मैं ध्यान करते-करते थक गया हूं, बहुत सी विधियां करने पर भी आनंद नहीं मिलता; क्या करूँ?

Question

प्रश्न – मैं ध्यान करते-करते थक गया हूं। बार-बार प्रयत्न करने पर और भी ज्यादा आनन्दरहित महसूस करता हूं?

Answer ( 1 )

  1. निश्चित रूप से समझने में कुछ भूल-चूक हो रही है। आप जिसे ध्यान कह रहे हैं वह ध्यान नहीं। मैं जिसे ध्यान कह रहा हूं वह हमारी चेतना का स्वभाव है। परम चैतन्यता। वह कोई क्रिया नहीं कोई क्रम काण्ड नहीं। ध्यान कोई क्रिया नहीं है। ध्यान किया नहीं जा सकता, ध्यान में हुआ जा सकता है। वह हमारा स्वभाव है। धर्म हमारा स्वभाव है। जैसे अग्नि का स्वभाव है गरम होना, जलाना। ऐसे ही हमारा स्वभाव है चैतन्य होना, जागरूक होना। यह कोई कृत्य नहीं है जो हम कर रहे हैं। हां, अग्नि अगर कोई कृत्य कर रही होती गरम करने का तो जरूर थक गयी होती और कहती कि भई हम थक गए। कम से कम एक तो छुट्टी दो हफ्ते में। कब तक हम जलाते रहेंगे, आखिर कब तक। एक सज्जन ने कहा था न कि- “नया सफर शुरू करूं भी तो भी कैसे, अभी तो पहले सफर की थकान बाकि है।’’ नहीं, समझने में कोई भूल-चूक हो रही है। ध्यान कोई क्रिया-काण्ड नहीं है। ध्यान निष्क्रिय जागरूकता का नाम है।

    ओशो की परिभाषा सुनना। ओशो कहते है मन की अव्यस्त दशा का नाम ध्यान है। अर्थात जब हम कुछ भी नहीं कर रहे, बस हैं, जागरूक, इस दशा का नाम ध्यान है। फिर आप पूछेंगे कि फिर ध्यान के नाम पर ये क्रियाएं क्यों करवा रहे हैं? संजीवनी ध्यान, ब्रह्मनाद ध्यान। याद रखना विधि ध्यान नहीं है। कोई भी विधि ध्यान नहीं है। हां, विधि के द्वारा हम उस निष्क्रिय अवस्था में पहुंच सकते हैं, वह भी अगर हम ध्यान से समझेंगे तो। यदि हम केवल विधि ही करते रहे और ध्यान को ठीक से नहीं समझे तो हम उस अवस्था को नहीं पहुंच पाएंगे। हम अपनी क्रिया में ही संलग्न रहेंगे। ध्यान कोई क्रिया नहीं। और यदि हमने ध्यान को भी क्रिया की तरह किया तो हम थक जाएंगे। ध्यान को अगर सहज स्वभाव की तरह समझा तो आप पाएंगे कि ध्यान तो कभी भी किया जा सकता है। आप मुझे सुन रहे हैं, आप दो तरीके से सुन सकते हैं। एक तो मूर्छित अवस्था में कि सुन भी रहे हैं और मन के विचार भी चल रहे हैं, विचार भी क्रिया है, मानसिक क्रिया है। तो यदि आप विचार करते हुए मुझे सुन रहे हैं तो आप ध्यानपूर्वक नहीं सुन रहे। ध्यानपूर्वक सुनने का अर्थ है आप भीतर से भी निष्क्रिय और शिथिल, शांत हो गए। आपके मन ने विचार की क्रिया भी छोड़ दी। बस शांत बैठे हैं, ध्वनि की तरंगे कान से आकर टकराती हैं और सुनाई पड़ता है। सुनने की कोई कोशिश भी नहीं है। एकाग्रता भी नहीं।

    ध्यान एकाग्रता नहीं है। यदि आपने एकाग्रता से मुझे सुना तो आप थक जाएंगे। एकाग्रता से मत सुनना। सहज, शांत और निष्क्रिय होकर सुनना। तब आप पाओगे कि थकने का कोई कारण ही नहीं। आपने कुछ किया ही नहीं। अकसर लोग ध्यान के नाम पर एकाग्रता साधते हैं। फिर एक दिन वे थक जाएंगे, ऊब जाएंगे, उदास हो जाएंगे। चले थे आनन्द की खोज में, एक दूसरे गढ्ढे में गिर जाएंगे। समझ की भूल के कारण। पहले ही जिन्दगी में इतनी आपाधापी, व्यस्तता थी, तुमने एक ओर क्रिया शुरू कर दी ध्यान की क्रिया। सारी क्रियाएं वहीं की वहीं बरकार। तुमने एक और क्रिया-काण्ड जोड़ दिया। यह तो थकाने वाला सिद्ध होगा। यहां जो हम आपको क्रियाएं करवा रहे हैं वे सिर्फ उस निष्क्रिय जागरूकता की झलक देने के लिए। एक बार उसकी झलक मिल जाए तो फिर ये क्रियाऐं छोड़ देना। फिर तो सीधे ही निष्क्रिय जागरूकता में प्रवेश करना। तो ध्यान की क्रियाओं को ऐसे समझना जैसे- जब हम इस पार हैं तो नाव में बैठें हैं, पतवार चलाते हैं और जब उस पार पहुंच गए तो नाव से छुटकारा- नाव से बाहर आ जाना। एक बार इस पार आ गए तो फिर नाव को पकड़ कर मत बैठ जाना कि आह इतनी प्यारी नाव! हमें धन्यवाद, अब इस को न छोड़ेंगे। कई लोग मेरे पास आते हैं मिलने। कोई कहता है मैं 10 साल से ध्यान कर रहा हूं, कोई कहता है मैं 15 साल से विपस्सना साध रहा हूं, कोई 25 साल से कुण्डलिनी ध्यान कर रहा है। तुम पागल हो गए हो क्या? तुमसे कहा किसने इतने साल करने को। कुछ समय पर्याप्त था। ओशो ने जहां कहीं भी कहा ध्यान करने के लिए तो उन्होंने कहा कि अगर पूरी त्वरा से, पूरी इंटेंसिटी से करो तो तीन दिन और धीमे-धीमे, कुनकुने करो तो तीन महीने। उन्होंने कब कहा कि तीन महीने से ज्यादा करना। तुम 25 साल से कर रहे हो। तुमने बात ही नहीं सुनी। किसने कहा 15 साल विपस्सना करने को। वह तो जागरूक होने की झलक लेने को श्वांस-प्रश्वांस को देखना था। जैसे ही जागरूकता समझ आ गयी सांस को भूलो। सहज, स्वाभाविक जागरूकता में रहो। तो विधि नाव की तरह है। उसमें सवार भी होना और पार होकर उससे उतर भी जाना। कोई बैठे ही नहीं रहना और न नाव को सिर पर ढोना कि इस नाव ने इस पार पहुंचाया अब तो इसे न छोड़गें।

    ~ स्वामी शैलेंद्र सरस्वती

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