साधु-संत मिल-जुलकर एक टीम के रूप में काम क्यों नहीं करते?
Question
प्रश्न – पूछा है कि संत या साधु मिल-जुलकर एक टीम के रूप में काम क्यों नहीं करते?
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प्रश्न – पूछा है कि संत या साधु मिल-जुलकर एक टीम के रूप में काम क्यों नहीं करते?
Answer ( 1 )
बहुत अच्छा पूछा है कि संत लोग, वे लोग जिन्हें सत्य उपलब्ध हुआ है, एक साथ मिल-जुल कर काम क्यों नहीं करते? मैं आपको कहूं कि संतों ने आज तक मिल-जुलकर ही काम किया है। और मैं आपको यह भी कहूं कि न केवल जीवित संतों ने मिल-जुलकर काम किया है, लेकिन पच्चीस सौ वर्ष पहले जो संत मर गए हैं, वे भी उनके साथ आज काम कर रहे हैं, जो जिंदा हैं। यानि न केवल समसामयिक रूप से कंटेंप्रेरी संत साथ काम करते हैं, बल्कि ऐतिहासिक रूप से, ट्रेडीशनल रूप से संतों का काम एक साथ है।
मैं जो कह रहा हूं, अगर वह सच है, तो उसके पीछे बुद्ध और महावीर और कृष्ण और क्राइस्ट के हाथ हैं। अगर जो मैं कह रहा हूं, वह सच है, तो उनकी आवाज उसमें मिली-जुली है। और अगर मेरी आवाज में कोई ताकत मालूम होती है, तो वह मेरी अकेले की नहीं हो सकती; वह उन सारे लोगों की है, जिन्होंने कभी भी उन शब्दों को कहा होगा।
लेकिन जो संत नहीं हैं, वे जरूर कभी साथ मिलकर काम नहीं कर सकते। और ऐसे बहुत-से संत हैं, जो संत नहीं हैं, लेकिन संत मालूम होते हैं। उस हालत में दुर्जन लोग मिलकर काम कर सकते हैं, लेकिन वैसे तथाकथित साधु मिलकर काम नहीं कर सकते। क्यों नहीं कर सकते हैं? उनका संतत्व अहंकार के विसर्जन से पैदा नहीं हुआ है, उनका संतत्व भी अहंकार की तृप्ति का एक माध्यम है। और जहां अहंकार है, वहां मिलन नहीं होता। और जहां अहंकार है, वहां कोई मिलन हो ही नहीं सकता। क्योंकि अहंकार हमेशा ऊपर होना चाहता है।
मैं एक जगह था। वहां बहुत-से साधु आमंत्रित थे। एक बहुत बड़ा जलसा था। बहुत बड़े-बड़े साधु आमंत्रित थे। नाम उनके नहीं लूंगा, क्योंकि किसी को दुख हो। मुल्क के बहुत बड़े-बड़े लोग वहां थे। जिन्होंने आयोजन किया था, उनकी बड़ी आकांक्षा थी कि सारे लोग एक ही मंच पर बैठकर बोलें। लेकिन वे ‘संत’ राजी नहीं हुए! क्योंकि उन्होंने कहा कि ‘कौन नीचे बैठेगा, कौन ऊपर बैठेगा?’ क्योंकि उन्होंने कहा कि ‘हम ऊपर बैठेंगे, नीचे नहीं बैठ सकते।’ उन्होंने कहा या कहलवाया। और कहने वाला तो फिर भी सरल होता है, कहलाने वाला और भी जटिल और कपटी होता है। उन्होंने कहलवाया कि वे कोई एक साथ नहीं बैठ सकते।
उनका मंच व्यर्थ गया। वहां एक-एक आदमी को बैठकर बोलना पड़ा। बड़ा मंच बनाया था कि सौ लोग बैठ सकें। लेकिन सौ साधु एक साथ कैसे बैठ सकते हैं? उसमें कोई शंकराचार्य थे, जो कि बिना अपने सिंहासन के नीचे नहीं बैठ सकते। और अगर वे नीचे नहीं बैठ सकते हैं, तो उनके सिंहासन के बगल में दूसरे संत कैसे बैठ सकते हैं नीचे!
और तब बड़ी हैरानी होगी, जिनको अभी कुर्सियों में भी ऊंचाइयां और नीचाइयां हैं और जिन्हें अभी इसमें भी मापत्तौल है कि कौन कितना ऊंचा बैठा है और कौन कितने नीचे बैठा है, इनके चित्त कहां बैठे होंगे, यह पता चल सकता है।
दो साधु इसलिए आपस में मिल नहीं सकते कि पहले कौन नमस्कार करेगा! क्योंकि पहले कौन हाथ जोड़ेगा? क्योंकि जो हाथ जोड़ेगा, वह नीचा हो जाएगा। हद आश्चर्य की बात है! हम मानते रहे हैं सदा से कि जो पहले हाथ जोड़ ले, वह ऊंचा है। लेकिन वे संत समझते हैं कि जो पहले हाथ जोड़ेगा, वह नीचा हो जाएगा!
मैं एक बड़े साधु के सत्संग में था। एक बहुत बड़े राजनीतिज्ञ भी वहां गए हुए थे। उन साधु को तो ऊपर तख्त पर बिठाया गया था, हम सारे लोग नीचे बैठे थे। सत्संग शुरू हुआ। उन राजनीतिज्ञ ने कहा कि ‘मैं सबसे पहले यह पूछूं कि हम नीचे बैठे हैं, आप ऊपर क्यों बैठे हैं? अगर आप भाषण भी कर रहे होते, तब भी ठीक था। यह तो सत्संग है। वार्ता होगी। और आप इतने ऊपर चढ़े हैं कि बातचीत मुश्किल ही होगी। आप कृपा करके नीचे आ जाएं।’ लेकिन वे साधु नीचे नहीं आ सके। और उस राजनीतिज्ञ ने पूछा, ‘अगर नीचे न आ सकते हों, कोई ऐसा कारण हो, तो हमें समझाएं कि ऊपर बैठने का कारण क्या है?’
वे खुद तो नहीं बोल सके, बहुत घबड़ा गए। उनके एक साधु ने उत्तर दिया कि ‘यह परंपरागत है कि वे ऊपर बैठें।’ उस राजनीतिज्ञ ने कहा कि ‘ये आपके गुरु होंगे। लेकिन हमारे गुरु नहीं हैं!’ उस राजनीतिज्ञ ने यह भी कहा, ‘हमने हाथ जोड़कर नमस्कार किया, आपने हाथ नहीं जोड़े, आपने हमको आशीर्वाद दिया। अगर समझ लीजिए, कोई दूसरा साधु मिलने आया होता और आप आशीर्वाद देते, तो झगड़ा हो जाता। आपको भी हाथ जोड़ने चाहिए।’ उत्तर मिला कि ‘वे हाथ नहीं जोड़ सकते हैं, क्योंकि यह परंपरागत नहीं है।’ वह बात इतनी खराब हो गयी कि वह गोष्ठी आगे चल ही नहीं सकती थी।
मैंने उन साधु को कहा कि ‘मुझे आज्ञा दें कि मैं इन राजनीतिज्ञ को थोड़ी-सी बातें कहूं।’ उन्होंने मुझे आज्ञा दी। वे चाहे कि चलो यह निपटारा हुआ। बात आगे बढ़े। यहां से खत्म हो। मैंने उन राजनीतिज्ञ को कहा, ‘आपको सबसे पहले आकर यह क्यों दिखायी पड़ा कि वे ऊपर बैठे हुए हैं? सबसे पहले आपको यह कैसे दिखायी पड़ा कि वे ऊपर बैठे हुए हैं?’ और मैंने कहा कि ‘अब मैं कृपा करके यह पूछूं, आपको यह दिखायी पड़ा कि वे ऊपर बैठे हैं या आपको यह दिखायी पड़ा कि मैं नीचे बिठाया गया हूं? क्योंकि यह भी हो सकता था, आप भी ऊपर बिठाए गए होते, तो मैं नहीं समझता कि आपने यह प्रश्न पूछा होता। हम सारे लोग नीचे होते और आप भी उनके साथ ऊपर होते, तो मैं नहीं समझता कि यह प्रश्न आपने पूछा होता। इसलिए दिक्कत उनके ऊपर बैठने से नहीं है, दिक्कत आपके नीचे बैठने से है।’
उन राजनीतिज्ञ ने मेरी तरफ देखा। वे उन दिनों बड़ी हुकूमत में थे और हिंदुस्तान के अग्रणी लोगों में से थे। उन्होंने मेरी तरफ बड़े गौर से देखा और उन्होंने बड़ी सरलता जाहिर की। उन्होंने कहा कि ‘मैं स्वीकार करता हूं, मुझे यह कभी किसी ने कहा नहीं, मुझमें बहुत अहंकार है।’
साधु बहुत प्रसन्न हुए। और जब हम विदा होने लगे, साधु ने मेरे कंधे पर हाथ रखा और कहा, ‘आपने अच्छा मुंहतोड़ जवाब दिया।’ मैंने उनको कहा कि ‘वह जवाब उनके लिए नहीं था, वह आपके लिए भी था।’ और मैंने उनको कहा कि ‘मुझे दुख है, वह आदमी ज्यादा सरल साबित हुआ और आप उतने सरल भी साबित नहीं हुए। उसने स्वीकार किया कि मेरा अहंकार है, लेकिन आपने यह भी स्वीकार नहीं किया, उलटे आपने अपने अहंकार का पोषण कर लिया मेरे उत्तर से!’
ऐसे जो संत हैं, ऐसे जो साधु हैं, वे मिलकर काम नहीं कर सकते हैं। उनका तो सारा काम किसी की दुश्मनी में है। उनका तो सारा जोश किसी की दुश्मनी में है। अगर कोई दुश्मन न हो, तो वे कुछ कर ही नहीं सकते। उनकी तो सारी क्रिया किसी की घृणा और विरोध से निकल रही है। इतने जितने संप्रदाय हैं, इतने जितने धर्म हैं, इनके नामों से जो साधु खड़े हैं, उनको कोई नासमझ ही साधु कह सकता है। क्योंकि साधु का पहला लक्षण तो यह होगा कि वह किसी धर्म का नहीं रह जाएगा। साधु का पहला लक्षण तो यह होगा, उसकी कोई सीमा नहीं रह जाएगी, उसका कोई संप्रदाय नहीं होगा। उसका कोई घेरा नहीं होगा। वह सबका होगा। और उसका पहला लक्षण यह होगा, उसकी अहंता मिट गयी होगी, उसकी अस्मिता विलीन हो गयी होगी।
लेकिन ये सब तो अहंकार को बढ़ाने और पोषण करने के उपाय हैं। स्मरण रखिए, बहुत धन से भी अहंकार तृप्त होता है। बहुत त्याग मैंने किया है, इससे भी तृप्त होता है। बहुत ज्ञान मेरे पास है, इससे भी तृप्त होता है। मैंने सब लात मार दिया दुनिया पर, इससे भी तृप्त होता है। और इनकी जिनकी तृप्तियां हैं, वे कभी साथ नहीं हो सकते। अहंकार अकेला विभाजक तत्व है और निरहंकारिता अकेला जोड़ने वाला तत्व है। तो जहां निरहंकार है, वहां जोड़ है।
एक बार कबीर जहां रहते थे, उनके गांव के पास से एक मुसलमान फकीर था फरीद, उसका निकलना हुआ। उसके कुछ साथी और वह यात्रा पर निकले थे। उसके साथियों ने फरीद से कहा कि ‘बड़ा सुयोग है, रास्ते में कबीर का भी निवास पड़ता है। उनकी कुटी पर हम दो दिन रुकें। और आप दोनों की चर्चा होगी, तो हमें बहुत आनंद होगा। आप दोनों मिलेंगे और बातें करेंगे, तो हम सुनकर बहुत लाभान्वित होंगे।’ फरीद ने कहा, ‘जरूर रुकेंगे, मिलेंगे भी; लेकिन चर्चा शायद ही हो।’ उन्होंने कहा, ‘क्यों?’ फरीद ने कहा, ‘चलें रुकें। मिलेंगे भी, रुकेंगे भी; चर्चा शायद ही हो।’
कबीर के शिष्यों को पता चला, तो उन्होंने कहा कि ‘यहां से फरीद निकलने को हैं। हम उन्हें रोक लें। बहुत आनंद होगा। दो दिन आपकी बातें होंगी।’ कबीर ने कहा, ‘मिलेंगे जरूर। जरूर रोको, बहुत आनंद होगा।’
फरीद रोका गया। फरीद और कबीर गले मिले। वे दोनों खुशी में रोए। लेकिन दो दिन उनमें कोई बात नहीं हुई। वे दोनों विदा हो गए। शिष्य बहुत निराश हुए। जब वे दोनों विदा हो गए, दोनों के शिष्यों ने पूछा, ‘आप कुछ बोले नहीं!’ उन्होंने कहा, ‘हम क्या बोलते! जो वे जानते हैं, वही हम जानते हैं।’ फरीद ने कहा, ‘जो मैं जानता हूं, वही कबीर जानते हैं। हम बोलते क्या? और हम दो भी कहां हैं, जो हम बोलते। कोई तल है, जहां हम एक हैं।’
वहां बोलने तक का विरोध नहीं है संतों में–बोलने तक का! डायलाग भी संभव नहीं है। वह भी एक विरोध है। उस तल पर संतों का सनातन काम एक ही हो रहा है। उसमें कोई प्रश्न ही नहीं है विरोध का। वे किसी हिस्से में पैदा हुए हों, किसी कौम में और किसी ढंग से रहे हों, उनमें कोई विरोध नहीं है। लेकिन जो संत नहीं हैं, स्वाभाविक है, उनमें विरोध हो। इसलिए स्मरण रखें, संतों में कोई विरोध नहीं है। और जिनमें विरोध हो, इसे कसौटी समझें कि वे संत नहीं होंगे।
— ओशो (ध्यान सूत्र | प्रवचन–03)
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