संसार में बहुत दुख, पीड़ा, चिंता व अशांति है, इन सब के होते हुए हम कैसे शांत हो सकेंगे?

Question

प्रश्न – पूछा है कि संसार में बहुत दुख, बहुत पीड़ा है, दुख ही दुख है, पीड़ा ही पीड़ा, चिंता ही चिंता, अशांति ही अशांति, कैसे हम शांत हो सकेंगे इसमें? इस इतने उपद्रव में, इस झंझावात में, इस आंधी में कैसे सम्हाल सकेंगे अपने शांति के दीये को?

Answer ( 1 )

  1. नहीं, यह उन्हें संभव नहीं मालूम पड़ता है। निश्चित ही जीवन में बहुत उपद्रव हैं। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। और जीवन में उपद्रव हैं इसलिए आप अशांत हैं, यह निदान, यह डायग्नोसिस गलत है। आप अशांत हैं इसलिए जीवन में उपद्रव है। जीवन के उपद्रव के कारण आप अशांत नहीं हैं, आप अशांत हैं इसलिए जीवन में उपद्रव है।
    एक छोटी सी घटना, शायद खयाल में आ जाए बात।
    टोकियो के एक बड़े होटल में, आज से कोई तीस वर्ष पहले एक घटना घटी। एक सात मंजिल लकड़ी की बड़ी होटल में। एक विदेशी यात्री वहां ठहरा हुआ था। और उसने उस संध्या एक साधु को, साधु की खबरें सुन कर भोजन के लिए आमंत्रित किया था। साधु का नाम था, बोकोजू। वह साधु आया हुआ था। उस विदेशी यात्री ने अपने कुछ दस-पच्चीस मित्र भी साथ में बुलाए थे कि भोजन भी करेंगे, उस साधु से कुछ बात भी करेंगे। फिर बात चली, वे भोजन करते जाते, साधु से कुछ प्रश्न पूछे थे, वह उत्तर दे रहा था। और तभी बीच में आ गया भूकंप। सारा नगर डांवाडोल हो गया। भवन गिरने लगे, त्राहि-त्राहि मच गई, शोरगुल, उत्पात, अराजकता, कुछ समझ में न रहा। सात मंजिल ऊपर बैठे उस मकान पर सब कंपने लगा। फिर वहां कौन रुकता। अभी यहां भूकंप आ जाए तो कौन यहां रुकेगा? किसको खयाल रहेगा, क्या सुन रहे थे? किसको ध्यान रहेगा, आगे और क्या सुनने को था? कोई नहीं रुका। वहां भी कोई नहीं रुका। वे सब भागे। वह जो मेजबान था, जिसने निमंत्रित किया था मित्रों को, वह भी भागा। द्वार पर भीड़ हो गई। सीढ़ियां संकरी थीं। उसे खयाल आया कि मैं भाग रहा हूं, लेकिन जिस साधु को मैंने अतिथि की तरह बुलाया था, वह कहां है? वह भी भाग गया या नहीं? लौट कर देखा, वह साधु आंख बंद किए अपनी ही जगह बैठा है। उसे लगा, मेजबान भाग जाए, होस्ट भाग जाए; गेस्ट, अतिथि घर में बैठा हो, क्या यह शोभा योग्य है? क्या यह उचित है कि मैं भाग जाऊं मेहमान को छोड़ कर? और फिर यह आदमी कैसा है जो चुपचाप बैठा है भूकंप में? सब गिरा जाता है, किसी भी क्षण भवन गिर सकता है, मौत निकट है, यह चुप क्यों बैठा है? कैसा है यह आदमी? उस आदमी के आकर्षण ने, उस अदभुत आदमी के चुंबक ने जैसे उसे खींच लिया। वह खींच गया उसके पास और चुपचाप बैठ गया यह सोच कर कि जो होना है, इसका जो होना है वही मेरा होगा, लेकिन मैं भागूंगा नहीं। हाथ-पैर कंपे जाते हैं, प्राण कंपित हैं। फिर भूकंप आया और चला गया। कौनसा भूकंप हमेशा रुकता है, सब आता है और चला जाता है।
    भूकंप चला गया। साधु ने आंख खोली। बात जहां टूट गई थी भूकंप के आने से, फिर से शुरू करनी चाही। फिर से शुरू की। उसके मेजबान ने कहा, क्षमा करें, अब मुझे कुछ भी पता नहीं कि भूकंप के पहले हम कौनसी बातें करते थे। सब कंप गया, मन भी सब कंप गया, सब अस्त-व्यस्त हो गया। अब फिर कभी फुर्सत से बाद करेंगे। एक दूसरी बात लेकिन जरूर मुझे पूछनी है, हम भागे, प्राणों को संकट था, आप नहीं भागे?
    उस साधु ने कहा, भागा तो मैं भी, लेकिन तुम बाहर की तरफ भागे, मैं भीतर की तरफ भागा। और तुम व्यर्थ ही भाग रहे थे, क्योंकि जहां से तुम भागते थे वहां भी भूकंप था, जहां तुम भागते थे वहां भी भूकंप था। तो भूकंप से भूकंप में भागने का प्रयोजन क्या था? और तुम जहां भाग कर जा रहे थे, वहां जो लोग थे, वे भी कहीं भाग रहे थे। तो मतलब क्या था? भूकंप से भूकंप में ही दौड़ जाने का प्रयोजन क्या था?
    मैं उस तरफ भागा जहां भूकंप नहीं था। मैं भीतर की तरफ भागा। भीतर एक ऐसी जगह मिल गई है जहां कोई भूकंप कभी नहीं पहुंचता है। मैं उसी तरफ भाग गया था।
    मनुष्य के भीतर एक जगह है जहां कोई बाहर का भूकंप कभी नहीं पहुंचता है। जो उस शरण को खोज लेता है, जो उस मंदिर में प्रविष्ट हो जाता है, फिर बाहर का भूकंप तो उस तक नहीं पहुंचता, लेकिन उसकी शांति जरूर बाहर जो भूकंप में हैं उन तक पहुंचने लगती है। तब उसके उस मंदिर से एक रोशनी चारों तरफ फैलने लगती है। तब उसके उस शांत शून्य स्थल से, उस केंद्र से एक शांति की वर्षा चारों तरफ होने लगती है।
    जरूर जीवन में बाहर संकट हैं, भूकंप हैं, लेकिन इससे ऐसा मत सोच लेना कि ऐसी कोई भी जगह नहीं है जहां भूकंप न हो, और जहां आप न पहुंच सकते हों। उस स्थल को ही हम आत्मा या परमात्मा कहते हैं। आत्मा या परमात्मा कोई फिलासफिकल, दार्शनिक धारणाएं नहीं हैं। दार्शनिकों ने बड़ा अन्याय किया है। उन्होंने इन सारी धारणाओं को, जो जीवन की अनुभूतियां हैं; धारणाएं नहीं, कंसेप्ट नहीं, सिद्धांत नहीं, जो जीवन की सघन, यथार्थ अनुभूतियां हैं, उन सब पर वाद-विवाद खड़ा करके उन्हें थोथे शब्द बना दिया है।
    इन तीन दिनों में बाहर भूकंप है, इसी संबंध में तो मैंने आपसे कहा। और भीतर एक शरण है, उस संबंध में भी मैंने आपसे कहा। अब आपके हाथ में है कि आप भूकंप से भूकंप में भागेंगे या भूकंप से उस तरफ जहां कोई भूकंप नहीं है।

    मेरी बातों को तीन दिन तक इतने प्रेम और शांति से सुना, इसके लिए बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में…हो सकता है मेरी बहुत सी बातों ने किसी के मन को चोट पहुंचा दी हो, चाहा तो कभी नहीं है कि किसी के मन को कोई चोट पहुंच जाए, लेकिन सोए हुए आदमी को कोई जगाने की कोशिश करे, तो नींद में जो है उसे नींद टूटना अच्छी तो लगती नहीं, चोट पहुंच जाती है। सपने देख रहा होता है, कोई हिलाने लगता है कि उठो-उठो, बड़ा बुरा लगता है कि कहां बेवक्त कोई उठाने आ गया। अभी तो नींद ही लगी थी, अच्छा सपना चलता था, कहां-कहां पहुंचे जाते थे, सब गड़बड़ कर दिया। हो सकता है नींद में आपको खूब तीन दिन तक बार-बार मैं धक्के देता रहा हो, कहा कि उठो-उठो, आपके कोई सपने टूट गए हों, दुख हुआ हो, तो अंत में, तो विदा लेने के पहले मुझे क्षमा तो मांग ही लेनी चाहिए। तो मैं क्षमा मांगता हूं, अगर किसी कोई चोट पहुंच गई हो। लेकिन अंत में इतनी प्रार्थना जरूर करता हूं कि जिस दिन नींद को छोड़ने की सामर्थ्य आप जुटा लेंगे, उस दिन, उस दिन ही आपके जीवन में पहली बार आनंद का, आलोक का, अमृत का अवतरण होगा।
    परमात्मा से प्रार्थना करता हूं, सबके हृदय में आनंद और अमृत का अवतरण हो सके, सबके हृदय में वह उतर सके। और आपसे प्रार्थना करता हूं कि पुकारना उसे, बुलाना उसे, और अपने मन में जगह देना। जब वह आने को तैयार हो, तो मन के द्वार खुल रखना, ताकि वह अतिथि सीढ़ियों से वापस न लौट जाए। वह तो रोज आता है द्वार पर हरेक के, लेकिन द्वार बंद देख कर वापस लौट जाता है।

    अंत में सबके भीतर बैठे हुए परमात्मा को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।

    — ओशो [अंतर की खोज-प्रवचन-08]

    Best answer

Leave an answer