के लिए। भीतर छिपा है बीज। और उस बीज की तलाश तभी हो सकती है जब बाहर का आदर्श हम छोड़ें, अन्यथा उस बीज की खोज भी नहीं हो पाती। उस बीज पर ध्यान ही नहीं जा पाता। कभी आपने सोचा कि आप क्या होने को पैदा हुए हैं? कभी आपने सोचा कि कौन सी क्षमता आपके भीतर छिपी है? खोजा आपने उस क्षमता को? क्या है मेरे भीतर? गुलाब का फूल, चमेली का, घास का फूल, क्या है मेरे भीतर?
    और स्मरण रहे, एक घास का फूल भी जब पूरी तरह खिलता है तो किसी गुलाब, किसी कमल से पीछे नहीं होता। एक घास का फूल भी जब पूरी शान से खिलता है, और हवाओं में अपनी सुगंध बिखेर देता है, और हवाओं पर तैरता है, तब उसका आनंद किसी कमल और किसी गुलाब से कम नहीं होता।
    और परमात्मा की दृष्टि में घास के फूल का कोई विरोध नहीं है। हवाएं फर्क नहीं करतीं कि गुलाब के फूल पर ज्यादा देर ठहर जाएं, घास के फूल पर कम। सूरज की रोशनी फर्क नहीं करती कि कमल के लिए ज्यादा रोशनी दे दे, घास के फूल से कह दे, शूद्र तू ठहर, तू सामान्य आदमी तू कहां बीच में आता है।
    नहीं, प्रकृति कोई भेद नहीं करती है। सब भेद आदमी के बनाए हुए हैं। हर आदमी जो हो सकता है वही होना चाहिए उसे। किसी दूसरे के अनुसरण की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि मैं यह कह रहा हूं कि महावीर को आप न समझें। महावीर को खूब समझें, बुद्ध को खूब समझें, राम को खूब समझें। और जितना आप समझेंगे उतना ही आप पाएंगे कि अनुकरण करना ठीक नहीं। क्योंकि समझने से आपको पता चलेगा, यह आदमी किसी का अनुकरण किया ही नहीं, तो मैं इसका अनुकरण कैसे करूं? आज तक दुनिया का कोई महापुरुष किसी का अनुगामी नहीं है। इसको उलटा भी कह सकते हैं, चूंकि वह किसी का अनुगामी नहीं है इसीलिए महापुरुष हो सका है। और आप अनुगामी हैं इसलिए आपके भीतर महानता का जन्म नहीं हो सकता है। आप अनुगामी होने से खुद हीन हो गए अपने हाथों, आपने स्वीकार कर ली अपनी इनफिरिआरिटी। अपनी हीनता आपने मान ली कि मैं तो अनुगामी हूं, अनुयायी हूं। किसी के पीछे जाना मनुष्य की आत्मा का सबसे बड़ा अपमान है।
    इसलिए मैंने कहा कि आदर्श नहीं; चाहिए निजता, चाहिए खुद के व्यक्तित्व में छिपे हुए बीजों को विकास करने की क्षमता, उनका अनुसंधान। आदर्श से बंधा हुआ व्यक्ति यह कभी भी नहीं कर पाता। और आदर्श की चेष्टा से उसके जीवन में एक तरह का थोपा हुआ व्यक्तित्व, कल्टीवेटिड व्यक्तित्व पैदा हो जाता है, जो बिलकुल झूठा होता है। हम सब अपने ऊपर जो-जो चेष्टाएं करते हैं आदर्श बनने की, उन सबसे हम अभिनेता हो जाते हैं और कुछ भी नहीं।
    राम को हुए कितने दिन हुए, कोई राम पैदा नहीं होता। हां, रामलीला के राम बहुत पैदा हुए। रामलीला के राम बनना शोभापूर्ण है? रामलीला के राम बनना गरिमापूर्ण है? यह भी हो सकता है कि रामलीला का राम इतना कुशल हो जाए बार-बार रामलीला करते हुए कि असली राम से अगर प्रतिस्पर्धा करवाई जाए तो असली राम हार जाएं। यह भी हो सकता है। क्योंकि असली राम से भूलें भी होती हैं, चूक भी होती हैं; नकली राम से कोई भूल-चूक ही नहीं होती, नकली आदमी भूल-चूक करता ही नहीं। क्योंकि उसे तो सब पार्ट याद करके करना होता है। राम को तो बेचारे को पाठ याद करने की सुविधा नहीं थी, सीता खो गई तो उन्हें कोई बताने वाला नहीं था कि अब किस तरह छाती पीटो और क्या कहो। जो हुआ होगा वह सहज हुआ होगा। वह स्पांटेनियस था। कहीं कोई लिखी हुई किताब से याद किया हुआ नहीं था, इसलिए भूल-चूक भी हो सकती है। लेकिन रामलीला का राम बिलकुल कुशल होता, उससे भूल-चूक होती नहीं। उसका सब तैयार है; सब डायलाग, सब भाषण, सब, सब पहले से निश्चित है। और फिर बार-बार उसको मिलता है, राम को तो एक ही दफे लीला करने का मौका मिलता है, रामलीला के राम को हर साल मौका मिलता है। तो यह निष्णात होता चला जाता है। यह इतना निष्णात हो सकता है कि अगर दोनों आपके सामने लाकर खड़े कर दिए जाएं तो असली राम की कोई फिकर ही न करे नकली राम के लोग पैर छुएं।
    ऐसा एक दफे हो भी गया। चार्ली चैपलीन का नाम सुना होगा। वह एक हंसोड़ अभिनेता था। उसकी पचासवीं वर्षगांठ बड़े जोर-शोर से मनाई गई थी। और एक उस वर्षगांठ पर एक विशेष आयोजन किया गया सारे यूरोप और अमेरिका में। अभिनेताओं को निमंत्रित किया गया कि दूसरे अभिनेता चार्ली चैपलीन का अभिनय करें। ऐसे सौ अभिनेता सारी दुनिया से चुने जाएंगे। प्रतियोगिताएं होंगी नगरों-नगरों में। और फिर अंतिम प्रतियोगिता होगी। और उस अंतिम प्रतियोगिता में तीन व्यक्ति चुने जाएंगे जो चार्ली चैपलीन का पार्ट करने में सर्वाधिक कुशल सिद्ध होंगे। उन तीन को तीन पुरस्कार दिए जाएंगे।
    प्रतियोगिता हुई, हजारों अभिनेताओं ने भाग लिया। एक से एक कुशल अभिनेता ने, चार्ली चैपलीन बना, बनने की कोशिश की। चार्ली चैपलीन के मन में हुआ कि मैं भी किसी दूसरे के नाम से फार्म भर कर सम्मिलित क्यों न हो जाऊं? मुझे तो प्रथम पुरस्कार मिल ही जाने वाला है। खुद ही चार्ली चैपलीन हूं मेरा धोखा और कौन दे सकेगा। और जब बात भी खुलेगी तो एक मजाक हो जाएगी, मैं तो हंसोड़ अभिनेता हूं ही। लोग कहेंगे खूब मजाक की इस आदमी ने।
    वह एक छोटे से गांव में जाकर फार्म भर कर सम्मिलित हो गया। अंतिम प्रतियोगिता हुई उसमें वह सम्मिलित था। सौ लोगों में वह भी एक था, किसी को पता नहीं। वहां तो सौ चार्ली चैपलीन एक से मालूम होते थे, एक सी मूंछ, एक सी चाल, एक सी ढाल, वे सब चार्ली चैपलीन थे। प्रतियोगिता हुई, पुरस्कार बंटे, मजाक भी खूब हुई, लेकिन चार्ली चैपलीन ने जो सोची थी वह मजाक नहीं हुई, मजाक उलटी हो गई। चार्ली चैपलीन को द्वितीय पुरस्कार मिल गया। कोई अभिनेता उसके ही पार्ट करने में नंबर एक आ गया। और जब पता चला दुनिया को, तो दुनिया हैरान रह गई कि हद्द हो गई यह बात तो! कि चार्ली चैपलीन खुद मौजूद था प्रतियोगिता में और नंबर दो का पुरस्कार मिला! तो हो सकता है महावीर के अनुयायी महावीर को हरा दें नकल करने में। बिलकुल हरा सकते हैं। चूंकि अनुयायी एक नकल होता है, असल नहीं। लेकिन नकली आदमी हरा भी दे तो भी नकली आदमी नकली आदमी है, उसके भीतर कोई आनंद, कोई प्रफुल्लता, कोई विकास, कोई पूर्णता उपलब्ध नहीं हो सकती। और इन नकली आदमियों का एक ज्वार चलता है सारी दुनिया में।
    अभी गांधी हमारे मुल्क में थे, गांधी के साथ हजारों नकली गांधी इस मुल्क में पैदा हो गए थे। उन्होंने मुल्क को डूबा दिया, उन नकली गांधीयों ने मुल्क को डूबा दिया। गांधी जैसी खादी पहनने लगे, गांधी जैसा चरखा चलाने लगे। उन्होंने डूबा दिया इस मुल्क को। जो नकली गांधी पैदा हो गए थे इस मुल्क हत्यारे साबित हुए हैं, मर्डरर्स साबित हुए। डूबा दिया इस मुल्क को। डुबाए जा रहे हैं रोज। डुबाएंगे ही, क्योंकि नकली आदमी भीतर कुछ और होता है, बाहर कुछ और। असली आदमी जो भीतर होता है वही बाहर होता है।
    असली आदमी बनना है तो किसी आदर्श को थोपने की कोशिश भूल कर भी मत करना। अन्यथा आप एक नकली आदमी बन जाएंगे। और आपका जीवन तो गलत हो ही जाएगा, आपके जीवन की गलती दूसरों तक को नुकसान पहुंचाएगी। समाज तब एक धोखा, एक प्रवंचना हो जाता। पूरा समाज एक फ्राड हो जाता है। क्योंकि जब सभी नकली आदमी होते हैं तो फिर बड़ी मुश्किल हो जाती है।
    इसलिए मैंने कहा, आदर्श नहीं। लेकिन आपको डर लगता है यह–यह पूछा है प्रश्नों में–यह डर लगता है कि अगर आदर्श छोड़ दिया तो फिर हम बनें क्या? यह आदर्श वालों ने यह सिखा दिया है आपको कि बनने के लिए कोई पैटर्न, कोई ढांचा, कोई तस्वीर, कोई लक्ष्य होना चाहिए। नहीं, बनने के लिए लक्ष्य नहीं होता, न ढांचा होता है, न पैटर्न होता है। बनने के लिए तो जो भीतर छिपा है उसे जगाने की चेष्टा होती है। आगे ढांचा नहीं होता, भीतर जो छिपा है…
    एक आदमी को कुआं खोदना है, क्या करता है वह? मिट्टी खोदता है, पत्थर निकालता है। पानी तो भीतर छिपा है। बाधाएं अलग कर देता है। सारी मिट्टी-पत्थर को निकाल कर बाहर फेंक देता है, भीतर से पानी के झरने फूट आते हैं।
    आपको क्या बनना है यह खयाल ही गलत है। आपके भीतर क्या छिपा है उसकी जितनी बाधाएं हैं उनको आप अलग कर दें, वह प्रकट हो जाए। आदमी की जीवन की साधना किसी लक्ष्य को उपलब्ध करने की साधना नहीं, किन्हीं बाधाओं को दूर करने की साधना है। आदमी के जीवन की साधना हिंडरेंसेस को, जो बीच में रुकावटें हैं उनको दूर करने की साधना है, किसी लक्ष्य को पाने की साधना नहीं। लक्ष्य को पाने की बात ही गलत है। आपके भीतर मौजूद है लक्ष्य, अगर आप सब तरह से खुद के निखार लें, साफ कर लें, तो आप पाएंगे कि आपके भीतर से रोशनी आनी शुरू हो गई, आपके भीतर व्यक्तित्व का जन्म होना शुरू हो गया।
    तो कौनसी बाधाएं हैं जिनको हम अलग कर दें? तो ये बाधाएं हैं जो मैं गिना रहा हूं। विश्वास बाधा है। आदर्श बाधा है। अनुकरण बाधा है। ये बाधाएं हटा दें। इनके हटते ही आपके भीतर जीवन के झरने फूटने शुरू हो जाएंगे। लेकिन हम अपने जीवन के कुआं बनाते ही नहीं, हम तो हौज बना लेते हैं। दीवाल उठा कर एक हौज बना लेते हैं, उधार दूसरों के कुएं से पानी लाकर भर लेते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं। हौज भी कोई कुआं है? ऊपर से धोखा पैदा हो जाता है। इसमें भी पानी भरा हुआ है और कुएं में भी पानी भरा हुआ है। हौज का पानी उधार है। हौज के पानी में कोई झरें नहीं हैं, कोई झरने नहीं हैं, हौज का पानी किसी समुद्र से जुड़ा हुआ नहीं है। कुआं? कुएं के पास अपने जल-स्रोत हैं, खुद का पानी है, उधार नहीं है। कुएं की अपनी आत्मा है। हौज की अपनी कोई आत्मा नहीं है, सब उधार है हौज। कुएं के पास अपना व्यक्तित्व है, अपनी आत्मा है, अपनी निजता है, अपनी इंडीविजुअलिटी है और उसके झरने सागर से जुड़े हैं, दूर सागरों से, कुएं के पानी को उलीचते चले जाएं तो कुआं चिल्लाएगा नहीं कि बस बंद करो मैं खाली हो जाऊंगा, कुएं का पानी जितना उलीचिए कुआं और नये ताजे पानी से भर जाता है, और जवान, युवा हो जाता है। इसलिए कुआं लुटाता है। हौज? हौज संग्रह करती है। क्योंकि हौज अगर लुटाएगी तो खाली हो जाएगी, रिक्त हो जाएगी।
    बस हौज और कुएं के तरह के, दो तरह के आदमी होते हैं दुनिया में। जिनको आप कहते हैं, त्याग किया, उसका और कोई मतलब नहीं है, आप कहते हैं महावीर ने इतना त्याग किया, उसका मतलब महावीर एक कुआं हैं, जितना लुटाते हैं उतनी नई ताजगी भीतर भरती चली आती है। त्याग का और क्या मतलब होता है? त्याग का मतलब होता है, जितना यह आदमी छोड़ता है उतना ही भीतर उपलब्ध होता है। इसलिए तो छोड़ता है। छोड़ने से पाता है भीतर। और दूसरे तरह के वे आदमी जो हर चीज को संग्रह करते हैं, कुछ भी छोड़ते नहीं–मकान, धन, ज्ञान, सब संग्रह करते चले जाते हैं। लाओ, लाओ, लाओ, उनकी एक भाषा होती है, आओ, सब आ जाए, सब इकट्ठा हो जाए। क्यों? क्योंकि उनके पास अपना तो कुछ भी नहीं है, जितना इकट्ठा हो जाएगा उतने ही मालूम पड़ेंगे कि वे कुछ हैं। हौज बन गए हैं वे, कुआं नहीं बन पाए। हौज का पानी सड़ जाता है। संग्रह करने वाला व्यक्तित्व भी सड़ जाता है। हौज के पानी में थोड़े दिन में कीड़े दिखाई पड़ने लगेंगे, बदबू निकलने लगेगी। संग्रह करने वाले व्यक्ति में भी थोड़े दिन में दुर्गंध, थोड़े दिन में कुरूपता पैदा हो जाती है। लेकिन जो कुआं बनता है, जो उलीचता है स्वयं को, बांटता है स्वयं को, संग्रह नहीं करता लुटा देता है स्वयं को, उसको व्यक्तित्व में निरंतर-निरंतर सौंदर्य के नये-नये तल प्रकट होने लगते हैं। उसके व्यक्तित्व से नई-नई सुगंध रोज जन्म पाने लगती है। उसके भीतर से रोशनी के और नये-नये स्रोत उपलब्ध होने लगते हैं। क्योंकि उतनी ही फेंकने में बाधाएं दूर हो जाती हैं। और उतना ही जो भीतर छिपा है वह प्रकट होने लगता है।
    जीवन की साधना स्वयं के ऊपर आए हुए आवरण, बाधाएं, पर्दे, धूल, इस सबको हटा देने की साधना है, स्वयं को पाने की साधना, लक्ष्य पाने की साधना नहीं है। जीवन खुद है अपना लक्ष्य। कहीं कोई इतर, अलग, कोई लक्ष्य नहीं है जीवन के सामने जिसको आपको पाना है।
    अकबर के दरबार में तानसेन बहुत दिन रहा था। एक दिन अकबर ने तानसेन को रात में विदा करते वक्त कहा, तेरे गीत सुन कर, तेरे संगीत में डूब कर अनेक बार मुझे ऐसा लगता है, तू बेजोड़ है, शायद ही पृथ्वी पर कभी किसी ने ऐसा बजाया हो जैसा तू बजाता है। लेकिन आज तुझे सुनते वक्त मुझे एक खयाल आ गया, तूने भी शायद किसी से सीखा होगा? तेरा भी कोई गुरु होगा? हो सकता है तेरा गुरु तुझसे भी अदभुत बजाता हो? तेरा गुरु जीवित हो, तो मैं उसे सुनना चाहता हूं।
    तानसेन ने कहा, गुरु मेरे जीवित हैं, लेकिन उन्हें सुनना तो, वे तो जब बजाते हैं तभी आपको पहुंच कर सुनना पड़ेगा। इसलिए बड़ा मुश्किल है मामला।
    अकबर ने कहा, कितना ही मुश्किल हो, तुमने जो कहा उससे मेरी आकांक्षा और भी बढ़ गई। मैं उन्हें सुनना ही चाहूंगा। कोई व्यवस्था करो।
    तानसेन ने पता लगाया तो पता चला–उसके गुरु थे, हरिदास, वे एक फकीर थे और यमुना के किनारे रहते थे–उसने पता चलाया, चौबीस घंटे आदमी वहां लगा कर रखे कि वे कब बजाते हैं, किन घड़ियों में, तो पता चला, रात चार बजे वे रोज सितार बजाते हैं।
    अकबर और तानसेन चोरी से जाकर अंधेरी रात में झोपड़े के बाहर छिप गए। दुनिया के किसी सम्राट ने शायद किसी कलाकार को इतना आदर न दिया होगा कि चोरी से उसे सुनने गए। रात अंधेरे में झोपड़े के बाहर छुप रहे। चार बजे वीणा बजनी शुरू हुई। अकबर के आंसू, थामता है नहीं थमते, जब तक वीणा बजती रही वह रोता ही रहा। जैसे किसी और ही लोक में पहुंच गया। वापस लौटने लगा तो जैसे किसी तंद्रा में, जैसे किसी स्वप्न में। महल तक तानसेन से कुछ बोला नहीं। महल में विदा करते वक्त तानसेन से कहा, तानसेन, मैं सोचता था तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं। लेकिन देखता हूं, तुम्हारे गुरु के सामने तो तुम कुछ भी नहीं हो। इतना फर्क कैसे? तुम ऐसी दिव्य दशा में, तुम ऐसे दिव्य संगीत को उपलब्ध नहीं हो पाते, क्या है कारण? कौनसी बाधा बन रही है?
    तानसेन सिर झुका कर खड़ा हो गया और कहा, बाधा को मैं भलीभांति जानता हूं। सबसे बड़ी बाधा यही है कि मैं किसी लक्ष्य को लेकर बजाता हूं। बजाता हूं, ध्यान लगा रहता है क्या मिलेगा बजाने के बाद पुरस्कार? क्या होगा? पुरस्कार मेरा लक्ष्य है, उसको ध्यान में रख कर बजाता हूं। इसलिए कितनी ही मेहनत करता हूं मुक्त नहीं हो पाता मेरा बजाना, पुरस्कार से बंधा रहता है। मेरे गुरु किसी आकांक्षा से नहीं बजाते। बजाने के आगे कुछ भी नहीं, जो कुछ है बजाने के पीछे है। मैं बजाता हूं ताकि मुझे कुछ मिल सके। वे बजाते हैं क्योंकि उन्हें कुछ मिल गया है। कोई आनंद उपलब्ध हुआ है, वह आनंद के कारण बजता है। वह आनंद बजने में फैलता है और प्रकट होता है। वह आनंद अभिव्यक्त होता है बजने में। बजने के आगे कोई भी लक्ष्य नहीं है। बजने के पीछे जरूर प्राण हैं, लेकिन आगे कोई लक्ष्य नहीं है। मेरे बजने के पीछे कोई प्राण नहीं हैं, बजने के आगे लक्ष्य है।
    ऐसे ही दो तरह के जीवन होते हैं। जो आदर्श को आगे बांध कर जीवित होने की कोशिश करता है उसका जीवन वैसे ही है जैसे कोई गाय के सामने घास रख ले और चलने लगे, तो गाय उस घास की लालच में पीछे-पीछे चलती चली जाती है। चलती तो जरूर है, लेकिन यह चलता बिलकुल बंधन का चलना है। घास की आकांक्षा में बंधी-बंधी चलती है। इससे मुक्ति कभी नहीं आती। हम भी लक्ष्य बना कर जीवन को चलते हैं इसलिए बंध जाते हैं कभी मुक्त नहीं होते। अगर मुक्त होना है तो जीवन में आगे लक्ष्य रखने की जरूरत नहीं, पीछे जो छिपा है उसे प्रकट करने की जरूरत है। तब उसकी अभिव्यक्ति से जीवन निकलता है। तब उस आनंद से जो संगीत पैदा होता है वह संगीत ही मुक्ति और मोक्ष बन जाती है।
    इसलिए मैंने कहा, अनुकरण नहीं, आदर्श नहीं।

    — ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-10]

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