क्या था ओशो का लक्ष्य? ओशो ने आध्यात्म के लिए जो किया उसका कारण क्या था?
Question
प्रश्न – पूछा है कि आपका अंतिम ध्येय या लक्ष्यांत क्या है? मुझसे पूछा है कि मेरा क्या लक्ष्य है?
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प्रश्न – पूछा है कि आपका अंतिम ध्येय या लक्ष्यांत क्या है? मुझसे पूछा है कि मेरा क्या लक्ष्य है?
Answer ( 1 )
मेरा कोई लक्ष्य नहीं है। इसलिए कोई लक्ष्य नहीं है…। इसे थोड़ा समझना जरूरी है। जीवन में दो तरह की क्रियाएं होती हैं। एक क्रिया होती है, जो वासना से उदभूत होती है। एक क्रिया होती है, जो वासना से उदभूत होती है; उसमें लक्ष्य होता है। और एक क्रिया होती है, जो प्रेम से या करुणा से उदभूत होती है; उसमें कोई लक्ष्य नहीं होता। अगर किसी मां से कोई पूछे कि तुम अपने बच्चे को प्रेम करती हो, इसमें लक्ष्य क्या है? तो मां क्या कहेगी? मां कहेगी, लक्ष्य का कोई पता नहीं। बस हम प्रेम करते हैं और प्रेम करना आनंद है। यूं भी नहीं कि आज प्रेम करेंगे, तो कल आनंद मिलेगा। प्रेम किया, वह आनंद था।
तो एक तो क्रिया होती है, जो वासना से उदभूत होती है। मैं यहां बोल रहा हूं। मैं इसलिए बोल सकता हूं कि इस बोलने से मुझे कुछ मिलेगा। फिर चाहे वह मिलना रुपए के सिक्कों में हो, यश के सिक्कों में हो, आदर के सिक्कों में हो, प्रतिष्ठा के रूप में हो–वह मिलना किसी रूप में हो–मैं इस कारण से बोल सकता हूं कि मुझे कुछ मिलेगा। तो वह लक्ष्य होगा।
मैं केवल इस कारण से बोल सकता हूं कि मैं बिना बोले नहीं रह सकता, कुछ हुआ है भीतर और वह बंटने को उत्सुक है। मैं इसलिए बोल सकता हूं, जैसे कि फूल खिल जाते हैं और अपनी गंध फेंक देते हैं। उनसे कोई पूछे, लक्ष्य क्या है? कोई भी लक्ष्य नहीं है।
वासना से कुछ क्रियाएं उदभूत होती हैं, तब उनमें लक्ष्य होता है। करुणा से भी कुछ क्रियाएं उदभूत होती हैं, तब उनमें कोई लक्ष्य नहीं होता। और इसीलिए वासना से जो क्रियाएं उदभूत होती हैं, उनसे कर्म-बंध होता है। और करुणा से जो क्रियाएं उदभूत होती हैं, उनसे कर्म-बंध नहीं होता। जिस क्रिया में लक्ष्य होगा, उसमें बंध होगा; और जिस क्रिया में कोई लक्ष्य नहीं होगा, उसमें बंध नहीं होगा।
और यह जानकर आप हैरान होंगे, आप बुरा काम बिना लक्ष्य के नहीं कर सकते हैं। यह एक अदभुत बात है। पाप में हमेशा लक्ष्य होगा, पुण्य में कोई लक्ष्य नहीं होता है। और जिस पुण्य में भी लक्ष्य हो, वह पाप का ही रूप है। पाप में हमेशा लक्ष्य होता है, बिना लक्ष्य के कोई पाप नहीं कर सकता। लक्ष्य के रहते भी करने में मुश्किल पड़ती है, बिना लक्ष्य के तो कर ही नहीं सकता। मैं आपकी बिना लक्ष्य के हत्या नहीं कर सकता हूं। क्यों करूंगा? पाप बिना लक्ष्य का कभी नहीं हो सकता। क्योंकि पाप करुणा से कभी नहीं हो सकता। पाप हमेशा वासना से होगा। वासना में हमेशा लक्ष्य होगा; कुछ पाने की आकांक्षा होगी।
कुछ क्रियाएं हैं, जिनमें पाने की कोई आकांक्षा नहीं होती है। महावीर को कैवल्य उत्पन्न हुआ, उसके बाद वे चालीस-पैंतालीस वर्षों तक सक्रिय थे। पूछा जा सकता है, उतने दिनों उन्होंने क्रिया की, उसका बंध क्यों नहीं हुआ? उतने दिन तक वे काम तो कर ही रहे थे–भोजन भी करते थे, जाते भी थे, आते भी थे, बोलते भी थे, बताते भी थे–चालीस-पैंतालीस वर्षों तक निरंतर सक्रिय थे, तो उस क्रिया का उन पर फल क्यों नहीं हुआ? बुद्ध को निर्वाण उपलब्ध हुआ, उसके बाद वे भी चालीस वर्षों तक सक्रिय थे। उसका बंध क्यों नहीं हुआ? क्योंकि उस सक्रियता में कोई लक्ष्य नहीं था। लक्ष्य-शून्य क्रियाएं थीं वे और मात्र करुणा थीं।
मैं कई दफा सोचता हूं कि मैं आपसे क्यों बोल रहा हूं? इसमें क्या प्रयोजन हो सकता है? मुझे कोई प्रयोजन खोजे नहीं मिलता, सिवाय इसके कि मुझे कुछ दिखायी पड़ रहा है और यह एक मजबूरी है कि उसे बिना कहे नहीं रहा जा सकता है। क्योंकि उसे बिना कहे केवल वही रह सकता है, जिसमें हिंसा शेष रह गयी हो। वह हिंसा होगी।
मैंने सुबह आपको एक कहानी कही। अगर आपके हाथ में एक सांप को लिए हुए मैं देखूं और आपसे बिना कुछ कहे अपने रास्ते चला जाऊं कि मेरा लक्ष्य क्या है! तो यह तभी संभव है, जब मेरे भीतर अति हिंसा हो, अति क्रूरता हो। अन्यथा मैं कहूंगा कि ‘यह सांप है, इसे छोड़ दें।’ और कोई अगर मुझसे पूछे कि ‘आप क्यों कह रहे हैं कि यह सांप है, इसे छोड़ दें? आपका क्या लक्ष्य है?’ तो मैं कहूंगा, ‘कोई भी लक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि मेरी अंतरात्मा को संभव नहीं है कि इस स्थिति में बिना कहे रह जाए।’ यानि उत्प्रेरणा बाहर नहीं है कि कोई लक्ष्य हो, प्रेरणा आंतरिक है, जिसका कोई लक्ष्य नहीं होता।
हैरान होंगे आप, जब भी लक्ष्य होता है, तो प्रेरणा कहीं बाहर होती है। और जब कोई लक्ष्य नहीं होता, तो प्रेरणा कहीं भीतर होती है। यानि कुछ चीजें होती हैं, जो हमें खींचती हैं, तब लक्ष्य होता है। और कुछ चीजें होती हैं, जो हमें भीतर से धकाती हैं, तब कोई लक्ष्य नहीं होता।
करुणा और प्रेम हमेशा लक्ष्य-शून्य हैं और वासना और इच्छा हमेशा लक्ष्यपूर्ण हैं। इसलिए ज्यादा ठीक होता है कहना कि वासना खींचती है, खींचती है बाहर से, जैसे मैं रस्सी बांधकर आपको खींचूं। यह खींचना है। वासना खींचती है, जैसे रस्सी की तरह कोई बांध ले और खींचे।
इसलिए वासना जिसके भीतर है, उसे हमारे ग्रंथ ‘पशु’ कहते हैं। पशु का अर्थ है, जो पाश से बंधा है; जो किसी चीज से बंधा है और खींचा जा रहा है। पशु का मतलब जानवर, एनीमल नहीं है। पशु का मतलब है, जो किसी पाश से बंधा है और खींचा जा रहा है।
तो जब तक हमें कोई लक्ष्य खींच रहा है कोई वासना का, तब तक हम पाश से बंधे हैं और पशु हैं और मुक्त नहीं हैं। मुक्ति जो है, पशु का विरोधी शब्द है। मोक्ष जो है, पशुता का विरोधी शब्द है। क्योंकि पशु का अर्थ है, बंधन में बंधे हुए खिंचे जाना। और मुक्त का अर्थ है, किसी बंधन से न खिंचना, अपने भीतर से गति को उत्पन्न कर लेना।
मुझे कोई लक्ष्य नहीं है। इसलिए अगर इसी वक्त मेरा प्राण निकल जाए, तो मुझे एक क्षण को भी ऐसा नहीं लगेगा कि कोई काम अधूरा रह गया है। अगर इसी वक्त मर जाऊं यहीं बैठे-बैठे, तो एक क्षण को भी यह खयाल नहीं आएगा कि जो बात मैं कह रहा था, वह अधूरी रह गयी। क्योंकि कोई काम तो था ही नहीं उसमें; कुछ पूरा करने का कोई प्रश्न नहीं था। जब तक श्वास थी, वह काम पूरा हुआ। नहीं श्वास रही, तो वह काम वहीं रह गया। उसमें कोई प्रयोजन नहीं था, कुछ अधूरा नहीं रहा।
तो कोई लक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि एक अंतःप्रेरणा है, एक आंतरिक मजबूरी है, एक आंतरिक विवशता है। और उससे जो कुछ होगा, वह होगा। ऐसी स्थिति को हम अपने मुल्क में यह कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति ने अपने को ईश्वर के हाथ में सौंप दिया। अब ईश्वर की जो मर्जी हो, उससे करा ले। उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं है। यह कहने का ढंग भर है कि ईश्वर की मर्जी जो हो, उससे करा ले। इसका मतलब केवल इतना ही है कि उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं रहा। उसने अनंत सत्ता के हाथ में अपने जीवन को छोड़ दिया है। अब जो होगा, वह होगा। वह अनंत सत्ता की जिम्मेवारी है, उसकी अपनी कोई जिम्मेवारी नहीं है।
यह जो आपने पूछा, यह अच्छा ही पूछा। इस माध्यम से मैं आपसे यह कहना चाहूंगा कि जीवन को वासना से करुणा में परिणत करें। एक ऐसा जीवन बनाएं, जिसमें लक्ष्य तो न रह जाए, एक अंतःप्रेरणा प्रविष्ट हो जाए। एक ऐसा जीवन बनाएं, जिसमें कुछ पाने की तो आकांक्षा न रह जाए, कुछ देने की आकांक्षा प्रबल हो जाए। जिसको मैंने प्रेम कहा–पाना नहीं, देना। और प्रेम में कोई लक्ष्य नहीं होता, सिवाय इसके कि हम देते हैं। जिसको मैंने प्रेम कहा, उसको ही मैंने दूसरे शब्दों में करुणा कहा। तो आप कह सकते हैं–कह सकते हैं कि कोई लक्ष्य नहीं है, सिवाय इसके कि प्रेम है। और प्रेम का कोई लक्ष्य नहीं होता, क्योंकि प्रेम स्वयं अपना लक्ष्य है।
— ओशो (ध्यान सूत्र | प्रवचन–03)
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