शब्दों से मौन हो जाने पर, शुन्य हो जाने पर जीवन का, संसार का व्यवहार कैसे चलेगा?

Question

प्रश्न – एक मित्र ने पूछा है कि यदि हम शब्दों से मौन हो जाएं, मन हमारा शून्य हो जाए, तो फिर जीवन का, संसार का व्यवहार कैसे चलेगा?

Answer ( 1 )

  1. हम सभी को यही भ्रांति है कि मन हमारे जितने बेचैन और अशांत हों, संसार का व्यवहार उतना ही अच्छा चलता है। यह हमारा पूछना वैसे ही है, जैसे बीमार लोग पूछें कि यदि हम स्वस्थ हो जाएं, तो संसार का व्यवहार कैसे चलेगा? पागल लोग पूछें कि हम यदि ठीक हो जाएं और हमारा पागलपन समाप्त हो जाए, तो संसार का व्यवहार कैसे चलेगा? बड़े मजे की बात यह है, अशांत चित्त के कारण संसार का व्यवहार नहीं चल रहा है, बल्कि संसार के चलने में जितनी बाधाएं हैं, जितने कष्ट हैं, संसार का जीवन जितना नरक है, वह अशांत चित्त के कारण है। यह जो संसार का व्यवहार चलता हुआ मालूम पड़ता है, इतने अशांत लोगों के साथ भी, यह बहुत आश्चर्यजनक है। शांत मन संसार के व्यवहार में बाधा नहीं है, बल्कि शांत मन इस संसार को ही स्वर्ग के व्यवहार में बदल लेने में समर्थ है। जितना शब्दों से मन शांत हो जाता है, उतनी ही जीवन में दृष्टि, अंतर्दृष्टि मिलनी शुरू हो जाती है। फिर भी हम चलेंगे, लेकिन वह चलना और तरह का होगा; फिर भी हम बोलेंगे, लेकिन वह बोलना और तरह का होगा; फिर भी हम उठेंगे, फिर भी जीवन का जो सामान्य क्रम है वह चलेगा, लेकिन उसमें एक क्रांति हो गई होगी।
    भीतर मन यदि शांत हो गया हो, तो दो परिमाण होंगे। ऐसे मन से जो चर्या निकलेगी, जो जीवन निकलेगा, वह दूसरों में अशांति पैदा नहीं करेगा। और दूसरे लोगों के अशांत व्यवहार की प्रतिक्रिया में ऐसे चित्त में कोई अशांति पैदा नहीं होगी, बल्कि उस पर फेंके गए अंगारे भी उसके लिए फूल जैसे मालूम होंगे और वह खुद तो अंगारे फेंकने में असमर्थ हो जाएगा। संसार में इससे बाधा नहीं पड़ेगी, बल्कि संसार को हमने अपनी अशांति के द्वारा करीब-करीब नरक के जैसा बना लिया है, उसे स्वर्ग जैसा बनाने में जरूर सहायता मिल जाएगी। और चूंकि हम आज तक मनुष्य के मन को बहुत बड़े सामूहिक पैमाने पर शांति के मार्ग पर ले जाने में असमर्थ रहे हैं, इसीलिए हमें अपना स्वर्ग आकाश में बनाना पड़ा। यह जमीन पर हमारे अशांत मन के कारण हमें स्वर्ग आसमान में बनाना पड़ा। अगर मन शांत हो तो स्वर्ग को आकाश में बनाने की कोई जरूरत नहीं है, वह जमीन पर बन सकता है। स्वर्ग जब तक आकाश में रहेगा, तब तक इस बात को भलीभांति जानना चाहिए कि आदमी ठीक अर्थों में आदमी होने में समर्थ नहीं हो पाया। यदि वह ठीक अर्थों में आदमी हो जाए तो जमीन बुरी नहीं है और उस पर स्वर्ग बन सकता है। स्वर्ग का और क्या अर्थ है? जहां शांत लोग हों, वहां स्वर्ग है; जहां भले लोग हों, वहां स्वर्ग है।
    सुकरात को उसके मरने के पहले कुछ मित्रों ने पूछा कि क्या तुम स्वर्ग जाना पसंद करोगे या नरक? तो सुकरात ने कहा: इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि मैं कहां भेजा जाता हूं, मैं जहां जाऊंगा वहां मैं स्वर्ग का अनुभव करने में समर्थ हूं। इससे कोई भेद नहीं पड़ता कि मैं कहां जाता हूं, मैं जहां जाऊंगा अपना स्वर्ग अपने साथ ले जाऊंगा। हर आदमी अपना स्वर्ग या अपना नरक अपने साथ लिए हुए है। और वह उसी मात्रा में अपने साथ लिए हुए है, जिस मात्रा में उसका मन शांत हो जाता है, शब्दों की भीड़ से मुक्त हो जाता है, मौन हो जाता है। जितनी गहरी साइलेंस होती है, उतना ही उसके बाहर एक स्वर्ग का घेरा, एक स्वर्ग का वायुमंडल उसके आस-पास चलने लगता है। इसलिए यह हो सकता है कि एक ही साथ बैठे हुए लोग, एक ही जगह पर न हों; यह हो सकता है कि आपके पड़ोस में जो बैठा है व्यक्ति, वह स्वर्ग में हो और आप नरक में। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उसका मन कैसा है? उसके मन की आंतरिक दशा कैसी है? उस आंतरिक दशा पर ही बाहर का सारा जीवन, देखने का ढंग, अनुभूतियां सभी परिवर्तित हो जाती हैं।
    हमारे ही बीच महावीर या बुद्ध या क्राइस्ट जैसे लोग हुए हैं, जो हमारे ही बीच थे, हमारी ही जमीन पर थे, लेकिन इसी जमीन पर उन्होंने उस आनंद को जाना जिसकी हमें कोई भी खबर नहीं है। कैसे? कौन से रास्ते से? कौन से मार्ग से? उनके पास शरीर हमारे जैसा ही था, उस शरीर पर बीमारियां भी होती थीं और उस शरीर को एक दिन मर भी जाना पड़ा। उनके पैर में भी कांटा चुभ जाता, तो खून बहता। और उनको भी गोली मार दी जाती, तो उनका शरीर समाप्त हो जाता। हड्डी और मांस हमारे ही जैसा था, भूख और प्यास हमारे ही जैसी थी, जिंदगी और मरण हमारे ही जैसा था। लेकिन फिर फर्क क्या था? फर्क था तो भीतर कोई फर्क था। भीतर मन और तरह का था। हमारा मन और तरह का है। मन शांत था, मन मौन था। इस मौन और शांति से भी उन्होंने जीवन को जीया और उस जीवन में से बहुत सी सुगंध पाई, बहुत सा संगीत पाया।
    हम अशांति के द्वारा जीवन को जीते हैं और हम यह भी सोचते रहते हैं कि अगर हम शांत हो गए तो फिर जीवन कैसे चलेगा? जैसे जीवन अशांति से चल रहा हो। जीवन अशांति से चल नहीं रहा है, घिसट रहा है। जीवन अशांति से विकसित नहीं होता, केवल तड़पता है और परेशान होता है। और जीवन के व्यवहार का शांत हो जाने से कोई विरोध नहीं है। लेकिन शायद सैकड़ों वर्षों की शिक्षाओं ने हमारे मन में एक तरह का द्वंद्व, एक तरह का द्वैत पैदा कर दिया। सैकड़ों वर्षों से यह कहा जाता रहा है कि जिस व्यक्ति को शांत होना है उसे संसार छोड़ देना पड़ेगा। सैकड़ों वर्षों से यह बात समझाई गई है कि शांत होना, सत्य के मार्ग पर होना और संसार का व्यवहार, ये दोनों विरोधी बातें हैं।
    मैं आपसे निवेदन करता हूं, यह बड़ी खतरनाक शिक्षा थी और इस शिक्षा के कारण ही जीवन धार्मिक नहीं हो पाया। इस शिक्षा के कारण ही जमीन आज भी अधार्मिक है। क्योंकि यह शिक्षा हमारे लिए एक एस्केप बन गई, एक पलायन बन गई, एक बचाव का रास्ता बन गई। हमने सोचा कि यदि संसार को चलाना है तो धर्म हमारे लिए नहीं है; और धर्म हमारे लिए उस दिन होगा जिस दिन हम संसार को छोड़ने को राजी होंगे। न हम संसार को छोड़ने को राजी होंगे और न धर्म से हमारा कोई संबंध होगा। धर्म से बचने के लिए हमने एक तरकीब खोज ली। यह शिक्षा, हमारे धर्म और हमारे बीच दूरी और फासला बन गई।
    मैं आपसे निवेदन करता हूं, मन जितना स्वस्थ और शांत होगा, वह संसार का विरोधी नहीं होगा बल्कि संसार को ट्रांसफार्म करने में, संसार को नया जीवन देने में सहयोगी बनेगा। शांत आदमी संसार का शत्रु नहीं है बल्कि वही मित्र है। और जीवन का धर्म से कोई विरोध नहीं है और परमात्मा और संसार के बीच कोई दुश्मनी नहीं है। जीवन को ठीक से जीना ही परमात्मा को पाने का मार्ग है और धर्म या आंतरिक जीवन और शांति की खोज ठीक-ठीक अर्थों में हम कैसे जीएं, इस दिशा में हमारे पैरों को बढ़ाने की तरकीब और माध्यम और मार्ग है। इसलिए यह न सोचें कि मैंने कहा: मन शांत हो जाए, शब्दों से मुक्त हो जाए, तो आपका संसार और व्यवहार बिगड़ जाएगा। नहीं; वह अभी बिगड़ा हुआ है। अगर, अगर मन शांत हो सके, तो संसार में ही, इस सामान्य जीवनचर्या में ही, इस दैनंदिन जीवन में ही परमात्मा के दर्शन शुरू हो जाएंगे।
    एक रात एक साध्वी एक गांव में मेहमान होना चाहती थी। लेकिन उस गांव के लोगों ने उसे ठहरने के लिए अपने दरवाजे न खोले। हर दरवाजे पर उसने प्रार्थना की कि आज की रात मैं यहां ठहर जाऊं, लेकिन द्वार बंद कर लिए गए–जैसा कि मैंने कल कहा–वह साध्वी, वह अकेली महिला उस रात उस गांव में शरण मांगती थी, लेकिन उस गांव के लोगों का धर्म दूसरा था और साध्वी का धर्म दूसरा। इसलिए शरण देना संभव नहीं हुआ। एक शब्द बाधा बन गया। साध्वी किन्हीं और विचारों को मानती थी और गांव के लोग किन्हीं और विचारों को मानते थे। उस साध्वी को ठहरने की जगह नहीं मिली। आखिर उस सर्द रात में उसे गांव के बाहर एक वृक्ष के नीचे ही सो जाना पड़ा। रात कोई बारह बजे होंगे, तब ठंडी हवाओं में उसकी नींद खुल गई। उसने आंखें खोलीं, तो ऊपर पूर्णिमा का चांद वृक्ष के ऊपर खड़ा है और वृक्ष में रात के फूल चटक-चटक कर खिल रहे हैं। और उसने पहली बार आकाश में इतने सुंदर चांद को देखा, इतने एकांत में, इतने अकेलेपन में। और उसने पहली बार जीवन में उस वृक्ष पर रात के फूलों को खिलते हुए सुना। छोटी-छोटी बदलियां आकाश में तैरती थीं। वह उठी और मौन उस रात के सौंदर्य को उसने जाना और पीया। और फिर आधी रात को ही वह गांव में वापस पहुंच गई और उसने उन लोगों के द्वार खटखटाए जिन्होंने सांझ उसे शरण देने से इनकार कर दिया था। अंधेरी रात, आधी रात में वे घर के लोग उठे और उन्होंने पूछा, कैसे आई हो? हम तो सांझ को तुम्हें इनकार कर चुके। उस साध्वी ने कहा: मैं धन्यवाद देने आई हूं। काश, तुमने मुझे अपने घर में ठहरा लिया होता तो आज रात मैंने जो सौंदर्य जाना है वह मैं कभी भी न जान पाती। तो मैं तुम्हें धन्यवाद देने आई हूं कि तुमने मुझ पर कृपा की कि रात अपने घर में मुझे न ठहरने दिया। अन्यथा तुम्हारी दीवालें बहुत छोटी थीं और मैं उसमें मेहमान भी हो जाती, तो आकाश को न देख पाती और उस चांद को न देख पाती और उन फूलों को न सुन पाती जो खिल रहे हैं। तो मैं धन्यवाद देने आई हूं तुम्हारे पूरे गांव को, तुमने मुझ पर जो कृपा की है वह बहुत बड़ी है।
    यह साध्वी के, यह प्रतिक्रिया, आपमें होती? किसी दूसरे व्यक्ति में होती? असंभव है। दूसरा व्यक्ति तो इतने क्रोध से भर जाता, इतने वैमनस्य से, इतनी घृणा से, इतने अपशब्दों से कि शायद उसे नींद भी न आती। और इतने अपशब्दों और क्रोध से भरे होने के कारण उसे चांद भी दिखाई न पड़ता। और अपने भीतर इतने शोरगुल की वजह से, उसे फूलों के खिलने की खबर भी न मिलती। वह रात तो वैसी ही आती, चांद भी निकलता, फूल भी खिलते, लेकिन वह क्रोध से भरा हुआ मन, वह अशांत मन उस सबको न देख पाता और उस गांव के प्रति सदा के लिए एक शत्रुता का भाव उसके मन में पैदा हो जाता।
    हम सारे लोगों का मन भी संसार के प्रति जो इतनी शत्रुता से भर गया है, उसका कारण यह नहीं है कि संसार में चांद नहीं उगता और फूल नहीं खिलते; उसका यह कारण नहीं है कि संसार में सौंदर्य की कोई कमी है; उसका यह कारण नहीं है कि संसार में सत्य का कोई अभाव है; उसका यह भी कारण नहीं है कि संसार में चारों तरफ से परमात्मा की वर्षा नहीं हो रही है; या कि प्रकाश की किरणों ने आना बंद कर दिया है; या कि जीवन मृत हो गया है। नहीं; आज भी फूल खिलते हैं; आज भी चांद निकलता है; आज भी परमात्मा की रोशनी चौबीस घंटे वर्षा करती है; आज भी चारों तरफ उसकी ध्वनि उठती है। लेकिन हमारे पास वह मन नहीं है, जो उसे जान सके, देख सके और पहचान सके। उसे जानने और पहचानने के लिए चाहिए एक शांत, एक साइलेंट माइंड; तो चारों तरफ संसार दिखाई पड़ना बंद हो जाएगा।
    मैं आपसे निवेदन करूं, संसार कहीं भी नहीं है, सिवाय हमारे अशांत मन के। संसार हमारे अशांत मन का प्रोजेक्शन है, हमारे अशांत मन की प्रतिछाया है। और अगर हमारा मन शांत हो जाए, तो संसार कहीं भी नहीं है। फिर जो शेष रह जाता है, वह परमात्मा है, संसार नहीं। दो चीजें नहीं हैं, संसार और परमात्मा, ऐसी दो चीजें कहीं भी नहीं है। ऐसी दो चीजें कभी भी नहीं रहीं। या तो संसार है या परमात्मा है। हम अशांत होते हैं, तो हमें जो अनुभव में आता है, वह संसार है और हम शांत हो जाते हैं, तो हमें जो अनुभव में आता है, वह परमात्मा है। परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं। दो तरह के मन हैं, शांत मन और अशांत मन। शांत मन न तो व्यवहार में बाधा है, न संसार में, बल्कि जैसे-जैसे भीतर शांति गहरी होती चली जाती है, बाहर सब कुछ परिवर्तित होने लगता है। एक दूसरे ही जगत का, एक दूसरे ही सत्य का आविर्भाव होने लगता है। कुछ और ही दिखाई पड़ने लगता है वहीं, जहां हमें पदार्थ के अतिरिक्त और कुछ भी कभी दिखाई नहीं पड़ा। कुछ और ही दिखाई पड़ने लगता है वहीं, जहां हमें शरीरों के अतिरिक्त और कभी कोई स्पर्श न हुआ। अपार्थिव का प्रारंभ हो जाता है, अशरीरी का बोध शुरू हो जाता है।
    हमारे देखने और हमारे मन की गहरी क्षमता पर, हमारी रिसेप्टिविटी पर, हमारी ग्राहकता पर निर्भर करता है कि क्या हमें अनुभव हो…हम अशांत होंगे, तो निश्चय मानिए, बाहर जहां-जहां अशांति है उसके अतिरिक्त आपको और कुछ भी अनुभव नहीं होगा। आपका अशांत मन केवल अशांति को जानने में ही समर्थ है। समान के पास समान खिंचा हुआ चला आता है। जब भीतर अशांति होती है, तो चारों तरफ से अशांति हमारी तरफ चुंबक की तरह खिंचने लगती है। इसमें उस अशांति का कोई कसूर नहीं है। हमने जो अशांति का गङ्ढा बनाया हुआ है, वह अशांति को खींचने लगता है। और जब हमारे भीतर शांति होती है, तो चारों तरफ से शांति के झरने हमारी तरफ बहने शुरू हो जाते हैं। इसलिए इस जमीन पर जो आदमी जैसा होता है वैसा ही अनुभव कर लेता है। यह जमीन न तो बुरी है और न भली। यहां न स्वर्ग है और न नरक। न यहां अंधकार है और न प्रकाश। यहां तो हम जैसे होते हैं वैसे का ही हमें अनुभव हो जाता है, वैसे का ही हमें साक्षात हो जाता है। हम उसी से टकरा जाते हैं, जो हम हैं। प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने को ही सुनता और अहसास करता है।
    इसलिए यह न सोचें कि मन शांत हो जाएगा, तो सब बंद हो जाएगा। नहीं; मन शांत होगा, तो ही सबकी शुरुआत होगी। अभी तो करीब-करीब सब बंद है। अभी तो हमारे जानने की न कोई क्षमता है और न कोई विराट शक्ति है। अभी तो जानने वाला मन ही नहीं है। क्योंकि जानने की पहली शर्त है: शांत हो जाना। अनुभव करने की पहली शर्त है: शांत हो जाना। प्रेम को पाने की पहली शर्त है: शांत हो जाना। कोई अपने घर में द्वारों को बंद किए बैठा हो, तो सूरज बाहर खड़ा रहेगा; द्वारों पर आवाज नहीं करेगा, थपकी नहीं देगा, द्वार पर दस्तक नहीं देगा कि द्वार खोलो, सूरज बाहर प्रतीक्षा करेगा। और अगर हम द्वार बंद किए ही बैठे रहें, तो हम अपने हाथों अपने लिए अंधकार पैदा कर लेते हैं। परमात्मा भी निरंतर सबके द्वार पर खड़ा है, लेकिन हम मन के द्वार बंद किए बैठे हैं। तो परमात्मा प्रतीक्षा करेगा और हम अपने अंधकार में बैठे रहेंगे। मन को शांत करने, मन को शब्दों से मुक्त करने का अर्थ है, मन के सारे द्वार और दीवालों को गिरा देना, ताकि मन के ऊपर कोई आवरण न रह जाए, मन के ऊपर कोई बंधन न रह जाए, मन के ऊपर कोई दीवाल न रह जाए, कोई कारागृह न रह जाए, तो फिर आ जाएगा वह प्रकाश जो चारों तरफ मौजूद है और हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।
    परमात्मा हमारे ऊपर हिंसा नहीं करना चाहता है, इसलिए बाहर दरवाजे पर प्रतीक्षा करता है कि हम अपने द्वार खोलें। लेकिन हम अपने द्वार ही न खोलें, तो अंधकार में हम अपने हाथ से जीते हैं।
    शांत मन का अर्थ है: द्वार खोलना। शांत मन का अर्थ है: दीवाल को तोड़ना। शांत मन का अर्थ है: असीम के साथ तालमेल, असीम के साथ संबंध को स्थापित करना। उससे संसार मिटेगा नहीं, बल्कि संसार ही स्वर्ग बन जाएगा। उससे जीवन के संबंध नष्ट नहीं होंगे, जैसा कि हमें सिखाया गया है। हमें सिखाया गया है कि जो परमात्मा का हो जाएगा, वह पत्नी का नहीं रह जाएगा, वह व्यक्ति वह अपने बच्चों का नहीं रह जाएगा, वह अपने घर का नहीं रह जाएगा, वह अपने संबंधियों का नहीं रह जाएगा। यह झूठ है बात, एकदम झूठ। इससे ज्यादा झूठी बात कभी नहीं कही गई। सच्चाई उलटी है। सच्चाई यह है कि उसके घर के लोग तो उसके होंगे ही, इस जमीन पर कोई न रह जाएगा जो उसके घर का बाहर का हो। सच्चाई यह है कि उसके संबंध तो जिनसे हैं उनसे होंगे ही, इस जगत में कोई न रह जाएगा जिससे उसके संबंध न रह जाएं। उसका परिवार मिटेगा नहीं, बड़ा हो जाएगा; उसका प्रेम समाप्त नहीं होगा, विराट हो जाएगा। उसका छोटा सा घर नष्ट नहीं होगा, बल्कि उसके घर की सीमाएं बड़ी होती चली जाएंगी और जमीन पर कोई कोना ऐसा न होगा जो उसे अपना घर जैसा मालूम न पड़े। यह बात झूठी है कि वह अपने घर से छोड़ देगा। सच बात यह है कि पूरी जमीन उसका घर हो जाएगी। यह बात गलत है कि वह अपने परिवार का शत्रु हो जाएगा। सच्ची बात यह है कि इस जमीन पर सब कुछ उसका परिवार हो जाएगा। उसका प्रेम विराट होगा, क्षुद्र नहीं।
    और निश्चित ही जब इतने विराट प्रेम का जन्म होगा, तो जिस प्रेम को हम जानते हैं उसमें एक क्रांति हो जाएगी, उसमें एक परिवर्तन हो जाएगा। हमारे प्रेम में तो घृणा भी मौजूद होती है। जिस पत्नी को हम प्रेम करते हैं, उसकी हम हत्या भी कर सकते हैं। जिस मित्र को हम कहते हैं कि मैं तुम्हारे लिए प्राण दे दूंगा, जरा सी बात बिगड़ जाए और हम उसके प्राण लेने को तैयार हो सकते हैं। हमारा प्रेम अपने भीतर घृणा को छिपाए हुए है। यह प्रेम झूठा है। क्योंकि जिस प्रेम के भीतर घृणा बैठी हो, उस प्रेम का मूल्य कितना? हम जिसे प्रेम करते हैं उसी को घृणा भी करते हैं। जरा सी बात बिगड़ जाए, हमारी इच्छाओं के विपरीत हो जाए बात, हमारी आकांक्षा से भिन्न हो जाए, हमारा प्रेम समाप्त और हमारी घृणा बाहर निकल आएगी। जब दो मित्र शत्रु हो जाते हैं, तो उन जैसा शत्रु और कोई भी नहीं होता। और जब दो भाई लड़ने लगते हैं, तो उन जैसा लड़ने वाला भी खोजना कठिन है। क्यों? क्या बात है? हमारे प्रेम और हमारी मित्रता के पीछे हमारी घृणा मौजूद है। जब कोई व्यक्ति शांत होता है, तो प्रेम नष्ट नहीं होता, उसके भीतर से घृणा समाप्त हो जाती है, उसके पास शुद्ध प्रेम बच जाता है। इसलिए उसके प्रेम में वह वायलेंस, वह हिंसा नहीं होती, जो हमारे प्रेम में है। लेकिन उसके प्रेम में एक अपार्थिव प्रकाश आना शुरू हो जाता है, एक दिव्य ज्योति आनी शुरू हो जाती है।
    निश्चित ही जिस प्रेम में घृणा है, वह सीमित होता है, वह किसी से बंधा होता है, लेकिन जिस प्रेम में कोई घृणा नहीं रह जाती, वह असीम हो जाता है, उसका बंधन नहीं रह जाता। वह प्रेम किसी को पजेस नहीं करता, वह किसी का मालिक नहीं बनता, वह किसी को डॉमिनेट नहीं करता, वह किसी का अधिकार नहीं ले लेता। हमारा प्रेम तो मालकियत है। मैं अपनी पत्नी को कहूंगा कि मैं तुम्हारा मालिक हूं। पति हमेशा से पत्नियों से यह कहते रहे हैं और पत्नी भी अपने मन में जानती है कि वह भी मालकिन है। जो यह जानता है कि जिसे मैं प्रेम करता हूं उसका मैं मालिक हूं, वह ठीक से समझ ले, उसने कभी प्रेम को जाना भी नहीं, उसने कभी प्रेम को किया भी नहीं।
    प्रेम कभी किसी का मालिक हो सकता है? मालिक तो हम उसके होना चाहते हैं जिससे हमें डर होता है, भय होता है। हम उस पर कब्जा कर लेना चाहते हैं, ताकि उससे भय न रह जाए, उससे डर न रह जाए। मालिक तो हम उसके होना चाहते हैं जिससे हमें कोई प्रेम नहीं होता। मालिक तो हम वस्तुओं के होना चाहते हैं। व्यक्तियों का कभी कोई मालिक हो सकता है? आत्माओं का कभी कोई मालिक हो सकता है? जो किसी को प्रेम करता है वह कभी उसका मालिक न होना चाहेगा। मालकियत घृणा का सबूत है, प्रेम का नहीं। तो हमारा यह जो प्रेम है जो मालिक बन जाता है, और जिसकी मालकियत जरा भी डांवाडोल हो जाए तो हत्या करने को उतारू हो जाएगा। यह प्रेम जरूर शांत व्यक्ति में नहीं रह जाएगा। शांत व्यक्ति के प्रेम में कोई पजेशन, कोई मालकियत, कोई घृणा नहीं होगी। इसलिए शांत व्यक्ति का प्रेम असीम होता चला जाएगा। वह एक को पार करके धीरे-धीरे अनेक पर पहुंच जाएगा; वह एक की सीमा से मुक्त होकर धीरे-धीरे सबमें प्रवेश पा जाएगा। ऐसे ही प्रेम को मैं प्रार्थना कहता हूं, जो एक को पार कर लेता है और सब तक पहुंच जाता है।
    मंदिरों में कही जाने वाली प्रार्थनाएं प्रार्थनाएं नहीं हैं, थोथे शब्द हैं। सच्चा प्रार्थना से भरा हुआ हृदय तो वह है जिसका प्रेम अनंत और असीम तक पहुंचने लगा हो, जिसके प्रेम की लहरें दूर-दूर फैल रही हों, और जिसका प्रेम किसी सीमा को न मानता हो, और जिसका प्रेम केवल देना जानता हो, मांगना न जानता हो।
    प्रेम तो नष्ट नहीं होगा, लेकिन प्रेम परिवर्तित हो जाएगा; परिवार तो नहीं मिटेगा, लेकिन परिवार बहुत बड़ा हो जाएगा; संसार तो नहीं बिगड़ेगा, लेकिन संसार एक अभूतपूर्व रूप से परिवर्तित होकर स्वर्ग बन जाएगा। इसलिए भयभीत न हों। इस बात से भयभीत न हों कि संसार बिगड़ जाएगा।
    बड़े मजे की बातें हैं, क्या है आपके संसार में? कौन सी शांति है? कौन सा आनंद है? कौन सा प्रेम है? जिसके खो जाने से हम भयभीत हो जाते हैं कि कहीं हम शांत हो गए तो सब खो न जाए। क्या है आपके पास जो खो जाएगा?
    हमारी हालत करीब-करीब उस भिखमंगे जैसी है जो एक राजधानी के किनारे रात भर जागा रहता था। पुराने दिनों की घटना है। उस गांव का बादशाह रोज घोड़े पर सवार होकर रात को आधी रात गांव की निरीक्षण को निकलता। वर्ष पर वर्ष बीत गए। सर्दी हो कि बरसात कि गर्मी हो, कि अंधेरी रात हो कि उजाली रात हो, वह भिखारी गांव के बाहर निरंतर खड़ा हुआ जागता रहता। आखिर उस बादशाह से न रहा गया। उसने एक दिन अपने घोड़े को रोका और पूछा, मेरे मित्र, किस चीज का पहरा देते हो रात भर? उस भिखारी ने कहा: मेरा भी सामान है, कोई उठा कर न ले जाए। उसके पास एक भिक्षा-पात्र था, एक डंडा था, एक झोली थी। वह रात भर जाग कर पहरा देता था कि कहीं कोई उसके इस सामान को चुरा कर न ले जाए। तो उसने राजा से कहा कि क्या आप सोचते हैं मैं सो जाऊं और कोई मेरा सामान ले जाए? तो मैं दिन को सो लेता हूं, जब रास्ते चलते होते हैं, तब कोई डर नहीं होता। रात मैं जागता हूं कि कहीं कोई मेरा सामान न ले जाए।
    राजा बहुत चिंतित हुआ। वह लौटा और उसने अपने राजगुरु को जाकर कहा कि मैंने बड़ी हैरानी की घटना देखी। एक भिखमंगे ने मुझसे यह कहा है कि वह रात भर इसलिए जागता है कि कहीं उसका कोई सामान न ले जाए। और सामान उसके पास एक भिक्षा-पात्र, एक डंडा और एक झोली से ज्यादा नहीं है। उसके राजगुरु ने कहा: अक्सर ऐसा होता है, जिनके पास कुछ भी नहीं होता, वे हमेशा डरे रहते हैं कि उनकी चोरी न हो जाए। अक्सर ऐसा होता है, जिनके पास कुछ भी नहीं है, वे भयभीत रहते हैं, कहीं वह खो न जाए।
    हमारे पास क्या है जिससे हम भयभीत हैं? क्या है हमारे संसार में जिसके खो जाने से हम डरे हुए हैं? क्या है? कौन सा आलोक हमारे प्राणों को आलोकित कर गया है? कौन सा जीवन हमने जीया और जान लिया है? स्मरण आती है कोई घड़ी जीवन में लौट कर देखने पर जिसे हम कहें कि यह मेरी संपदा है इसे मैं सम्हालना चाहूं? कोई क्षण याद आते हैं जो ऐसे लगते हों जिनको बचाना जरूरी है? और अगर कल कोई परमात्मा आपसे आकर कहे कि जो जिंदगी आप जीए थे, मैं दुबारा उसी जिंदगी को जीने का हक देता हूं, हममें से कितने लोग उसी जिंदगी को दुबारा जीने को राजी होंगे? कौन राजी होगा इस बात के लिए कि जो जिंदगी उसने जी, ठीक वैसी जिंदगी दुबारा जीने को अगर मौका मिल जाए। इनकार कर देगा कि ऐसी जिंदगी मुझे नहीं जीनी। कुछ भी तो नहीं जाना, कुछ भी तो नहीं पाया, सिवाय दुख और पीड़ा के। सिवाय क्रोध और अशांति के क्या जाना है? सिवाय बेचैनी और परेशानी के कौन सी चीज से पहचान हो गई? कुछ भी नहीं, लेकिन भय है कि कहीं वह खो न जाए?
    मत भयभीत होइए। शांत होने के साथ ही वह संपदा मिलनी शुरू होती है, जिसे खोने के लिए कोई भयभीत हो, तो उचित भी माना जा सकता है। लेकिन बड़े आश्चर्यों का आश्चर्य यह है कि शांति से जो संपदा मिलती है, उसके खो जाने का कोई मार्ग नहीं है। उसे न कोई छीन सकता है, न कोई नष्ट कर सकता है, उसे न कोई मिटा सकता है, न कोई जला सकता है। शांत होने से जो संपदा मिलती है, हो सकता है कि कोई उसके खो जाने के लिए भयभीत भी हो, क्योंकि वह संपदा है, लेकिन उसके खो जाने का कोई भय नहीं। क्योंकि वह प्राणों की प्राण है। वह हमारे बाहर नहीं है कि भटक जाए, खो जाए। वह तो हम स्वयं हैं, वह तो हमारा स्वरूप है।
    उस स्वरूप की दिशा में शांत होने के संबंध में थोड़ी सी बातें मैंने आपसे कल कहीं। स्मरण रखिए, कुछ खोएगा नहीं शांत होने से, क्योंकि अभी कुछ है ही नहीं पास में। हां, कुछ मिल जरूर जाएगा। लेकिन उसकी हमें कल्पना भी नहीं है कि वह क्या है जो मिल सकता है?

    — ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-02]

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