एटामिक साइंस के युग में आत्मा की साधना की कहाँ तक सार्थक/उपयोगी है?
Question
प्रश्न – अणु-युग में आत्मा की साधना कहां तक समर्थनीय है? आत्मा की साधना की क्या सार्थकता है? क्या समर्थता, क्या उसका समर्थन किया जा सकता है?
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प्रश्न – अणु-युग में आत्मा की साधना कहां तक समर्थनीय है? आत्मा की साधना की क्या सार्थकता है? क्या समर्थता, क्या उसका समर्थन किया जा सकता है?
Answer ( 1 )
अणु और आत्मा का कोई विरोध नहीं है, बल्कि अणु विज्ञान ने, एटामिक साइंस ने यह बात बड़े अदभुत रूप से सिद्ध कर दीः एक छोटे से अणु में परम शक्ति निवास करती है। एक छोटे से पदार्थ के खंड में जिसे हम आंख से भी न देख सकेंगे, जिसे बड़ी-बड़ी दूरबीनें भी देखनें में समर्थ नहीं हैं, जो इतना छोटा है अणुखंड कि अगर हम एक लाख अणुओं को एक के ऊपर एक रखते चले जाएं तो हमारे बाल की मोटाई के बराबर होंगे। एक लाख अणु एक के ऊपर एक रख दिए जाने पर हमारे बाल की मोटाई लेंगे, इतना छोटा सा जो अणु है, उसमें विज्ञान ने इतनी विराट शक्ति खोज निकाली है कि आज सारी दुनिया भयभीत है कि कहीं अणु बमों का विस्फोट हुआ तो फिर मनुष्य बच नहीं सकेगा। इसका क्या अर्थ है? इससे किस बात की सूचना मिलती है? इससे इस बात की सूचना मिलती है कि छोटे को छोटा मत समझ लेना, कोई छोटा, छोटा नहीं है, क्षुद्रतम में विराटतम छिपा हुआ है। जो क्षुद्रतम है उसमें विराट शक्ति का निवास है। क्षुद्र कुछ भी नहीं है, सभी कुछ विराट है। इससे यह खबर मिलती है। और इससे यह भी खबर मिलती है कि जब पदार्थ के एक अणु में इतनी ताकत है तो चेतना के एक अणु में कितनी शक्ति न हो सकेगी?
आत्मा चेतना का अणु है। जैसे पदार्थ को हमने खोजते-खोजते आखिरी जगह जाकर अणु को पकड़ लिया है, वैसे ही जिन लोगों ने चेतना की खोज की है, खोज करते-करते उन्होंने अंततः जाकर आत्मा के अणु को पकड़ लिया। आत्मा इकाई है चैतन्य की और अणु इकाई है पदार्थ की। विज्ञान अणु पर पहुंचा है, धर्म आत्मा पर। दोनों की खोजें हैं। दोनों की खोजें बड़ी वैज्ञानिक हैं। और ऐसी दुनिया में जब कि अणु खोज लिया गया है।
अणु तक जब तक मनुष्य नहीं पहुंचा था तब तक अगर आत्मा को न भी जानता तो चल सकता था, अब नहीं चल सकेगा। क्योंकि पदार्थ की शक्ति जिस मनुष्य के हाथों में आ गई हो विराट और अपने भीतर जो कुछ भी न जानता हो और अज्ञान से भरा हो, अज्ञान के हाथों में इतनी शक्ति खतरनाक ही सिद्ध हो सकती है, और क्या होगा? एक छोटे बच्चे को हम तलवार पकड़ा दें, तो क्या होगा? ऐसे ही छोटे से बच्चे को जो आत्मा की दृष्टि से बिलकुल बच्चा है, उस आदमी के हाथ में एटम आ गया है, क्या होगा? हिरोशिमा, नागासाकी होंगे। युद्ध होंगे, आज नहीं कल सारी दुनिया को डुबाने का आयोजन होगा। मनुष्य के हाथ में उतनी ही शक्ति शुभ है जितनी उसके भीतर शांति हो। भीतर शांति न हो बाहर शक्ति हो तो बहुत खतरनाक है यह मेल। और भीतर शांति पैदा होती है उसी मात्रा में जिस मात्रा में मनुष्य चेतना से परिचित होता है। बाहर शक्ति उपलब्ध होती है उसी मात्रा में जितना मनुष्य पदार्थ के अंतिम से अंतिम खंड को समझ पाता है। और भीतर शक्ति उपलब्ध होती है, शांति उपलब्ध होती है उसी मात्रा में जितना वह स्वयं की अंतिम से अंतिम, गहरी से गहरी अवस्था को समझ पाता है।
तो अब तो बहुत जरूरी है अगर आदमी ने आत्मा को न समझा, तो अणु को समझना बहुत महंगा पड़ जाने वाला है। इस नासमझ आदमी के हाथों में अणु सिवाय आत्मघात के और कुछ भी न बन सकेगा। शायद तुम्हें अंदाज भी न हो कि हमने अपने आत्मघात की बड़ी तैयारी कर रखी है। पचास हजार उदजन बम हमने बना रखे हैं, ये उदजन बम बहुत ज्यादा हैं। एक जमीन बहुत छोटी है, इस तरह की सात जमीनों को बिलकुल नष्ट कर देने के लिए काफी हैं। आदमी की संख्या तो बहुत थोड़ी है अभी, कोई तीन, साढ़े तीन अरब, इससे सात गुने आदमी हों तो उन सबको मारने का हमने इंतजाम कर रखा है।
अगर आदमी के भीतर कोई शांति का सुराग नहीं खोजा जा सका तो क्या होगा? यह सारी तैयारी का क्या होगा? एक राजनीतिज्ञ पागल हो जाए, और मजे की बात यह है कि बिना पागल हुए कोई राजनीतिज्ञ कभी कोई होता ही नहीं, और अगर एक राजनीतिज्ञ पागल हो जाए, तो सारी दुनिया के विनाश की ताकत उसके हाथ में है। और राजनीतिज्ञ को हम भलीभांति जानते हैं कि यह किस तरह का आदमी होता है? दुनिया अच्छी होगी तो इस तरह के आदमी का हम चिकित्सालय में इलाज करवाएंगे। लेकिन अभी हम उसको मुख्यमंत्री बनाते हैं, प्रधानमंत्री बनाते हैं। हमारे बीच जो आज सबसे रुग्ण मस्तिष्क का आदमी है उसके हाथ में सबसे ज्यादा ताकत है। और उस ताकत के पास विज्ञान ने अणु की शक्ति दे दी है, अब क्या होगा? अमरीका का एक राजनीतिज्ञ गुस्से में आ जाए, रूस का एक राजनीतिज्ञ गुस्से में आ जाए, क्या होगा? उसका गुस्सा सारी दुनिया की मौत बन सकता है। उसके हाथ में अपरिसीम ताकत मिल गई। इस ताकत के विरोध में सारे जगत मे आत्मिक शक्ति का अविर्भाव होना चाहिए। नहीं तो मनुष्य के जीवन के दिन बहुत इने-गिने हैं। यह जिंदगी बहुत दिन चलने वाली नहीं है। तैयारी हमारी पूरी हो गई है, विस्फोट किसी भी दिन हो सकता है।
इसलिए यह मत पूछो कि अणु-युग में आत्मा की साधना की क्या सार्थकता है? पुराने दिनों में आत्मा न भी साधी जाती तो चल जाता, लकड़ी वगैरह से लड़ाई करनी पड़ती थी, तीर-भाले चलाने पड़ते थे, कुछ बड़ा खतरा नहीं था, हिंसा बहुत सीमित थी। अशांत आदमी के पास बहुत बड़ी ताकत नहीं थी। लेकिन आज तो बहुत बड़ी ताकत है। और आदमी बिलकुल अशांत है। यह आदमी शांत होना चाहिए। इसका शांत हो जाना एकदम अपरिहार्य हो उठा है। एक क्षण भी इसे खोना खतरनाक है।
इसलिए दुनिया में जो भी विचारशील हैं उन्हें यह समझना होगा कि आत्मा की दिशा में जितना काम हो सके और जितनी तीव्रता से हो सके, और जितने लोगों के भीतर आत्मा की प्यास को, खोज को, गहराई को जगाया जा सके, और जितनी तीव्रता से जगाया जा सके, क्योंकि कोई हिसाब नहीं है कि क्षण हमारे हाथ में कितने हैं, उसी मात्रा में, उसी मात्रा में मनुष्य का भविष्य सुरक्षित हो सकता है। अणु की शक्ति खड़ी हो गई है, आत्मा की शक्ति को भी खड़ा करना जरूरी है। और यह बिना आत्मा की तरफ साधना किए नहीं होगा। इसलिए बहुत-बहुत जरूरी है आज, आज से ज्यादा जरूरी यह बात कभी भी नहीं थी, और शायद आगे भी कभी भी न हो। ये क्षण शायद मनुष्य के जीवन में सबसे बड़े संकट के, सबसे बड़ी क्राइसिस के दिन हैं। इसी वक्त अगर हम आत्मिक शक्ति को भी जगा सकें, तो अणु की शक्ति विनाश न बन कर सृजन बन सकती है। उससे बहुत बड़ा सृजन हो सकता है। शायद दुनिया में किसी आदमी के भूखे रहने की अब कोई जरूरत नहीं है। और न किसी आदमी को घातक बीमार होने की जरूरत है। और शायद इतनी जल्दी मरने की भी किसी को कोई जरूरत नहीं है।
अगर अणु की शक्ति का हम सृजनात्मक, क्रिएटिव उपयोग कर सकें, तो यह जमीन वह स्वर्ग बन सकती है जिसकी कहानियां पुराणों में हैं। यह जमीन वह स्वर्ग बन सकती है। इतनी बड़ी शक्ति हमारे हाथ में आ गई है। लेकिन अगर मन हमारा बेचैन और अशांत रहा, तो इसका हम एक ही उपयोग कर सकेंगे, और वह यह कि इसी में हम जल जाएं और नष्ट हो जाएं। जो ताकत सौभाग्य बन सकती थी, वही हमारा दुर्भाग्य बन जाएगी। जो शक्ति हमारे लिए वरदान सिद्ध होती वही अभिशाप हो सकती है। इसलिए बहुत-बहुत जरूरत है कि आत्मा की खोज उस दिशा में साधना हो और उसे पाया जाए। और बहुत लोगों के भीतर वह दीया जल सके।
— ओशो [अज्ञात की ओर-(प्रवचन-04) ]