क्या मूर्ति की पूजा करना, भगवान की स्तुति करना, मंदिर जाना आदि ही धर्म है? सही अर्थों में धर्म क्या है?

Question

प्रश्न – कुछ मित्रों ने पूछा है कि मैंने कहा कि मंदिर में जाना धर्म नहीं है, मूर्ति की पूजा करना धर्म नहीं है, भगवान की स्तुति करना खुशामद है, अगर ऐसा है तब तो फिर धर्म कुछ बचता ही नहीं। विश्वास भी करना नहीं, पूजा भी करनी नहीं, प्रार्थना भी करनी नहीं, मंदिर भी जाना नहीं, तब तो फिर धर्म बचता नहीं।

Answer ( 1 )

  1. लेकिन शायद मेरी बात समझ में नहीं आई। अगर मेरी बात समझ में आ जाए जो इन सबको छोड़ कर जो बच रहता है वही धर्म है। नहीं समझ में आई उसके कारण हैं। पहली बात, मैंने आपसे यह कहा कि मूर्ति को पूजना धर्म नहीं है, उसका क्या अर्थ? उसका यह अर्थ कि जो व्यक्ति मनुष्य निर्मित मूर्तियों से बंध जाता है वह उस परमात्मा को कभी नहीं जान सकेगा जो कि मनुष्य निर्मित नहीं है।
    यह मूर्ति भगवान नहीं है। यह मूर्ति तो मनुष्य की बनाई हुई है। और मनुष्य क्या भगवान को बना सकता है? मनुष्य भगवान को बना सके तब तो बड़ा आश्चर्य पैदा हो जाए। मनुष्य अपने को मिटा ले तो भगवान को जान सकता है लेकिन भगवान को बना ले तब तो न स्वयं को जान सकता है और न भगवान को जान सकता है। भगवान को पाने का रास्ता भगवान बनाना नहीं है बल्कि खुद को मिटाना है।
    मनुष्य अपने को मिटा ले उसकी हम कल सुबह बात करेंगे कि वह कैसे अपने को मिटा ले, वह न हो जाए।
    कल संध्या मैं जहां बोलने गया था, तो मेरे सामने ही एक तख्ती पर लिखा हुआ था: गॉड इज़ एवरीथिंग एंड मैन इज़ समथिंग। लिखा था: ईश्वर सब कुछ है और मनुष्य थोड़ा कुछ, समथिंग। गलत है यह बात। गॉड इज़ एवरीथिंग एंड मैन इज़ नथिंग। ईश्वर सब कुछ है, मनुष्य कुछ भी नहीं है।
    यह समथिंग जानने का जो भ्रम है कि मैं कुछ हूं, यही अस्मिता, यही अहंकार, यही ईगो, मनुष्य कुछ है यह जानने का जो खयाल है, यह एकदम भ्रामक है। जिस दिन मनुष्य जान पाता है कि मैं तो कुछ भी नहीं हूं, उसी क्षण वह जान लेता है कि परमात्मा सब कुछ है। ये अनुभव एक साथ घटित होते हैं। जिस क्षण मनुष्य जानता है मैं कुछ भी नहीं हूं, उसी क्षण, तत्क्षण जान लेता है कि परमात्मा सब कुछ है। और जब तक वह जानता है मैं कुछ हूं, तब तक परमात्मा के द्वार बंद हैं, वे नहीं खुलेंगे। यह अहंकार बाधा बन जाएगा, रुकावट बन जाएगा।
    और यही अहंकार बनाता है मंदिर, यही अहंकार गढ़ता है मूर्तियां, यही अहंकार निर्मित करता है संप्रदाय। इसीलिए तो संप्रदाय लड़ते हैं। अगर संप्रदाय धर्म होते तो लड़ाई कैसे संभव थी? लड़ाई तो वहीं होती है जहां अहंकार होता है, नहीं तो लड़ाई नहीं होती। जहां अहंकार है वहां युद्ध है, वहां संघर्ष है। अहंकार लड़ाता है। मैं कुछ हूं, आप भी कुछ हैं, फिर लड़ाई होनी जरूरी है। यह सारा का सारा खेल जो हमें दिखाई पड़ता है हम सोचते हैं धर्म है, इसलिए डर पैदा होता है। कौन से मंदिर में धर्म है? और अगर मंदिरों में धर्म हो तब जमीन पर बहुत धर्म होता है क्योंकि मंदिर बहुत हैं। मंदिरों की कोई कमी है? सारी पृथ्वी मंदिर, चर्चों और मस्जिदों से भरी है। धर्म कहां है लेकिन? अगर इनसे धर्म होता तो और हम थोड़े मंदिर और चर्च बना लें तो धर्म बढ़ जाए, लेकिन हालत उलटी है, जितने मंदिर बढ़ते हैं उतना अधर्म बढ़ता है। हालत उलटी है, मंदिर और चर्चों के बढ़ने से धर्म नहीं बढ़ा। इनमें जाने वाले लोग धार्मिक हैं? अगर इनमें जाने वाले लोग धार्मिक हैं तो वे कौन से मुसलमान थे जिन्होंने हिंदुओं की हत्या की? और वे कौन से हिंदू हैं जो मुसलमानों की हत्या करते हैं? वे कौन से कैथेलिक हैं जो प्रोटेस्टेंट को मारते रहे हैं? वे कौन से प्रोटेस्टेंट हैं जो उनके दुश्मन हैं? इन मंदिरों और मस्जिदों में जाने वाले लोग अगर धार्मिक हैं तो फिर ये धर्म के नाम पर इन मंदिरों और मस्जिदों से निकली हुई हत्याओं का ब्योरा कौन देगा? कौन करेगा यह हिसाब? इतनी हत्या फिर किसके सिर जाएगी?
    नहीं साहब, यह मंदिर और मस्जिद में जाने वाला आदमी बड़ा खतरनाक है। यह किसी भी दिन आग लगवा सकता है। क्योंकि जिस दिन यह चुनता है कि यह मंदिर धर्म का है उसी दिन यह कहने लगता है कि दूसरा जो चर्च है और मस्जिद है वह धर्म की नहीं है। और जो धर्म का नहीं है उसको मिटाना इसका कर्तव्य हो जाता है। जिस दिन यह चुनाव करता है कि यह मस्जिद भगवान की है, उसी दिन यह कह देता है यह जो मंदिर है मूर्ति वाला यह भगवान का नहीं शैतान का है। इसकी च्वाइस, इसके चुनाव में घोषणा हो गई दूसरे के अधर्म होने की, अब लड़ाई शुरू होगी।
    और यह जो आदमी एक मंदिर को सोचता है कि यहां जाने से मैं धार्मिक हो जाऊंगा, इससे ज्यादा बचकानी और चाइल्डीश कोई बात हो सकती है? एक आदमी तेईस घंटे अधार्मिक है और एक मकान की सीढ़ियां चढ़ता है और घंटे भर के लिए धार्मिक हो सकता है? क्या चेतना ऐसी कोई चीज है? गंगा बहती है हिमालय से और गिरती है सागर में। अगर कोई कहे कि काशी में आ कर गंगा पवित्र हो जाती है, पहले भी अपवित्र थी और आगे भी अपवित्र, सिर्फ काशी के घाट पर पवित्र हो जाती है। तो हम हंसेंगे कि यह पागल है। क्योंकि जो गंगा पीछे थी वही तो काशी के घाट से भी निकलेगी। और जो काशी के घाट से निकलेगी वही तो आगे भी जाएगी। आगे भी अपवित्र, पीछे भी अपवित्र, तो काशी के घाट पर पवित्र हो जाती है, कैसे हो सकता है? अगर यह नहीं हो सकता तो तेईस घंटा चेतना की जो गंगा अपवित्र थी वह एक घंटा मंदिर में पवित्र कैसे हो सकती है? वही तो चेतना है। वही तो धारा है। वही तो गंगा है। केवल मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने से वह पवित्र हो जाएगी? गलती में हैं आप। यह आदमी दूसरों को तो धोखा दे ही रहा है, खुद को भी धोखा दे रहा है। अगर आंख बंद करके भीतर देखेगा तो पाएगा, वही चेतना चल रही है। वही हिसाब, वही पाप, वही हिंसा, वही हत्याओं की योजना चल रही है भीतर, वे ही सिक्के गिने जा रहे हैं।
    एक आदमी मर रहा था एक बार। बहुत बड़ा धनपति था। बहुत बड़ा व्यवसायी था। मरणशय्या पर पड़ा था। आखिरी क्षण थे और चिकित्सकों ने कहा, आज का सूरज अंतिम होगा। सूरज ढलने को था। वह भी ढलने को था। उसने एकदम आंख खोली, उसकी पत्नी उसके पैरों तले बैठी थी और उसने पूछा कि मेरा बड़ा लड़का कहां है? तो उसकी पत्नी को खयाल आया कि शायद प्रेम से भर कर वह पूछ रहा है। क्योंकि उस आदमी ने कभी यह नहीं पूछा था कि मेरा बड़ा लड़का कहां है?
    जो पैसे के हिसाब में रहता है वह प्रेम का हिसाब कभी भी नहीं कर पाता। या तो पैसे का हिसाब होता है या प्रेम का हिसाब होता है। ये दोनों खजाने एक साथ नहीं भरे जा सकते। इसलिए जिसके पास जितनी पैसे की पकड़ होती है प्रेम उतना ही क्षीण हो जाता है। और जिसका प्रेम विराट होता है उसके पैसे की पकड़ चली जाती है।
    तो जिंदगी भर उसने पैसे के हिसाब तो पूछे थे कि रुपया कहां है, लेकिन उसने यह कभी नहीं पूछा था मेरा बड़ा लड़का कहां है? उसकी पत्नी ने सोचा, आज शायद प्रेम से भर कर उसे खयाल आ गया, अंतिम क्षणों में शायद वह प्रेम से भर गया है। अच्छा है, धन्य भाग्य है यह कि अंतिम क्षण उसके प्रेम और प्रार्थना से भरे हुए हों। तो उसने कहा, आप निश्चिंत रहें, आपका बड़ा लड़का आपके बगल में ही बैठा हुआ है। और उसने पूछा, उससे छोटा? उसकी पत्नी और भी अनुगृहीत हो गई कि वह सबकी याद कर रहा है। उसकी पत्नी ने कहा, वह भी आपके बगल में बैठा हुआ है। उसने पूछा, उससे छोटा? वह भी बगल में बैठा हुआ है। उससे छोटा? उसके पांच लड़के थे, उसने पांचों के बाबत पूछा। और अंत में वह एकदम उठ कर बैठ गया और उसने कहा, इसका क्या मतलब, फिर दुकान पर कौन बैठा हुआ है?
    वह अब भी पैसों का ही हिसाब कर रहा था। वह पत्नी गलती में थी कि वह प्रेम का लेखा-जोखा कर रहा है अंतिम क्षणों में।
    असल में जिसने जीवन भर पैसे का हिसाब किया हो अंतिम क्षण में भी वह पैसे का ही हिसाब करेगा। अंतिम क्षण में भी, और जो मंदिर की सीढ़ियों के बाहर पैसों का हिसाब करता रहा, वह मंदिर के भीतर भी पैसों का हिसाब करेगा। उसकी बंद आंखें देख कर भूल में मत पड़ जाना। उसके भीतर वही हिसाब चल रहा है जो बाहर चल रहा था। उसके चंदन और टीका को देख कर धोखे में मत पड़ जाना। वह चंदन और टीका लगाते वक्त भी वही हिसाब चल रहा है जो बाहर चल रहा था। यह वही आदमी है। आदमी ऐसे नहीं बदला करता। आदमी बदलता है तो पूरा बदलता है, नहीं तो नहीं बदलता। आदमी की कोई खंड-खंड बदलाहट नहीं होती। कोई ऐसा नहीं होता एक घड़ी को अच्छा हो जाए और दस घड़ी को बुरा हो जाए। ऐसा नहीं होता। चेतना इकट्ठी है, वह पूरी बदलती है। तो जिसकी चेतना पूरी बदलती है वह मंदिर नहीं जाता बल्कि वह जहां भी जाता है वहीं पाता है कि मंदिर है। जिसकी चेतना बदल जाती है वह किसी परमात्मा की तलाश में किसी मकान में नहीं जाता बल्कि जहां भी आंख डालता है पाता है कि परमात्मा है।
    मंदिर जाने वाला धार्मिक नहीं है, लेकिन जो आदमी हर क्षण अपने को मंदिर में पाता है वह धार्मिक जरूर है। भगवान की मूर्ति पूजने वाला धार्मिक नहीं है, लेकिन जो हर मूर्ति में पाता है कि भगवान है, वह धार्मिक है। जो हर मूर्ति में पाता है कि भगवान है। हर मूर्तिमंत जो भी आकार है उसमें उसी निराकार की ध्वनि और संगीत उसे सुनाई पड़ता है, वह धार्मिक है। लेकिन जो कहता है इस मूर्ति में भगवान है, इससे तो पक्का जान लेना कि उसे अभी पता नहीं। क्योंकि वह यह कहता है इस मूर्ति में भगवान है, इसका मतलब है कि बाकी जगह और क्या है? शेष जगह और क्या है फिर? शेष जगह भगवान नहीं है? चुनाव, सिलेक्शन इस बात को बता देता है कि शेष जगह नहीं है। यहां है, इसलिए मैं इतनी यात्रा करके इस मंदिर तक आता हूं। नहीं तो सब जगह वही था।
    ये जो, ये जो हमारे चित्त के खंड-खंड हमने धर्म बनाए हुए हैं, ये अपने को धोखा देने के लिए, सेल्फ डिसेप्शन के लिए, ताकि बिना धार्मिक हुए धार्मिक होने का मजा आ जाए। सुबह उठ कर मंदिर हो आए, सोचा कि धार्मिक हैं।
    मोहम्मद एक दिन सुबह अपने एक मित्र को उठा कर मस्जिद ले गए। वह रोज सोया रहता था। उस दिन उसे उठा कर लेकर मस्जिद ले गए। वह पहली दफा मस्जिद गया। जब वापस लौटते थे तो अनेक लोग रास्तों पर अभी तक सोए हुए थे। उस मित्र ने मोहम्मद से कहा, देखते हो हजरत, ये लोग कैसे अधार्मिक हैं अभी तक सो रहे हैं। मोहम्मद ने हाथ जोड़े परमात्मा की तरफ आकाश में और कहा, हे परमात्मा! क्षमा कर, मुझसे भूल हो गई इस आदमी को ले जाकर। कल तक यह बेहतर था, कम से कम दूसरों को अधार्मिक तो नहीं समझता था। आज और एक भूल हो गई। आज यह एक दफा मस्जिद क्या हो आया, यह कह रहा है कि मैं धार्मिक हूं और बाकी ये सब अधार्मिक हैं। उस आदमी से कहा, ेभई, तू कल से मत आना। और तू वापस जा, मेरी नमाज खराब हो गई है, मैं फिर से जाकर नमाज पढ़ आऊं।
    यह जिसको हम धार्मिक आदमी समझते हैं, जो मंदिर हो आता है, यह बड़ा मजा ले रहा है आपको अधार्मिक बताने का और बड़े सस्ते में। धार्मिक होना बड़ी दूसरी बात है, इतनी सस्ती और आसान नहीं। बड़ी क्रांति की बात है।
    वह क्रांति कैसे घटित हो सकती है, उसके दो सूत्रों की चर्चा मैंने आपसे की, कल तीसरे सूत्र की आपसे चर्चा करूंगा।

    मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सुना, उसके लिए बहुत-बहुत अनुगृहीत हूं। अंत में सभी के भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

    — ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-05]

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