“जीवन का रस !” – ओशो
“मैंने सुना है, स्वर्ग के एक रेस्तरां में एक दिन सुबह एक छोटी—सी घटना घट गई। उस रेस्तरां में तीन अदभुत लोग एक टेबिल के आसपास बैठे हुए थे—गौतम बुद्ध, कन्फ्यूशियस, और लाओत्से। वे तीनों स्वर्ग के रेस्तरां में बैठ कर गपशप करते थे। फिर एक अप्सरा जीवन का रस लेकर आयी
उस अप्सरा ने कहा, जीवन का रस पियेंगे?
बुद्ध ने सुनते ही आंख बंद कर ली और कहा, जीवन व्यर्थ है, असार है, कोई सार नहीं।
कन्फ्यूशियस ने आधी आंख बन्द कर ली और आधी खुली रखी। वह गोल्डन मीन को मानता था, हमेशा मध्य—मार्ग। उसने थोड़ी—सी खुली आंखों से देखा और कहा, एक घूंट लेकर चखूंगा। अगर आगे भी पीने योग्य लगा तो विचार करूंगा। उसने थोड़ा—सा जीवन—रस लेकर चखा और कहा, न पीने योग्य है, न छोड़ने योग्य; कोई सार भी नहीं, कोई असार भी नहीं। उसने मध्य की बात कही।
लाओत्से ने पूरी की पूरी सुराही हाथ में ले ली और जीवन—रस को कुछ कहे बिना पूरा पी गया। और तब नाचने लगा और कहने लगा, आश्रर्य कि गौतम तुमने बिना पिये ही इन्कार कर दिया और आश्चर्य कि कन्फ्यूशियस, तुमने थोड़ा सा चखा। लेकिन कुछ चीजें ऐसी होती हैं कि पूरी ही जानी जायें तो ही जानी जा सकती हैं। थोड़ा चखने से उनका कोई भी पता नहीं चलता।
अगर किसी कविता का एक छोटा—सा टुकड़ा किसी को दिया जाये—दो पंक्तियों का, तो उससे पूरी कविता के संबंध में कुछ भी पता नहीं चलता। एक उपन्यास का पन्ना फाड़कर किसी को दे दिया जाये, तो उससे पूरे उपन्यास के संबंध में कोई पता नहीं चलता है। कोई वीणा पर संगीत बजाता हो, उसका एक स्वर किसी को सुनने को मिल जाये तो उससे उसको, वीणाकार ने क्या बजाया था, इसका कुछ भी पता नहीं चलता। एक बड़े चित्र का छोटा—सा टुकडा फाड़कर किसी को दे दिया जाये, तो उसे बड़े चित्र में क्या है, उस छोटे टुकड़े से कुछ भी पता नहीं चल सकता।
कुछ चीजें हैं, जिनके थोड़े स्वाद से कुछ पता नहीं चलता, जिन्हें उनकी होलनेस में, उनकी समग्रता, टोटेलिटी ” ही पीना पड़ता है, तभी पता चलता है।
लाओत्से कहने लगा, नाच उठा हूं मैं। अदभुत था जीवन का रस।
और अगर जीवन का रस भी अदभुत नहीं है तो अदभुत क्या होगा? जिनके लिए जीवन का रस ही व्यर्थ है, उसके लिए सार्थकता कहां मिलेगी? फिर वे खोजें और खोजें। वे जितना खोजेंगे, उतना ही खोते चले जायेंगे। क्योंकि जीवन ही है एक सारभूत, जीवन ही है एक रस, जीवन ही है एक सत्य। उसमें ही छिपा है सारा सौन्दर्य, सारा आनंद, सारा संगीत।”
— ओशो (संभोग से समाधि कि ओर (ग्याहरवां प्रवचन))
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