क्या धार्मिक होने के लिए नैतिक होना जरुरी है? अच्छे काम करना, अच्छी वृत्ति रखना, अच्छा आचरण होना, सत्य बोलना, अहिंसक होना, दयालु होना, अपरिग्रही होना; क्या इन सब से आदमी धार्मिक बन सकता है?
Question
प्रश्न – पूछा है कि धार्मिक होने के लिए नैतिक होना तो कम से कम जरूरी है। आदमी को नैतिक होने की कोशिश तो करनी ही चाहिए। चेष्टा तो करनी चाहिए कि आदमी नैतिक हो जाए। अच्छे काम करे, अच्छी वृत्ति रखे, अच्छा आचरण हो, सत्य बोले, अहिंसक हो, दयालु हो, अपरिग्रही हो, यह तो होना चाहिए, नैतिक तो होना चाहिए।
Answer ( 1 )
हजारों साल से यही कहा जाता रहा है कि नीति जो है वह धर्म की सीढ़ी है। यह बात सौ प्रतिशत झूठ है। नीति धर्म की सीढ़ी नहीं है, नीति धर्म का फूल है, सुगंध है। नीति धर्म की सीढ़ी नहीं है। नीति धर्म का परिणाम है।
धार्मिक व्यक्ति के जीवन में नैतिकता होती है। लेकिन कोई नैतिक हो जाए, तो उसके जीवन में तो नैतिकता भी नहीं होती और धर्म भी नहीं होता। क्योंकि नैतिकता होने की जो चेष्टा है, नैतिक होने का जो प्रयास है, वह इसी बात की खबर है कि आदमी अनैतिक है, और अनीति के ऊपर नीति को थोपने में संलग्न है। भीतर हिंसा है, ऊपर से अहिंसा को थोप रहा है। जिसके भीतर हिंसा नहीं है, क्या वह अहिंसक होने की चेष्टा करेगा? जिसके भीतर चोरी नहीं है, क्या वह चोरी से बचने की कोशिश करेगा? जिसके भीतर असत्य नहीं है, क्या वह सत्य को बोलने का प्रयत्न करेगा? असत्य है भीतर और सत्य को बोलने का जो प्रयत्न है वह उस असत्य को नहीं मिटा सकता, केवल ऊपर से सत्य का एक आवरण खड़ा कर देगा, भीतर असत्य रहेगा मौजूद, सप्रेस, दबा हुआ, भीतर छिपा हुआ। ऊपर हो जाएगा सत्य का आचरण और अंतस हो जाएगा एकदम असत्य। ऐसे व्यक्ति का चित्त द्वंद्व से, कांफ्लिक्ट से भर जाएगा, वह चौबीस घंटे अपने से ही लड़ेगा। दुर्जन, अनैतिक व्यक्ति लड़ता है समाज से और नैतिक व्यक्ति लड़ता है अपने से, लेकिन लड़ाई दोनों की जारी रहती है।
अनैतिक आदमी पकड़ जाता है, तो हम डाल देते हैं कारागृह में और नैतिक आदमी खुद ही अपना कारागृह बना लेता है, उसे किसी कारागृह में डालने की जरूरत नहीं होती। वह खुद अपना इनप्रिजनमेंट है। वह खुद ही चौबीस घंटे मरा जा रहा है, लड़ा जा रहा है अपने आपसे। उसकी नीति सहज नहीं है। वह स्पांटेनियस नहीं है, वह स्वस्फूर्त नहीं है; वह थोपी गई, दबाई गई, जबरदस्ती लादी गई। तब, तब ऊपर से एक रूप, भीतर से दूसरा मनुष्य खड़ा हो जाता। और यह जो भीतर छिपा है यह ज्यादा असली है। क्योंकि जो आपने बनाया है, वह आपका बनाया हुआ है और यह असली आपको उपलब्ध हुआ है, इसको आपने बनाया नहीं। यह जो हिंसक है, यह भीतर बैठा हुआ है, यह आपने बनाया नहीं, यह आपको मौजूद मिला है, और अहिंसक आप बन गए हैं। तो ऊपर से अहिंसा, भीतर हिंसा। और तब यहां तक नौबत आ सकती है कि अहिंसा की रक्षा के लिए जरूरत पड़ जाए, तो ऐसा अहिंसक आदमी तलवार उठा ले और कहे कि अहिंसा की रक्षा के लिए हत्या कर दूंगा तुम्हारी।
अहिंसा की रक्षा के लिए भी वह हिंसा कर सकता है। और फिर उसकी हिंसा नये-नये रास्ते खोजेगी निकलने के। क्योंकि भीतर जो दबा है वह मार्ग खोजेगा, वह जाएगा कहां? तो फिर पाखंड पैदा होता है। नैतिक आदमी की जो जबरदस्ती नैतिक होने की कोशिश है वही पाखंड का जन्म है। फिर पाखंड पैदा होता है। फिर वह पीछे के रास्ते खोजता है उन्हीं बातों को करने के लिए जिनको सामने के रास्ते उसने अपने हाथ से बंद कर लिए।
लंदन में शेक्सपियर का एक नाटक चलता था। लंदन का जो आर्च-प्रीस्ट था, सबसे बड़ा पादरी था, सबसे बड़ा धर्मगुरु था, अनेक लोगों ने आकर उससे प्रशंसा की, बहुत अदभुत नाटक है, हद्द कुशलता प्रकट की है अभिनेताओं ने। उसके मन में भी लालच हुआ। आखिर पादरी या धर्मगुरु भी तो आदमी ही है, उसके मन में भी रस पैदा होता है। उसके मन में रस हुआ कि मैं भी देखूं। लेकिन वह तो निरंतर लोगों को समझाता था कि नाटक, सिनेमा, यह सब क्या है, यह सब व्यर्थ है, इसमें मत जाओ, यह सब पाप है। अब वह खुद जाना चाहे तो कैसे जाए? उसने नाटक के मैनेजर को एक पत्र लिखा, पूछा पत्र में, देखने आना चाहता हूं मैं भी, लेकिन नहीं चाहता कि कोई मुझे देखे। पीछे का कोई दरवाजा नहीं है? नाटक में पीछे का कोई दरवाजा नहीं है कि मैं चुपचाप आ जाऊं और निकल जाऊं, लोग मुझे न देख पाएं? बड़ी कृपा होगी, अगर पीछे के द्वार कोई हों और मुझे आने की अनुमति मिल जाए।
उस थिएटर के मैनेजर ने उसे वापस पत्र लिखा और कहा, ऐसा पीछे का दरवाजा है। पहले तो नहीं था, लेकिन बनाना पड़ा। सज्जनों के आने के लिए व्यवस्था करनी पड़ी। और अक्सर धर्मगुरुओं को तो आना ही पड़ता है इसलिए रास्ता बना लिया है। आप खुशी से आएं, बड़ा स्वागत है। लेकिन एक बात बता दूं, ऐसा दरवाजा तो है कि आदमियों को पता नहीं चलेगा कि आप आए हैं। लेकिन ऐसा कोई भी दरवाजा नहीं कि परमात्मा को पता न चले। फिर आपकी मर्जी। और अगर आप सोचते हों कि परमात्मा पता नहीं, है भी या नहीं, तो भी ऐसा कोई दरवाजा नहीं कि आपको खुद पता न चले, आपको तो पता चलेगा ही। वैसे आप आएं, हम स्वागत करते हैं।
नैतिक आदमी पीछे का दरवाजा खोजता है। इसलिए नैतिकता के केंद्र पर बने हुए समाज पाखंडी हो जाते हैं, हिपोक्रेट हो जाते हैं। हमारा ही समाज एक उदाहरण है। तीन हजार साल से हम नैतिकता की शिक्षा थोप रहे हैं। नैतिकता की शिक्षा चिल्ला-चिल्ला कर हम परेशान हो गए। पत्थर-पत्थर पर हमने खोद दी है सब धर्म-वाक्य। आदमी-आदमी के दिल पर हमने रामकथा थोप दी है। एक-एक बच्चे को हमने पीला दिए हैं सब पाठ नैतिकता के बिलकुल दूध के साथ। लेकिन आदमी हमारा? ऐसा आदमी जमीन पर मिलना मुश्किल है इतना अनैतिक आदमी जैसा हमने पैदा किया है। और हम सब एक नाव पर सवार हैं। कोई ऐसा नहीं है कि एक आदमी अनैतिक है। हम सब एक ही नाव पर सवार हैं। इतनी नैतिकता की शिक्षा के बाद यह फल निकला? यह हमारा समाज?
मैंने सुना है, एक स्कूल में एक दिन सुबह-सुबह ही एक इंस्पेक्टर निरीक्षण के लिए आया। भीतर घुसते ही कक्षा में उसने कहा बच्चों से, निरीक्षण करने को आया हूं, तीन प्रश्न मुझे पूछने हैं। तुम्हारी कक्षा में जो सबसे ज्यादा अग्रहणी तीन विद्यार्थी हों, वे क्रमशः खड़े हो जाएं। एक-एक आता जाए, प्रथम नंबर का विद्यार्थी, फिर द्वितीय, फिर तृतीय और प्रश्न को हल कर दे। प्रथम जो उस कक्षा का विद्यार्थी था वह उठा, बोर्ड के पास आया, सवाल लिख दिया गया, उसने उत्तर लिख दिया, अपनी जगह जाकर बैठ गया। फिर नंबर दो का विद्यार्थी आया, उसको भी सवाल दिया गया, उसने भी सवाल हल किया, वह भी अपनी जगह बैठ गया। फिर नंबर तीन का विद्यार्थी उठा, लेकिन तीन नंबर का विद्यार्थी उठते ही थोड़ा झिझका, थोड़ा सकुचाया, पैर भी बढ़ाए तो थोड़े संकोच से। फिर बोर्ड पर आकर डरा-डरा सा चॉक लेकर लिखने को था कि तभी इंस्पेक्टर को खयाल आया कि यह लड़का तो वही है जो नंबर एक आकर सवाल हल कर गया था। उसने उसका कान पकड़ा और कहा कि बेईमान, तू धोखा देने की कोशिश कर रहा है, क्या तू वही नहीं जो पहले भी सवाल हल कर गया? तू फिर से कैसे आ गया?
उस विद्यार्थी ने कहा, माफ करिए, निश्चित ही मैं वही हूं, लेकिन आज हमारी कक्षा का जो तीसरे नंबर का विद्यार्थी है वह क्रिकेट का खेल देखने चला गया और वह मुझसे कह गया, मेरी कोई जरूरत पड़ जाए, मेरी जगह कुछ काम पड़ जाए तो कर देना। मैं उसकी जगह आया हुआ हूं।
उस इंस्पेक्टर ने कहा, हद्द हो गई, परीक्षा भी किसी की जगह कोई दे सकता है? यह तो बुरी अनैतिक बात है। और विद्यार्थी को उसने डांटा और समझाया कि ऐसी भूल अब कभी मत करना। और तब, शिक्षक खड़ा था बोर्ड के पास चुपचाप, इंस्पेक्टर उसकी तरफ मुड़ा और कहा, महाशय, हो सकता था मैं तो न भी पहचान पाता और धोखा हो जाता, लेकिन आप कैसे चुपचाप खड़े देख रहे हैं? आप भी सम्मिलित हैं इस बेईमानी में?
उस शिक्षक ने कहा, माफ करिए, मैं इस कक्षा का शिक्षक नहीं हूं, मैं बगल की कक्षा का शिक्षक हूं, इस कक्षा का शिक्षक क्रिकेट का खेल देखने चला गया। वह मुझसे कह गया, जरूरत पड़ जाए तो जरा मेरी क्लास देख लेना। तो मैं उसकी जगह खड़ा हुआ हूं। अब तो इंस्पेक्टर के क्रोध का कोई ठिकाना न रहा। उसने कहा, यह तो हद्द हो गई। बच्चे तो बच्चे शिक्षक भी, शिक्षक भी यही कर रहे हैं। एक-दूसरे की जगह खड़े हुए हैं। यह क्या बेईमानी है? यह क्या शिक्षा दी जा रही है? यह क्या अनैतिकता सिखाई जा रही है अभी से? शिक्षक भी थरथर कांपने लगा। बच्चे भी डर आए। नौकरी का भी खतरा था। उसने हाथ जोड़े, पैर पड़े। इंस्पेक्टर उसे लेकर बाहर आ गया। फिर इंस्पेक्टर को दया आ गई, उसने कहा, घबड़ाओ मत, चिंतित मत होओ, तुम्हारे भाग्य, मैं असली इंस्पेक्टर नहीं हूं। असली इंस्पेक्टर क्रिकेट का खेल देखने चला गया, मैं उसका मित्र हूं।
हम सब एक नाव पर सवार हैं। इसमें नीचे के आदमी से लेकर राष्ट्रपति तक सब सम्मिलित हैं। एक ही नाव पर सम्मिलित हैं। इसमें गरीब से लेकर अमीर तक; अनुयायियों से लेकर नेताओं तक; गृहस्थियों से लेकर संन्यासियों तक, सब सम्मिलित हैं। हम सब एक नाव पर सवार हैं। और यह सवारी इसलिए पैदा हो गई है कि हम हजारों साल से जबरदस्ती नैतिक होने की कोशिश कर रहे हैं। जबरदस्ती नैतिक होने का यह दुष्परिणाम हुआ है। नैतिक तो हम नहीं हो पाए पाखंडी हम जरूर हो गए हैं।
नीति ऐसे नहीं आती, नीति के आने का रास्ता दूसरा ही है। अनैतिकता लक्षण है, नैतिकता भी एक लक्षण है। आदमी का शरीर गरम हो जाता है, तो हम समझते हैं आदमी बीमार हो गया। बुखार बीमारी नहीं है, केवल बीमारी का लक्षण है। फीवर चढ़ गया, तापमान लक्षण है, केवल सूचना है। आदमी भीतर बीमार है। शरीर का गरम हो जाना खुद कोई बीमारी नहीं है, बीमारी कुछ और है। उस बीमारी के कारण शरीर गरम हुआ है। गर्मी तो केवल सूचक है। खबर देती है कि शरीर कहीं रुग्ण है। इसलिए तापमान बढ़ गया। बढ़े तापमान के कारण हमें पता चलता है कि शरीर कहीं रुग्ण है। लेकिन अगर हम इस बढ़े हुए तापमान को ही बीमारी समझ लें और आदमी को ठंडे पानी से नहलाने लगें कि इसकी गर्मी उतार दें, मामला खतम हो जाएगा, गर्मी बीमारी है। बीमारी तो नहीं खतम होगी, बीमार जरूर खतम हो जाएगा। लक्षण बीमारियां नहीं होते, लक्षण तो सूचनाएं होते हैं।
एक आदमी चोर है, बेईमान है, असत्य बोलता है, हिंसक है, ये सिर्फ लक्षण हैं। तापमान है, भीतर आदमी की आत्मा अस्वस्थ है, ये उसकी खबरें हैं। इनको बदलने से कुछ भी नहीं हो सकता। ये तो केवल सूचनाएं हैं कि आत्मा अस्वस्थ है, अज्ञान में है। एक ही अस्वास्थ्य है, आत्मा का अज्ञान। अज्ञान के ये लक्षण हैं। अज्ञान होता है भीतर, तो बाहर होती है अनैतिकता। अनैतिकता को नहीं मिटाना है। वह तो केवल लक्षण है। मिटाना है अज्ञान को। अज्ञान के मिटते ही अनैतिकता मिट जाती है। और जब भीतर ज्ञान होता है तो बाहर नैतिकता होती है। अज्ञान का लक्षण है अनैतिकता, ज्ञान का लक्षण होती है नैतिकता। भीतर होता है ज्ञान तो जीवन हो जाता है नैतिक। लेकिन हम जड़ों को नहीं देखते, हम पत्तों पर मेहनत करते हैं, इसलिए सारी मेहनत व्यर्थ हो जाती है।
एक व्यक्ति ने अपने बचपन का संस्मरण लिखा है, उसने लिखा है: जब मैं छोटा था, तो मेरी मां की एक बहुत बड़ी बगिया थी। उस बगिया में ऐसे सुंदर फूल खिलते थे कि दूर-दूर से लोग उन्हें देखने आते और प्रशंसा करते। फिर मेरी मां बूढ़ी हो गई और बीमार पड़ी। एक बार लंबी बीमारी, कोई महीने भर उसे बिस्तर पर रहना पड़ा। वह बहुत चिंतित थी, बीमारी के लिए नहीं, अपने फूलों के लिए। और मैं अकेला ही उसका लड़का था और छोटी मेरी उम्र थी। फिर मैंने अपनी मां को कहा, चिंतित मत होओ, मैं फूलों की सम्हाल कर लूंगा। मैं फिकर कर लूंगा। तुम निश्चिंत रहो। तुम्हारे फूल नहीं मुरझा पाएंगे। और फिर वह युवक दिन-रात मेहनत करता रहा जाकर बगिया में। एक-एक फूल की धूल झाड़ता, एक-एक फूल को चूमता, एक-एक फूल को प्यार करता। महीने भर बाद जब उसकी मां उठी, तब तक बगिया बर्बाद हो चुकी थी। सब फूल कुम्हला चुके थे, पौधे मरने के करीब आ गए थे। सब पत्ते दीन-हीन हो गए थे।
उसकी मां ने देखा, तो वह हैरान हो गई, उसने कहा, तू क्या करता था सुबह से सांझ तक? दिन-रात तो तू बगिया में रहता था, तूने किया क्या? वह लड़का रोने लगा, उसकी आंख से आंसू टपकने लगे, उसने कहा, मैंने सब कुछ किया–एक-एक फूल को चूमा, एक-एक फूल को सम्हाला, एक-एक फूल को पानी से नहलाता था, पता नहीं क्या हुआ, यह बगिया तो सूखती चली गई!
उसकी मां हंसने लगी, उसने कहा, पागल, फूलों के प्राण फूलों में नहीं होते, उन जड़ों में होते हैं जो दिखाई नहीं पड़तीं। पानी जड़ों को देना पड़ता है, फूलों को नहीं। जड़ों को पानी मिल जाता है, फूल अपने आप युवा बने रहते हैं। और फूलों को जो पानी देगा, उसके फूल तो मरेंगे ही, जड़ें भी मर जाएंगी। फूलों को पानी देने से जड़ों को पानी नहीं मिलता। जड़ों को पानी देने से जरूर फूलों को पानी मिल जाता है। लेकिन जड़ें दिखाई नहीं पड़तीं, फूल दिखाई पड़ते हैं। आत्मा दिखाई नहीं पड़तीं, आचरण दिखाई पड़ता है। आचरण सिर्फ फूल है। आत्मा में जड़ें हैं। जो फूलों को सम्हालता है, फूल तो उसके मिट ही जाते हैं। और जब फूल नहीं सम्हल पाते, तो फिर बाजार में कागज के, प्लास्टिक के फूल मिलते हैं, उन्हीं को ले आता है, फिर उन्हीं से खुद को सजा लेता है। फिर पाखंड पैदा हो जाता है।
आत्मा को सम्हालना है, शेष सब अपने से सम्हल जाता है। और शेष सबको जो सम्हालता है, वह शेष सब तो खो ही जाता, आत्मा भी खो जाती है। इसलिए नीति नहीं, धर्म, ताकि नीति का जन्म हो सके। नीति सुगंध है धार्मिक जीवन की। स्वयं को जानना है।
— ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-08]